मैंने नवगीत लिखे
रमेश गुप्त नीरदअंधकार के तकिए पर सिर रखकर मैंने सपन बुने।
तपती साँस, दहकती पीड़ा से मैंने नवगीत लिखे॥
श्रम-सीकर से नहा नहा, जो तन का मैल छुड़ाते हैं।
फटे-पुराने वसनों में जो, ग्रीष्म-शीत सह जाते हैं।
सूखी-बासी रोटी खाकर, पानी पी रह जाते हैं।
धरती की गोदी में सिर रख, बालक-सा सो जाते हैं।
वंचित, शोषित इन पागल जन के मैंने गीत लिखे।
इस पागल ने हरदम देखो, पिछड़े जन के मीत रचे॥
लिए गोद में बालक पथ पर, हाथ पसारे जाती है।
आँखों में मन की पीड़ा, ना होंठों से कह पाती है।
वो याची, याचना लिए, कारों के द्वार थपाती है।
नहीं मिला कुछ तंग दिलों से, फिर भी आस लगाती है।
दुत्कारे जाने वालों की, मन के मैंने पीर लिखे।
आशाओं के रेतमहल, रचने वालों के गीत लिखे॥