प्रताड़ना
भूपेंद्र सिंहइश्क़ में मेरा डूबना,
उस राँझे जैसा झूमना,
करके बर्बाद ख़ुद को,
शमियाना अपना भूलना।
रातों को यूँ जागना,
परेशानी निरंतर पालना,
आँखों में पैदा अश्कों से,
क़िस्मत को अपनी झाँकना।
वक़्त को बहते देखना,
दिमाग़ में बढ़ती वेदना,
मशीनों की इस रणभेरी पर,
मरीज़ बनके सब यूँ झेलना।
अग्निकुंड में आँखें झेंपना,
निष्ठुर समाज का रोटी सेंकना,
आँधियों की इन सिसकियों में,
पैदा पीड़ा को मेरा झेलना।