कोफी अन्नान की बीवी
डॉ. प्रतिभा सक्सेनाकोफी अन्नान! संसार प्रसिद्ध हस्ती! कौन नहीं जानता उन्हें! कोई बिरला ही ऐसा मूढ़ होगा जिसने उनका नाम न सुना हो। पर उनकी बीवी! उनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। कौन हैं, कहाँ की हैं, क्या नाम है किसी को नहीं पता। अगर उनके बारे में भी सूचनायें दी जाती रहतीं तो ऐसा अनर्थ नहीं होता। मेरा विचार है कि सीता-राम, राधा-कृष्ण, गौरी-शंकर आदि में पति के साथ पत्नी नाम लेने की परंपरा इसीलिये शुरू की गई होगी कि इस प्रकार के गजब न होने पायें। पर अब पुरानी बातों को कौन मानता है! माने-जाने लोगों की पत्नियाँ अनजानी ही रह जाती हैं। वैसे प्रसिद्ध हस्तियों के साथ उनकी पत्नियों के नाम अवश्य होना चाहिये - सभी लोग तो अपने वाजपेयी जी जैसे कठ-कुँआर नहीं होते !
पर क्या किया जाय? कौन रोक सका है होनी को! जो होना था हो गया। मेरे सामने होता रहा, होता क्या रहा, मैं खुद, परोक्ष रूप से ही सही उस होने का माध्यम बन गई; और बन गई उसकी एक मात्र साक्षी भी। अभी तक मैं कुछ नहीं बोली थी, पर अब बातें सहन शक्ति के बाहर जा रही हैं। अब नहीं चुप रह सकती। किसी से रिश्ते बिगड़ें, बिगड़ जायँ, तोहमतें लगें, लगती रहें, पर अब मैं अकेली सहन नहीं करूँगी। जो कुछ हुआ ब्योरेवार सब कह डालूँगी।
इन्टर कॉलेज में पढ़ा रही थी तब। प्राइमरी से लेकर डिग्री कॉलेजों तक के इन्टरव्यू दिये हैं मैंने। और बड़े बोल न समझें तो लगभग हर जगह सेलेक्शन हुआ है मेरा। बहुत अनुभव है मुझे साक्षात्कारों का। हाँ तो तब मैं इन्टर कॉलेज में पढ़ा रही थी। खाली समय में पुस्तकालय में जा बैठना मेरी पुरानी आदत है। पुस्तकालय सहायिका रूबी से मेरी अच्छी पटरी बैठने लगी वह हर नई पुस्तक, मेरे मतलब की, मेरे लिये चुन कर रख देती, और उसके कामों में मैं उसकी भरसक सहायता कर देती थी।
तो मैं बता रही थी हम दोनों एक दूसरी की मदद करते थे। स्कूल में खरीदी गई किताबों की लिस्ट अक्सर ही अँग्रेजी में आ जाती थी, और अंग्रेजी में लिखे हिन्दी नामों मे कन्फ़यूजन होने पर वह मेरा सहारा लेती थी। शुरूआत ऐसे हुई कि एक किताब का टाइटिल अंग्रेजी में था टाम काका की वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे कुतिया पढ़े या कुटिया। मैंने समाधान दिया टाम काका का कुतिया - कुटिया लिख दो, जिसे जो समझना होगा समझ लेगा। उसने जब लिखा तो उसका "ट" "र" की तरह लग रहा था। बाद में राम और टाम की समस्या और खड़ी हो गई। पर वह बाद की बात है। कमल कमाल, हसन हासन तमाम शब्दों में उसने यही पद्धित अपनाई। "राग दरबारी" संगीत की किताबों में देख कर मुझे ताज्जुब हुआ। मैंने उससे कहा यह हिन्दी का प्रसिद्ध उपन्यास है, इसे उपन्यासों के शेल्फ में रखो। पर वह हमेशा संगीत की पुस्तकों में शामिल रहा। मैं क्या करती चुप लगा गई।
रोज नई-नई साड़ियाँ पहन कर लड़कियों के बीच इठलाती टीचर्स, सीमित समय, गिने हुये पीरियड लड़कियों में सम्मान, देख-देख कर उसका मन लेक्चरर बनने को मचलने लगा, पुस्तकालय से उसका मन उचाट होने लगा। उन्हीं दिनों इस डिग्री कॉलेज की वांट्स निकलीं। मैं एप्लाई कर रही थी। उसका मन देख कर मैंने उसे भी बता दिया।
मैंने उससे पहले ही पूछ लिया था, तुमने कभी पढ़ाया है। उसकी स्वीकारोक्ति थी किसी लीव-वेकेंसी पर कुछ महीने पढ़ाया था। मुझसे कुछ नहीं छिपाती थी, उसने यह भी बता दिया कि कुञ्जी किता में दबा कर रख लेती थी वही पढ़ा देती थी।
उसने भी आवेदन कर दिया पर इन्टरव्यू के नाम से उसे घबराहट हो रही थी। मैंने उसे आश्वस्त किया। मैंने इतने इन्टरव्यू झेले हैं कि मुझे वह तमाशा लगने लगे हैं। जो लोग इन्टरव्यू लेने बैठते हैं विशेष कर प्राइवेट मैंनेजमेन्ट वाली संस्थाओं में उनमें से अधिकाँश विषय का ए.बी.सी.डी भी नहीं जानते पर सवाल करते रहते हैं। दो एक लोग ऐसे होते हैं जो समझते-बूझते हैं पर उनकी वहाँ शायद चलती न ही। मैं उनकी मुद्राओं को कौतुक से देखती और उनका विश्लेषण करती रहती। मुझे पता था वे जो पूछ रहे हैं उसके सही उत्तर खुद नहीं जानते। पता नहीं लोग इन्टरव्यू से क्यों घबराते हैं! यही मैं उसे समझा रही थी - हमारे यहाँ इन्टरव्यू लेने वालों के लिये योग्यता का कोई मान निर्धारित नहीं है, विशेषकर प्राइवेट सेक्टर में। मैंनेजिंग कमेटी में संस्थापक और सदस्य चाहे अँगूठाछाप हों उम्मीदवार के आगे ऐसे रौब से बैठते हैं जैसे साक्षात् बुद्धिदाता गणेश के अवतार हों। और पता है? वास्तव मे होते हैं वे गोबर गणेश। एक - दो जो ‘ग के लोग होते हैं वे दुबके बैठे रहते हैं क्योंकि पैसा तो उन्हीं का लगा है - लक्ष्मीवाहनों का! लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, ऐसे ही एक अवसर पर मेरे गले से उतर गया। मेरे पति ने अपना किस्सा सुनाया था। एक बार वे एक इन्टर कॉलेज के साक्षात्कार में फँस गये थे। एक मोटे-तोंदवाले ने उनसे पूछा, तो आपने एम.एस सी किया है?
"जी, हाँ। डिवीजन भी..."
बीच में ही उन्होंने टोक दिया, "और बी एस सी भी किया है?"
"हाँ पहले ही..."
"तो आपको यह पहले बताना था।"
पढ़े-लिखे मेम्बर चुप बैठे रहे।
डिग्रियाँ और सार्टिफिकेट अँग्रेजी में थे, सामने रखे थे, बिचारा क्या देखता!
मैं पूरी रौ में उसे सुना रही थी कि उसने कहा, "बड़ी अच्छी बातें हैं पर जरा रुकिये, मैं बाथरूम कर आऊँ।"
वह चली गई। मैं सोचती रह गई ये बाथरूम करना क्या होता है। अगर सभी लोग यों बाथरूम करने लगें तो एक दिन सारी धरती पर बाथरूम ही बाथरूम दिखाई देंगे। इससे अच्छा हो लोग किचन और ड्राइँगरूम किया करें।
उसका मनोबल काफी बढ़ गया, उसने भी एप्लाई कर दिया।
इस बीच नई आई हुई किताबों की बौछार कर दी उसने मुझ पर। सबसे बचा कर, सबकी नजर बचा कर वह मेरी पसन्द की सारी किताबें मेरे लिये रिजर्व रखती थी। मेरे और निकट हो गई वह, और मुझसे अपनी कोई बात नहीं छिपाती थी। उसने मुझे सब बता दिया था कि उसने गाइडें और घ्जियों से पढ़-पढ़ कर परीक्षायें पास की थीं। और उसके पिता के किरायेदार स्कूल के टीचर होने के कारण, परीक्षाओं में उसे नकल करने की सुविधा दी जाती थी। उसकी पढ़ने में रुचि नहीं थी पर उसके पिता अपनी बेटी को एम.ए. पास देखना चाहते थे। उन्होंने उसे आश्वस्त कर दिया था, "बिटिया, तुम डरो मत। भर दो फार्म। हमारे बड़े ऊँचे - लंबे सोर्स हैं। बस तुम इम्तहान दे डालो।" और अपनी उसी पहुँच की बदौलत इस कॉलेज में नौकरी भी दिलवा दी थी।
कुछ समय बाद हम लोगों के इन्टरव्यू लेटर्स आ गये। और एक दिन हम उपस्थित हो गये साक्षात्कार कमेटी के सामने अपने को प्रस्तुत करने। काफी लोग थे। लोग क्या महिला कॉलेज की रिक्तियाँ थीं, उम्मीदवार महिलायें ही थीं। हम दोनों भी वहीं जम गये।
अपने यहाँ भी हम लोग होल में बैठते हैं, उसने कहा।
"कहाँ, अपने घर में?"
"नहीं घर में होल कहाँ? इस्कूल में।"
मुझे विस्मय हो रहा था - यह कोई कीड़ा-मकोडा, चिड़िया, चूहा, या छछुँदर तो है नहीं जो होल में समा जाये।
"तुम होल में घुस कैसे पाती हो?"
"अरे, बहुत बड़ा कमरा होता है होल। अभी भी तो बैठे हैं।"
मैं समझी थी होल छोटा सा होता है, पर इसका होल तो हॉल है।
"दीदी, मुझे तो बड़ी घबराहट हो रही है। कैसे क्या होगा!"
"घबराओ मत अपने पर विश्वास रखो। जो पढ़ा है मन ही मन दोहरा जाओ।"
"पढ़ा! हमने तो कभी कोर्स की किताबें खरीदी नहीं, गाइड से तैयारी की थी वह कब की बेंच दी।"
"कभी तो कुछ पढ़ती होगी?"
"हमें तो मनोहर कहानियाँ, सच्ची कथायें अच्छी लगती हैं, या फिल्मी पत्रिकायें। कुछ तो तत्व होता है। ये प्रसाद-पंत वगैरा तो जाने कहाँ-कहाँ की हाँकते हैं कुछ पल्ले नहीं पड़ता। उपन्यास भी काफी पढ़े हैं, गुलशन नन्दा, आवारा..."
"बस बस काफी है।"
"हाय राम, मेरा क्या होगा?"
"भरोसा रखो। जो होगा ठीक ही होगा।"
"नाम के हिसाब से पहले आपका नंबर आयेगा, मेरा तो बहोत बाद में...आप बताइयेगा, उसी हिसाब से हम सोच लेंगे।"
"देखो, किसी तरह उन्हें अपनी लाइन पर ले आओ, तो समझो किला फतह। मतलब, वे अपने हिसाब से सवाल न कर तुम्हारे हिसाब से करने लगें।"
वह कुछ देर चुप रही। पास वाले ग्रuप की महिलायें अपनी चर्चा में लगीं थीं, पॉलिटिक्स पर कुछ बात हो रही थी।
"दीदी, कोफी! वो लोग भी कोफी पीने की बात कर रही हैं?"
"नहीं, वो कोफी अन्नान की बात कर रहे हैं।"
"कोफी अन्नान? ये क्या होता है? मैं तो पूछ रही हूँ कोफी पियेंगी? थोड़ा फरेश हो जायेंगे।"
"नहीं, मेरा मन नहीं है।"
"ये कोफी अन्नान क्या था?"
अब इसे बताने से क्या फायदा। फिर भी मैंने कहा, "एक नाम है बस।"
कुछ रुक कर मैंने पूछा, "रूबी, तुम अखबार तो पढ़ती होगी?"
"अखबार? हाँ पढ़ते हैं न। पर पोलिटिक्स में हमें बिल्कुल रुचि नहीं। और खबरों में भी हत्या, लूट-पाट वगैरा, और क्या होता है अखबार में। क्या फायदा उस सब को पढ़ने से? अपने शहर का पेज पढ़ लेते हैं, बिजली पानी का हाल, छुट्टी बगैरा..."
"संयुक्त-राष्ट्र-संघ के बारे में जानती हो?"
"पहले जरनल नोलेज में पढ़ते थे, अब तो सब भूलभाल गये। जरनल कोलेज में सबसे खराबी ये है कि हर बार नई चीजें आ जाती हैं। पहले का पढ़ा-लिखा बेकार। आखिर कहाँ तक पढ़ें! ... हाँ वो कोफी अन्नान क्या है?"
क्या फायदा बताने से - सोचा मैंने - अभी फिर दिमाग चाटेगी, "कोफी अन्नान, एक नाम है, आजकल चलन में है।"
मेरा नाम पुकारा गया था
लौट कर आई तो कई महिलाओं ने घेर लिया।
"क्या क्या पूछा?"
सब इन्टरव्युओं में एक से लोग होते हैं। दूसरे की समझते नहीं, बस अपनी लगाये रहते हैं।
"पर हुआ क्या?"
"साहित्य के बजाय भूगोल पर उतर आये। प्रसाद के भूगोल-ज्ञान की बात कर रहे थे। मैंने इतना समझाने की कोशिश की कि वे कवि थे पर वे अपनी धुन पूरे रहे।"
"क्या?"
"कहते हैं हिमालय के शिखर पर वट का वृक्ष कहाँ से आ गया?"
"और कुछ नहीं पूछा?"
"अरे पूछेंगे क्या वे? जो पूछ रहे थे वे कोई खास पढ़-लिखे लगे नहीं। एकाथ ठीक ठाक लगे पर उनने कुछ पूछा नहीं।
"आपको देर तो इतनी लगी, और कुछ पूछा नहीं?"
"पूछा! और क्या पूछेंगे वे? ये पूछा पति का क्या नाम है? कै बच्चे हैं, वगैरा वगैरा।"
"अच्छा!"
"हाँ पति का नाम-धाम-काम पूछ कर सेलेक्शन करते हैं। ठीक से याद करके जाना?"
रूबी ने पूछा, "और क्वाँरी...?"
"क्या फर्क पड़ता है! कहीं-न-कहीं तो कोई होगा ही। कोई अच्छा सा नाम ले देना।"
"अरे वाह!"
"हाँ, और क्या? कोई ‘ग का सवाल करें तो ‘ग का जवाब दिया जाय! एक से एक ऊल-जलूल सवाल।"
"तो आपने कैसे समझाया उन्हें?"
"वहाँ समझनेवाला था कौन? बस उन्हें अपनी लाइन पर लाना था, उन्हें घेर-घार कर वहीं ले आई, प्रसाद पर। और दूसरे सज्जन भूगोल पर उतर आये।"
"हूँ! अपनी लाइन पर ले आओ, तो बात बन जाये", रूबी विचार पूर्ण मुद्रा में थी।
इधर मैं पसोपेश में थी कि रूबी का क्या करूँ। इसका सेलेक्शन कैसे होगा, पहले सवाल में ही धराशायी हो जायेगी। कहीं ऐसा न हो कि बाहर आये और मुझसे चिपट कर रोने लगे। मुझे तो उसके लिये रुकना ही था। और कुछ लोगों की बुलाहट हुई, फिर रूबी का नंबर आया। मैं कलेजा थामे बैठी रही, पछताती रही कि इसे लेक्चररशिप के ख्वाब दिखाकर क्यों एप्लाई करवा दिया इससे। हॉल में एकाध महिला थी बाकी सब जा चुकीं थीं। आधे घ्ांटे से भी अधिक समय बीत गया। मैं परेशान हो उठी, पता नहीं क्या हो रहा है अन्दर? थोड़ी देर में वह आती दिखाई दी। आँखें कुछ लाल थीं पर वह बड़ी आश्वस्त थी।
मैं दौड़ी, "क्या हुआ रूबी?"
"सब ठीक हो गया।" मैं उसका मुँह तके जा रही थी।
"चलो दीदी, यहाँ रुक कर क्या करेंगे! रास्ते मे सब ब्योरेवार बताती हूँ।"
उसने जो बताया वह इस प्रकार था -
"आपने मुझे अच्छा आगाह कर दिया था। अभिवादन कर, नम्रतापूर्वक धन्यवाद देकर मैं धीमे से कुर्सी पर बैठ गई। छ: लोग थे कागज पत्तर खोले बैठे थे..."
"पता है आगे की बात बताओ।"
"आपने बताया था, कि अपनी लाइन पर ले आओ तो सब ठीक हो जाता है। मैं उन्हें अपनी लाइन पर ले आई।"
"अच्छा! कैसे?"
"आपने कहा था पति का नाम पूछते हैं। मैं तो क्वाँरी हूँ, सचा पहले से पति का नाम बता दूँ तो झंझट कटे। पर बताने लगी तो मेरे पति का नाम बोलते-बोलते घबराहट में सोचा हुआ नाम ही ध्यान से उतर गया। हड़बड़ाहट में थोड़ी
देर पहले सुना हुआ कोफी अन्नान याद आया वही मुँह से निकल गया। आपने थोड़ी देर पहले बताया था न।"
विस्मय में मेरे मुँह से निकला, "कोफी अन्नान?"
"हाँ कोफी अन्नान! सोचा था अच्छा सा कोई बताऊँगी, पर मेरे साथ हमेशा यही होता है। एक तो पति का दूर-दूर तक पता नहीं फिर सोचा हुआ नाम दिमाग से गायब। लेकिन क्या फरक पड़ता है कोई नाम बता दो, आप ही ने तो कहा था।"
"कोफी अन्नान!" फिर मेरे मुँह से निकला, मेरा तो दिमाग चकरा रहा था।
"पहले ही नाम बता दिया तो वे प्रभावित हो गये। सब मेरी ओर देखने लगे।"
"अच्छा! फिर क्या कहा उन्होंने?"
"उन्होंने भी ऐसे ही दोहराया, जैसे आप दोहरा रही हैं। आपस मे किसी से यू.एन. यूनो कह रहे थे। उसने सुन नहीं पाया होगा तो यू नो कह कर बता रहे होंगे। मैंने सिर हिला कर हाँ कह दिया और चुपचाप सिर झुकाये बैठी रही। कुछ देर तो वे लोग बिल्कुल चुप रहे जैसे साँप सूँघ गया हो।" ....फिर एक ने पूछा, "तो आप अकेली यहाँ रहती हैं?"
"क्या करूँ रहना पड़ रहा है।"
"वे तो आते होंगे?"
"दुनिया भर से छुट्टी मिले तब न मेरा ध्यान आये।"
"शादी कैसे हो गई आपकी?"
"कुछ मत पूछिये, सर! कुछ नहीं बता पाऊँगी। मैं तो वैसे ही बहुत परेशान हूँ।"
"तो आप नौकरी करेंगी?"
"करनी पड़ेगी और कोई रास्ता नहीं।"
"लोगों को पता है कि आप उनकी...."
"मैं किसी से कुछ नहीं कहती। बताती भी नहीं, झूठ बोलने की आदत नहीं पर आपसे मजबूरी में कहना पड़ा।"
"बड़ा भारी रिस्क लिया आपने।"
"हाँ, बड़ा रिस्क है पर अब क्या करूँ! मेरी कुछ समझ मे नहीं आ रहा.."
दूसरेवाले ने पूछा, "लेकिन ये हुआ कैसे?"
"कैसे हुआ, क्यों हुआ, मैं कुछ नहीं बता पाऊँगी, सर! आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकती। आप चाहे नौकरी मत दीजिये पर कुछ पूछिये मत..." मैं तो रोने-रोने को हो आई।
"नहीं आप परेशान मत होइये, दुखी मत होइये, हो जाता है ऐसा...!"
"सच्ची, उनकी सहानुभूति पाकर मेरी आँखों में आँसू भर आये। बडे सहृदय थे वे लोग! एक ने अपना पानी का गिलास आगे बढ़ा दिया, बोला नहीं, नहीं रोइये मत, लीजिये पानी पी लीजिये। दूसरे ने जेब से रूमाल निकाला पर सबके सामने देने की हिम्मत नहीं पड़ी होगी"
उस ने कहा, "आप चिन्ता मत कीजिये, हम सब सम्हाल लेंगे।"
मोटेवाले ने पूछा, "बच्चे भी हैं?"
"पति के बिना बच्चे कैसे... एकदम मेरे मुँह से निकला।"
साइडवाले ने कहा, "जब वे रहते ही नहीं..."
"बस नाम है पति का मैं तो अकेली हूँ।"
"सच है, सच है... चिट्ठी-पत्री तो आती होगी?"
"उससे क्या होता, कभी-कभार आ जाये तो!"
कोनेवाले से रहा नहीं गया उसने पूछा, "आप लोगों की मुलाकात कहाँ हुई?"
"वह सब मैं नहीं बता पाऊँगी। मुझे तो इतना कहना भी भारी पड़ रहा है। क्या करूँ लाचारी में कह बैठी। मैंने बह आये आँसू पोंछ लिये।"
"होता है, ऐसा भी होता है, उधरवाले ने ढाढस ब्ाँधाया, किसी के साथ भी हो सकता है।"
"हाँ सर, मेरी ही गल्ती है...ऐसा कह बैठी कि आगे बढ़ा नहीं सकती। पर मुँह से निकल गया, अब कुछ नहीं हो सकता। आप को गलत लग रहा हो तो मैं चली जाती हूँ सर।"
"मैं उठ कर खड़ी होने लगी उनके प्रश्नों के उत्तर देना कठिन हो रहा था, भाग आना चाहती थी। पर उनने राएक लिया। कहने लगे, अब उस बारे में कुछ नहीं पूछेंगे, बैठिये आप। बस इतना बता दीजिये कि आप कभी उनके साथ गईं हैं?"
"उनके साथ? नहीं, कभी नहीं। उनका कोई ठिकाना नहीं। मुझे यहीं रहना है अपने देश में।"
"उन्होंने प्रशंसा भरी दृष्टि से देखा, इसे कहते हैं अपनी धरती से लगाव। जाइये, जाइये निश्चिंत रहिये, सब ठीक हो जायगा। हम लोग हैं न।"
"और मैं थन्यवाद देकर चली आई।"
और वह लेक्चरर के पद के लिये चुन ली गई। उसे लगता है मेरी सलाह मानने से ही वह सेलेक्ट हुई है। कोफी अन्नान तो दूर रह गये वह मेरे पल्ले बँध गई है। मन-ही-मन झल्लाती हूँ और किसी तरह निभाये जा रही हूँ। पता नहीं कब तक झेलना पड़ेगा।