क़लम

प्रज्ञा पाण्डेय (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

क़लम उठती है तो लाती है विचारों की क्रांतियाँ
क़लम उठती है तो मिटाती है कुप्रथा और भ्रांतियाँ, 
सोती हुई मानव चेतना को जगाती है
धर्म पथ पर बढ़ने का संदेश बताती है। 
 
क़लम चलती है तो लिखती है भूत, भविष्य-वर्तमान
क़लम चलती है तो लिखती है देश का मान-सम्मान, 
विकास कभी, ग़ुलामी, कभी शौर्य गाथा लिखती है
राजनीति कभी, रणनीति, कभी हिंद का ऊँचा माथा लिखती है। 
 
क़लम बोलती है तो साँसें थम जाती हैं भ्रष्टाचारियों की
क़लम बोलती है तो धड़कनें बढ़ जातीं अत्याचारियों की, 
असत्य को निंदित कर, सत्य की महिमा गाती है
भेदभाव को लान्छित कर, मानवता का संदेश गाती है। 
 
क़लम जब रोती है तो जग का क्रंदन दिखाती है
क़लम जब रोती है तो निकृष्ट विचारों का परिबंधन दिखाती है, 
शोषितों की लाचारगी की आँसू बन बरस उठती है
अंतर्मन की पीड़ा की ज्वाला बन दहक उठती है। 
 
क़लम जब हँसती है तो प्रेम, राग, माधुर्य दर्शाती है
क़लम जब हँसती है तो भावनाओं का प्याला छ्लकाती है, 
जज़्बातों की गहराइयाँ, विचारों की ऊँचाइयाँ लिखती है
वर्ण-वर्ण में लिपटी प्रेम की सच्चाइयाँ लिखती है। 
 
क़लम रचती है तो सृजनकारी कवि उभरते हैं
क़लम रचती है तो तमसहारी रवि निकलते हैं, 
अचेतन में भी चेतना को ढूँढ़ती है
निर्जीव-सजीव सभी मे कल्पनाओं को गढ़ती है। 
 
क़लम रुकती है तो रुकता जगत विकास है
क़लम रुकती है तो रुकता मानवता का श्वास है, 
सभ्यता की शान, वीरता का मान धूमिल होता है
भूत क्या, भविष्य क्या, आज भी दुर्मिल होता है। 
 
पर, आज क़लम बँट रही, जाति, धर्म, भाषा में उलझ रही है
सत्ता-शासन से डर रही, देशद्रोह भी रच रही है, 
राजनीति में बँध रही, अमोल अब मोल में बिक रही है
क़लम क़लम से लड़ रही, आज क़लम बँट रही है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें