राग-विराग – 001
डॉ. प्रतिभा सक्सेनातमसाकार रात्रि। घनघोर मेघों से घिरा आकाश, दिशाएँ धूसर, रह-रह कर मेघों की गड़गड़ाहट और गर्जना के साथ, बिजलियों की चमकार। वर्षा की झड़ियाँ बार-बार छूटी पड़ रही हैं। जल-सिक्त तीव्र हवाएँ लौट-लौटकर कुटिया का द्वार भड़भड़ा देती हैं।
अचानक बिजली चमकी और घोर गर्जना के साथ निकट ही कहीं वज्रपात हुआ। कुटिया में अकेले चुपचाप बैठे तुलसी सिहर गए।
मन बहुत अकुला रहा है?
वह भी तो ऐसी ही घनघोर रात्रि थी जब सारी बाधाएँ पार कर, रत्ना की खिड़की से जा चढ़े थे।
उस दिन तो न बाढ़ भरी नदी से डरे थे, न लटकते सर्प का विचार किया।
कैसा मोह का पट चढ़ा था आँखों पर।
मोह का पट?
मोह था केवल? आसक्ति मात्र थी?
मैंने तो उसी में सारा संसार सीमित कर दिया था। मैं, जो जन्म से ही त्यक्त रहा – सबके संकट का कारण, अभुक्त मूल में जन्मा अभागा . . .। पिता ने त्यागा, जननी भी सिधार गयीं। जिसे यत्नपूर्वक सौंप गईं थीं, थोड़ा भान पाते ही वह चुनिया दाई भी अनाथ छोड़ राम को प्यारी हो गई। रह गया मैं, सर्वनाशी मैं ।जो-जो मुझसे . . . मुझसे जुड़ा, काल का ग्रास बनता गया . . . मैं ही सबके संकट का कारण था। एक रत्ना थी, जिसने मुझे स्वीकार किया था, जीवन का साथ निभाने को आश्वस्त किया था। और मैं जीवन के सारे अभाव उसी से भरने का यत्न करने लगा।
बस वही थी जिसे अपना कह सकूँ। मात्र कहने की बात नहीं, संपूर्ण मन से चाहा था उसे। मेरी हर अपेक्षा पर खरी थी वह। रूप के साथ गुण और उच्च विचारों का संयोग वह बुद्धि-संपन्ना सचेत नारी थी। संस्कारी और आचारवान तो होना ही था - दीनबंधु पाठक की पुत्री जो थी। स्वयं को परम भाग्यशाली समझा था मैंने। मेरी सहचरी, प्रिय पत्नी, जिसमें मैंने अपना संसार पा लिया था। सारे नाते -रिश्तों की पूरक बन गई थी।
स्वयं को बहुत धिक्कारते हैं तुलसी। क्यों अचानक जा पहुँचे थे रत्ना के पीहर। न सोचा न विचारा, जो मन में उठा कर डाला . . .।
कैसी कुबेला घर में जा घुसे। अनामंत्रित जामाता का विचित्र वेष, घर के लोग विस्मित- से देखते रह गये थे, और रत्ना विमूढ़ सी खड़ी की खड़ी रह गई थी।
किसी भाँति स्पष्ट किया तुलसी ने कि कैसी-कैसी बाधाएँ पार करने में यह गत हो गई। वह तो ग़नीमत हुई कि खिड़की से बँधी रस्सी का सहारा मिल गया।
खिड़की से बँधी रस्सी – चकित हो गए थे वे लोग।
मेरा विचार था– रत्ना ने लटकाई होगी।
ना, मैंने तो नहीं . . .
खिड़की खोल देखा गया, कहीं कोई रस्सी नहीं।
अरे, खिड़की के इधरवाले मोखे की टेक पर एक मरा सर्प लटका है।
'ओह' तुलसी ने दोनो हाथों हथेलियाँ खोलीं – रक्त के चिह्न!
सब विस्मित, अवाक्।
एक भयभीत सी चुप्पी – कहीं कुछ हो जाता तो . . .?
कोई बोला था– और चाहे जो हो, रत्ना की कुण्डली में वैधव्य-योग नहीं है।
दृष्टियाँ रत्ना की ओर घूम गईं – एकदम स्तब्ध थी, मुख विवर्ण!
न रत्ना के मुख से कोई शब्द फूटा, न तुलसी कुछ बोल सके।
(क्रमशः)