राग-विराग – 004
डॉ. प्रतिभा सक्सेना["मोइ दीनों संदेस पिय, अनुज नंद के हाथ।
रतन समुझि जनि पृथक मोहि, जो सुमिरत रघुनाथ॥"]
- रत्नावली
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"कैसी अद्भुत जोड़ी!"
विवाह समय सब ने कहा था कैसी अद्भुत जोड़ी– जैसे वर-कन्या के वेष में स्वयं सीता-राम विराज रहे हों!
लोगों की नज़र लग गई शायद उस युगल पर।
"जड़ चेतन गुन-दोसमय बिस्व कीन्ह करतार.."
विधाता गुण-दोषमयी सृष्टि रचकर अपने प्रयोग करता है। मानव के लिए विज्ञान और आनन्द का विधान तो किया पर सबसे पहले अन्न-प्राणमय देह ज़रूरी कर मनोमय को बीच में डाल दिया। आदमी बेचारा करे तो क्या करे?
मन के उत्पात झेले बिना निस्तार कहाँ!
दो प्रखर व्यक्तित्व संपन्न प्राणी मिलें तो जीवन सामान्य कैसे रह पाये। नियति पहले ही असामान्यता उनके हिस्से में लिख देती है। क्योंकि यहाँ सर्वथा दोषहीन कोई नहीं होता।
और बुद्धि के हंस ने तुरंत विकार परख लिया। रत्नावली की बात तुलसीदास के मन को लग गई। कोई साधारण स्त्री होती तो पति पर उसके कहने का यह प्रभाव न पड़ता, गृहस्थी की गाड़ी ढचर-ढचर करती आगे बढ़ती रहती। जीवन का प्रवाह टकराता-बिछलता बहता रहता। पर यह रत्नावली थी और पति थे तुलसीदास। दोनों एक दूसरे की टक्कर के। कोई किसी से घट कर नहीं – न विचार-व्यवहार में न बुद्धि-विवेक न काव्य-कौशल में। दीनबन्धु पाठक की संस्कारशीला, सुशिक्षित परम रूपवती कन्या। जिसके लिये पिता को तुलसी के सिवा कोई उपयुक्त वर जँचा ही नहीं था।
तुलसीदास लौट आए। पर अब घर, घर कहाँ था।
अचानक कैसा विपर्यय – एकदम सब कुछ बदल गया।
राजापुर में तुलसी के पिता पं. आत्माराम शुक्ल और पं. जीवाराम शुक्ल दो भाई थे पं.जीवाराम के पुत्र थे परम कृष्ण भक्त, अष्टछाप के कवि नंददास।
वहाँ जाकर जब यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे, मनका संताप तीव्र हो उठा। श्राद्ध कर्म संपन्न कर, विरक्त मन से काशी चले आये।
तुलसी के मानस में बार-बार वही शब्द कौंध जाते हैं।
रत्ना ने कहा था राम की कथा कहते हो, मर्यादापुरुष की कथा कहने के लिये, निर्मल प्रेम की महत्ता निरूपित करनेवाले राम के चरित को गुनना आवश्यक है। उसके बिना उन्हें वर्णित करना संभव नहीं।
उन दिनों प्रयाग में माघ मेला चल रहा था। अपने यात्रा-पथ में वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। साधु-संतों का जमावड़ा लगा था। श्रद्धालु जन कथा-वार्ता, व्रत-पूजा में समय बिता कर तीर्थराज का पुण्य-लाभ ले रहे थे।
गंगा तट पर दिन व्यतीत करते गोस्वामी जी के कानों में एक दिन कहीं से आते हुए राम कथा के स्वर गूँजे। उसी कथा के जो सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी, पर बालपन की अबोधता में गुनने से रह गये थे। चकित हो कर उन्होंने चारों ओर देखा।
आभास हुआ वटवृक्ष के नीचे भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि विराजे हैं, रामकथा का अनुश्रवण चल रहा है। यंत्र-चालित से नयन मूँद आवेष्टित तुलसी सुनते रहे, राम की लीलाओं का साक्षात्कार करते रहे।
फिर अपने आराध्य की जन्म-स्थली जाये बिना तुलसी कैसे रह सकते थे, वे अयोध्या के लिये निकल पड़े।
जीवन की तीर्थयात्रा अनवरत चलती रही। तुलसी अधिकाधिक निर्लिप्त होते गये। आराध्य के चरणांकित किसी स्थान को छोड़ा नहीं उन्होंने।
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इतना उत्कट प्रेम वहन करने के बाद मन का कागज़ कोरा रह कैसे रह सकता है! जीवन-पुस्तक के आगे के पृष्ठ लिखे जाने से पिछले अध्याय रिक्त नहीं होते। आधार से हट कर ऊपरी संरचना कहाँ जमेगी, कहाँ आगे का संभार टिकेगा! तार कहीं न कहीं जुड़ते चलते हैं।
कभी-कभी हृदय में आवेग सा उमड़ता है जो भीतर तक हिला जाता है। कुछ चुभता है, रह-रह कर दंश देता है।
तुलसी रत्ना को कब भूले! बस, रूपान्तरण हो गया। दीनबन्धु-पुत्री की सुरञ्जित साड़ी आवेष्टित काया, हाड़-मांस की नाशवान देह न रह कर जनक-सुता के दिव्य रूप में परिणति पा गई। और उसी के साथ सारा परिवेश सिया-राम मय हो कर दिव्यता से आवरित हो गया।
नवल तन पर सुन्दर साड़ी धारण किये ("सोह नवल तन सुन्दर सारी" - राम चरितमानस) जनक-सुता के रूप में उस अवतरण की कान्ति से संपूर्ण मानस दीप्तिमान हो उठा। वन-वन भटकते, वर्षाकाल में "प्रियाहीन" अकेले मन की व्यथा झेलते राम और उनके विरही मन को अभिव्यक्त करते भुक्तभोगी भक्त तुलसी के मानस के तार जुड़ गये। जीवन-व्यापी वियोग, भक्ति के आवरण में, सिया-राम की अमर कथा का एक मार्मिक अध्याय बन गया।
"जासु कृपा निर्मल मति पावौं,"
यह निर्मल मति उसी अनुकम्पा का प्रतिफल है, जो सारे जग को सिया-राम मय कर तुलसी की वर्णना में विकीरित हो रही है।
क्षणिक मोहावेश में सारी मर्यादायें भूले, तुलसी को धिक्कार कर रत्ना वन्दनीया हो गई।
नहीं, वह कोरी आसक्ति नहीं थी!
चित्त चेत गया और तुलसी ने जीवन के परम उद्देश्य का बोध पा लिया था।
"हम तो पावा प्रेम रस पतनी के उपदेस।"
सचेत मन, दृढ़ निश्चय ले नयी दिशा में प्रवृत्त हो गया –
"रतन, तुम्हें इस बंधन से मुक्त करता हूँ, और मैं भी निर्बाध हो प्रस्थान करता हूँ।
सहधर्मिणी, तू भी तप जीवन के कठिन ताप में, कि तन की माटी कंचन हो जाये!"
– (क्रमशः)