धुँध में क़यामत

01-01-2022

धुँध में क़यामत

भूपेंद्र सिंह (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

धुँध छाई क़यामत कुछ यूँ लाई, 
वक़्त की मार फिर वैसी नहीं लाई, 
अपमान की प्रकाष्ठा गर्त में ले गयी, 
चाँदनी रात फिर जैसे कभी नहीं आई। 
 
दीपमाला बुझी और बुझती ही गयी, 
उस रोज़ इज़्ज़त मेरी लुटती ही गयी, 
पाक होते हुए भी कलंक लगता गया, 
उगते सूर्य में अस्तित्व मिटता ही गया। 
 
तमाशे में केंद्रबिंदु मैं बनता चला गया, 
दुर्व्यवहार से कलेजा चीरता चला गया, 
बख़ूबी याद मुझे अश्कों में गिड़गिडाना, 
भूखा दंभ उनका बर्बाद मुझे कर गया। 
 
तालीम सिमटती गयी अज्ञानी आग़ोश में, 
बहुरूपिया वो रूह वहशी थी ग्लानि रोष में, 
खिलखिलकर मनाई ख़ुशियाँ उस रोज़ पर, 
गालियाँ थी परिचय उनकी बेहया जोश में। 
 
नहीं मालूम क्या पाया उन्हें मिटाकर मुझे, 
ज़िन्दगी भर की ख़ुशियों से हटाकर मुझे, 
हे वाहेगुरु तेरी ही रज़ा में क़ायम बन्दा, 
बख़्श दे ज़िन्दगी अरदास करता हूँ तुझे। 

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