मुझे नहीं लौटना
विनोद दूबे
मुझे नहीं लौटना
विनोद दूबे
मैं नहीं लौटना चाहता,
उन जगहों पर,
जहाँ से यादों का मज़बूत सिरा जुड़ा है,
बचपन के गाँव या क़स्बे,
अब ज़ेहन में रहते हैं,
एक चमकदार स्वप्न की तरह,
मैंने कर दिया है उम्र के साथ,
उन जगहों को,
कुछ स्मृतियों और कुछ विस्मृतियों के हवाले,
स्मृतियाँ टस से मस नहीं होतीं,
किन्तु विस्मृतियों की कच्ची मिट्टी लेकर,
मैंने गढ़ लिए हैं मनमाफ़िक गल्प,
अपनी उस गल्प की दुनिया,
बचा रखी हैं सारी यादें जस की तस,
मैं डरता हूँ कि अगर मैं फिर से लौटा,
कुछ भी पहले जैसा न होगा,
दरवाज़े पर तेंदू का पेड़ गिर गया होगा,
बारिश में भरा तालाब सूखा पड़ा होगा,
बाज़ार में नयी दुकानें खुल गई होंगी,
मेरे कमरे का दरवाज़ा रूखा होगा,
ओसार में पुरानी खटिया खड़ी नहीं होगी,
आँगन में टोर्च, मंजन और घड़ी नहीं होगी,
नहीं होगी पंचूरन और नाई की दुकान,
सन्तराम के समोसे और मिठाई की दुकान,
नहीं होगा डीह के ऊपर नीम का पुराना पेड़,
नहीं होगी धान के खेतों से नहर को जाती मेड़,
अपनी स्मृतियों के बुलबुले को,
नहीं तोड़ना यथार्थ के पत्थर से,
मैं अपनी यादों को नहीं बदलना चाहता,
इसलिए मैं उन जगहों पर ताउम्र फिर से,
नहीं लौटना चाहता॥