पहचान
पल्लवी श्रीवास्तव
कुछ ढूँढ़ रही हूँ,
रोज़ गुज़रते दिन के साथ
एक आस बाँध रही हूँ
कि शायद जो उलझी लकीरों में छुपा है,
वो सुलझ सामने आए।
सब बदल रहा है,
जिसे बदलते देख, मैं उसे क़िस्मत कह रही हूँ।
कभी कर्म कह दिया
कभी उसका फल कह दिया
पर क्यों वो ढूँढ़ ही नहीं पा रही
जो हक़ीक़त है।
क्यों उलझी हैं मेरी लकीरें इतनी,
कि जो अब अपने साथ
मेरे जज़्बातों को भी उलझा रही हैं,
क्यों मेरे सपनों की बेड़ियाँ बन,
बस थाम रही हैं मेरे आगे बढ़ते क़दमों को।
क्यों इनसे निकलना मुश्किल है,
क्यों नहीं पहुँचने दे रही ये मुझे वहाँ
जो मुझे मुझसे मिलने दे,
अब तो ख़ुद को भी भूला जा रहा है
क्योंकि ना बंधन टूट रहे हैं . . .
ना पाँव में पड़ी बेड़ियों को तोड़—
आगे बढ़ पाने की हिम्मत जुट रही है।
अब सब छूट रहा है,
मैं छूट रही हूँ
मेरा किरदार छूट रहा है,
बस कभी ख़ुद को ढूँढ़ने की उम्मीद में
एक पहचान देखी थी अपनी,
पर आज सब छूट रहा है
मैं।
मेरा देखा ख़ूबसूरत कल
और मेरी नाम को बनाती मेरी पहचान,
सब ज़िम्मेदारी के तले छोड़
अपनी ख़्वाहिशें अपनी पहचान भूल रही हूँ।
सब छोड़ रही हूँ,
जो मन तो भाया वो हमेशा छूटा मुझसे,
मेरी क़लम छूट गई और छूट गई उससे मिली
मुझे मेरी अनमोल पहचान।