मुखौटा
डॉ. नरेश कुमार सिहाग
मुखौटे के पीछे छिपी कहानी,
सच की राहें, झूठ का पानी।
चेहरे बदलते, भाव भी बदलते,
भीतर की आग, बाहर से ठंडी।
आँखों में चमक, होंठों पर हँसी,
दिल में छिपी, गहरी उदासी।
मुखौटा कहता जो सबको अच्छा,
भीतर का सच, किसने समझा?
हर दिन नया रूप धरते,
दुनिया के रंग में रंगते।
मुखौटा पहन, सच को छिपाते,
ख़ुद से भी हम कब तक भागते?
सपनों की चाह में दौड़ते,
मुखौटे के संग सच को छोड़ते।
पर एक दिन, जब मुखौटा उतरेगा,
भीतर का इंसान ही उभरेगा।
‘बोहल’ मुखौटा तो बस है एक पर्दा,
सच्चाई को कब तक ढकेगा ये पर्दा?