माँ का शाप
डॉ. अमित रंजन
2600 वर्ष पूर्व, भारत
बनमाली ग्वाले की ज़रा सी आँख क्या लग गई, उसकी गायें न जाने कहाँ चली गईं। वह प्रति दिन की भाँति आज भी अपनी गायों को चराने के लिए जंगल लाया था। इसी बीच एक पेड़ के नीचे वह सो गया और जब उसकी नींद खुली तो उसकी गायें कहीं नहीं थीं। वह उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते घने जंगल की ओर बढ़ चला। बात गायों की न होती तो वह इधर कभी आता भी नहीं, किन्तु उसे अपनी हर गाय से अपने परिवार के सदस्य सा प्रेम था। सो वह उनकी तलाश में जंगल के उस हिस्से में चला आया जहाँ सूर्य देव की किरणें भी आने का साहस नहीं करती थीं।
काफ़ी अंदर आ जाने के बाद भी उसे अपनी गायें नहीं दिख रही थीं, किन्तु उनकी आवाज़ें सुनाई पड़ने लगी थीं। उन आवाज़ों को सुनकर बनमाली के क़दम और तेज़ हो गए और रास्ते में पड़ने वाली लताओं, गुल्मों, साँप-बिच्छुओं को हटाता वह अत्यंत तेज़ी से आवाज़ के स्रोत की ओर बढ़ रहा था। वहाँ उसने जो देखा, उसके होश फ़ाख़्ता हो गए और क्षण भर के लिए वह गश खाकर गिर पड़ा। बेहोशी में भी वह यही बुदबुदा रहा था—“यानी मिथक सत्य थे, यानी मिथक सत्य थे।”
होश आने पर उसने अपनी गायों को बटोरा और बड़ी तेज़ी से नगर की ओर लौट आया। कुछ ही क्षणों के भीतर वह नगर पुरोहित के सम्मुख खड़ा था और वहाँ उसने जो बताया, उसे सुनकर नगर पुरोहित ने उसके मुँह को सूँघा।
“नहीं, मदिरा या ऐसे किसी नशे के संकेत तो नहीं हैं,” नगर पुरोहित ने इनकार में सिर हिलाया।
तुरंत ही पास बैठे वैद्य क्षपणक ने यशोधन का मुआयना किया। “पागलपन के भी कोई चिह्न नहीं हैं श्रीमान,” उसने कहा।
अब तक चुपचाप खड़ा बनमाली अब इन सब कार्यकलापों से चिढ़ने लगा था। उसने तनिक आवेश में आकर कहा, “मेरी बात का विश्वास नहीं है तो चलकर स्वयं इसकी पड़ताल क्यों नहीं कर लेते हैं?”
“तुम्हारे कहने मात्र से हम जंगल के उस घने हिस्से की ओर प्रस्थान कर दें, जहाँ सूर्य की किरणें तक जाने से सहमती हैं?” वैद्य ने गंभीर आवाज़ में कहा, किन्तु जल्द ही बनमाली के बताए स्थान पर जाने का निर्णय ले लिया गया।
घड़ी भर के भीतर सैकड़ों मज़दूर अपने-अपने औज़ारों सहित नगर पुरोहित के प्रासाद के बाहर एकत्रित थे। साथ में कुछ सैनिक भी थे। वे सभी बनमाली के बताए स्थान पर जब पहुँचे तो सबकी आँखें फटी की फटी रह गईं। आज तक वे लोग जिस महान सूर्य मंदिर के विषय में सिर्फ़ सुनते आए थे, वह उनकी आँखों के सामने था, किन्तु उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा मिट्टी के भीतर दबा हुआ था। नगर पुरोहित ने कार्यारम्भ करने से पहले कई गणनाएँ कीं और जैसे ही वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यही वह मिथकीय सूर्य मंदिर है, जिसका वर्णन विविध पाषाण-लेखों एवं पूर्वजों द्वारा किया जाता रहा है, लोगों में उत्साह, रोमांच, एवं भय की लहर दौड़ पड़ी। राजा को सूचना दे दी गई थी।
नगर का हर व्यक्ति उस मिथकीय मंदिर के चप्पे-चप्पे के वर्णन से वाक़िफ़ था। वह वहाँ के हर नागरिक के मन-मस्तिष्क की स्मृतियों का हिस्सा था। तभी तो उसे देखते ही बनमाली ने भी उसे पहचान लिया था। इस मिथकीय सूर्य मंदिर के विषय में तमाम तरह की किंवदंतियाँ थीं, जिसे वे लोग अपने पूर्वजों से सुनते आए थे। कुछ का कहना था कि वहाँ अकूत संपदा दफ़न है, तो कई वहाँ विशाल विषधरों के होने की बात करते थे, किन्तु विद्वानों के बीच यह मंदिर जिस बात के लिए चर्चा और अभिरुचि का विषय था, वह थी एक पुस्तक की उपलब्धता का ज़िक्र।
नगर पुरोहित ने जैसे ही आदेश दिया, सैकड़ों की संख्या में मज़दूरों ने मंदिर के आस-पास खुदाई प्रारंभ कर दी। मंदिर का बहुत बड़ा हिस्सा मिट्टी के अंदर दबा हुआ था और जितना हिस्सा बाहर था, वह भी पीछे की ओर झुका हुआ प्रतीत हो रहा था। मंदिर का जो हिस्सा बाहर था, उसकी ऊँचाई भी 70-80 फ़ीट से कम न रही होगी। उस पर भी हरी-हरी काई जमी हुई थी एवं यत्र-तत्र विशाल वृक्ष उग आए थे।
दसियों दिन की मेहनत के बाद उनके सम्मुख सूर्य देव का ऐसा भव्य मंदिर था, जिसके बारे में वे सोच भी नहीं सकते थे। जो मंदिर उनकी स्मृतियों में बसा था, यह उससे भी कहीं ज़्यादा विशाल था। मंदिर में सचमुच सोने-हीरे का विशाल भंडार था, किन्तु विद्वानों की आँखें जिसकी तलाश में अत्यंत व्यग्र थीं, उसका अभी कहीं कोई अता-पता तक न चला था। मंदिर का चप्पा-चप्पा छान लिया गया था, पर उसका कहीं कोई पता न था। अब तो राजा भी वहाँ प्रतिदिन आने लगे थे। उनके आदेश पर विद्वानों का दल 2-3 मज़दूरों के साथ गर्भगृह में घुसा और उसकी सम्पूर्ण छानबीन की, किन्तु उस पुस्तक का कहीं कोई ठिकाना नहीं मिल रहा था। दो दिनों के अथक प्रयास के बाद सूर्य रथ के तले उन सबको उनकी वांछित वस्तु मिल ही गई। उस अनमोल रत्न को लेकर राजा अपने दल-बल सहित राजधानी लौट आए। यद्यपि उनकी रुचि पुस्तक में ही थी, किन्तु साथ में उन्होंने मंदिर में मिले अकूत संपदा को भी प्रजा की भलाई के लिए हस्तगत कर लिया।
अगले दिन उस पुस्तक को अत्यंत सावधानी से खोला गया, किन्तु उसके खुलते ही सबको गहरी निराशा हुई। वह जिस भाषा में लिखी हुई थी, वह सभी के समझ से बाहर थी। एक-एक करके नगर के सभी विद्वान आए और हारकर चले गए, किन्तु कोई भी उस पुस्तक को पढ़ न पाया। इसी बीच राजा के ही पुत्र ने परिश्रम से उस पुस्तक में लिखे संकेतों के अर्थ को बड़े परिश्रम से ढूँढ़ निकाला और उनके अर्थ को व्याख्यायित करने की घोषणा कर दी।
दरबार ठसाठस भरा हुआ था। सभा के बीचों-बीच राजा का पुत्र बैठा हुआ था। उस पुस्तक को लाया गया। राजपुत्र ने बड़े मनोयोग से एक-एक अक्षर जोड़ते हुए उसका वाचन प्रारम्भ किया। पुस्तक के आरम्भ में लेखक का नाम, वह युग जिसमें यह पुस्तक लिखी गई और उस युग विशेष की सामाजिक स्थिति का वर्णन मात्र था। उसे पढ़ने में राजा के पुत्र को घंटों लग गए, किन्तु धीरे-धीरे उसकी गति तेज़ होती चली गई। सामाजिक स्थिति से सांस्कृतिक स्थिति, दैनिक दिनचर्या से होते हुए राजपुत्र उस पुस्तक में लाल रंग से रँगे हुए पृष्ठों तक आ पहुँचा और उसका वाचन शुरू किया। राजपुत्र की गरदन पुस्तक पर झुकी हुई थी और वह अपने कार्य में किसी ध्यानस्थ योगी के मानिंद लगा हुआ था और उन लाल पृष्ठों में लिखी हुई बातों का वाचन कर रहा था।
वह योगी की भाँति अपने कार्य में तल्लीन था, इसलिए वह यह नहीं देख सका कि जैसे-जैसे वह पुस्तक के उस अंश का वाचन कर रहा था, राजा की भृकुटियाँ तनती जा रही थीं। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो चुका था। मुँह विकृत हो चला था और उससे सर्प काट लेने के बाद गिरने वाले गाज-सा गर्जन हो रहा था। राजा के नथुने फड़क रहे थे और सम्पूर्ण सभा मौन थी। इन सबसे बेख़बर राजपुत्र एक-एक अक्षरों को जोड़ता हुआ बड़े मनोयोग से उनके अर्थों को व्याख्यायित कर रहा था।
“मृत्युदंड!” राजा की भारी आवाज़ से दरबार गूँज उठा। “मृत्युदंड दिया जाता है इसे और साथ में इस पुस्तक को जलाने का आदेश भी।” राजा ने अपने पुत्र की ओर इशारा करते हुए कहा। अबकी राजपुत्र की तल्लीनता भंग हुई।
“पर पिताश्री, मैंने तो सिर्फ़ वही कहा जो इस पुस्तक में लिखा था। साथ ही इस पुस्तक को नष्ट कर देने से सम्पूर्ण मानवजाति इतिहास के ‘इस’ पहलू से अपरिचित रह जाएगी। आज तक हम उस घटना के विषय में सुनते आए थे और उसे मिथ्या बतलाकर अपना पिंड छुड़ाते रहे थे, किन्तु आज हमारे पास इस बात का पुख़्ता प्रमाण है कि ‘वह घटना’ वास्तविक थी,” राजपुत्र ने कहा, पर उसके कहे की परवाह न करते हुए कुछ सैनिक उसकी ओर झपटे। राजपुत्र को अपनी जान से ज़्यादा इस बात की परवाह थी कि दुनिया पुस्तक में लिखे इस सत्य से भी परिचित हो। राजा को भी इसी बात की परवाह थी कि दुनिया पुस्तक में लिखे इस सत्य से अपरिचित रहे।
राजपुत्र यद्यपि पुस्तक वाचन के लिए बैठा था, किन्तु वह राजा का पुत्र था। अतः पुस्तक वाचन के क्रम में भी उसने अपने साथ कुछ हथियार रखे थे। वह सैनिकों पर काल बनकर टूट पड़ा और किसी तरह दरबार से बाहर आ जाने में कामयाब हो गया। उसके साथ वह पुस्तक भी थी। सैनिक न सिर्फ़ अब भी उसके पीछे थे, बल्कि अब उनकी संख्या में भारी वृद्धि भी हो गई थी। राजपुत्र घोड़े पर सवार होकर भाग रहा था एवं सैनिक उसका पीछा कर रहे थे। राजा द्वारा उसे मार दिए जाने का फ़रमान जारी हो चुका था। अतः सैनिक उसके ऊपर अंधाधुंध तीर बरसा रहे थे। राजपुत्र बड़ी चतुराई से उन तीरों को काटता हुआ स्वयं को बचाता हुआ भाग रहा था।
भागते-भागते वह पहाड़ी के उन घने जंगलों में प्रवेश कर रहा था, जिसके विषय में यह मान्यता थी कि वहाँ यक्ष और विचित्र प्रजाति के मनुष्य रहते हैं। सैनिक उस वन में प्रवेश करने से पहले तो हिचकिचाए, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपने अश्वों एवं अपने बाणों की गति तेज़ कर दी। कारण कि उनमें से कोई भी उस अघोषित निषिद्ध इलाक़े में ज़्यादा अंदर नहीं जाना चाहता था। बाण-वर्षा की तीव्रता का परिणाम यह हुआ कि कुछ बाण राजपुत्र की पीठ में धँस गए, किन्तु वह रुका नहीं। उसने भी अपने अश्व की गति तेज़ कर दी थी, क्योंकि वह भी जानता था कि एक बार वह इन घने जंगलों में चला गया तो सैनिक शायद ही उसके पीछे आने का साहस कर सकें।
राजपुत्र की पीठ बाणों से भर गई थी। अब वह अश्व की पीठ पर आगे की ओर झुक गया था, किन्तु चेतना अब भी बनी हुई थी। जंगल के गहन से गहनतम होते जाने के कारण अश्व की गति भी मंद पड़ गई थी, किन्तु यह चिंता का विषय नहीं था। उसने सैनिकों से पीछा छुड़ाने में कामयाबी हासिल कर ली थी।
राजपुत्र का अश्व धीमी गति से चल रहा था, किन्तु सामने उसने ऐसा कुछ देखा कि वह अचानक से ठिठक गया। सामने एक अत्यंत काले रंग का नन्हा बालक खड़ा था, जिसकी तुंद निकली हुई थी। बालक की उम्र यही कोई आठ-नौ वर्ष की रही होगी। शीघ्र ही उसके पीछे से कई वनवासी तीर-भालों के साथ प्रकट हो गए। उन्होंने अपने सिर पर किसी चिड़िया के पंख लगा रखे थे। उनकी आँखों के नीचे सफ़ेदी-सी पुती हुई थी। कमर के चारों ओर घुँघरू-सदृश छोटे-छोटे पत्थर बँधे हुए थे। राजपुत्र ने अपने सीने से लगा रखी उस पुस्तक को उनकी ओर बढ़ा दिया और अस्पष्ट स्वर में कुछ बुदबुदाया, जिसे दल द्वारा अनसुना कर दिया गया। वे उसे अपने अनुभवी और दल के मुखिया के पास ले गए।
आदिवासियों की मुखिया एक वयोवृद्ध महिला थी, जिसकी कमर झुकी हुई थी और वह एक विचित्र-से डंडे के सहारे चल रही थी। राजपुत्र अब लगभग अचेत हो चुका था, किन्तु अपनी अर्ध-अचेतन अवस्था में भी वह कुछ बुदबुदाता जा रहा था, जिसे सुनकर वृद्ध महिला की आँखें विस्मय से फैल गईं और तब उसका ध्यान राजपुत्र के सीने से चिपके हुए पुस्तक की ओर गया, जिसे वह बार-बार देने की चेष्टा कर रहा था।
वृद्ध महिला ने उस पुस्तक को खोला और पाया कि उसमें उसी चित्रात्मक लिपि में कुछ लिखा हुआ है, जिसका प्रयोग उसके पुरखे हज़ारों साल से कर रहे थे।
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5 अक्टूबर 1556 ईसवी, हेमू का दरबार
हेमू के दरबार में गुप्त मंत्रणा चल रही थी। ऐसी सूचना मिली थी कि ‘दिल्ली के युद्ध’ में दिल्ली और आगरा गँवा देने के बाद स्वयं अकबर और उसके रखवाले बैरम ख़ान के नेतृत्व में मुग़ल सेना इन दोनों स्थानों पर पुनः अधिकार पाने के लिए कूच कर चुकी थी। गुप्त मंत्रणा में सभी अपना-अपना मत दे रहे थे, किन्तु प्रधान सलाहकार की चिंता कुछ और ही थी। वह रह-रहकर अपनी आशंका प्रकट करना चाह रहा था, किन्तु ऐन वक़्त पर उसकी हिम्मत जवाब दे जा रही थी। आख़िर में सलाह देने की बारी उसकी भी आई और तब उसने गला खँखारते हुए कहना शुरू किया—
“विदेशी आक्रान्ता हमसे हमेशा ही युद्ध जीतते रहे हैं। ऐसा नहीं था कि वे रणकौशल में हम भारतीयों से अच्छे थे या कि उनकी सेना ही बड़ी थी, फिर भी विजय-श्री उनका ही वरण करती रही थी। जब ऐसा लगने लगा कि विजय लक्ष्मी भारतीय राजाओं का वरण करने के लिए बढ़ रही हैं और दुश्मन के पाँव उखड़ने को ही होते, कि कोई न कोई ऐसा दुर्योग हो उठता, जिससे कि भारतीय राजा जीतते-जीतते भी हार जाते थे।
रणभूमि में पोरस ने सिकंदर को छठी का दूध याद दिला दिया था। विश्वविजेता का ढोंग करने वाले उस शासक को अंतिम रूप से ध्वस्त कर देने के लिए पोरस स्वयं युद्धभूमि में अपनी विजयिनी गज सेना के साथ उतरा, किन्तु दैव दुर्योग से उस दिन ऐसी मूसलाधार वर्षा हुई, मानो लग रहा था कि इंद्र कुपित हो गए हों और उन्होंने वर्षा की बूँदों के रूप में अपना वज्र ही पृथ्वी पर दे मारा हो। परिणाम यह रहा कि पोरस की सबसे बड़ी गज सेना न सिर्फ़ उस युद्ध में बुरी तरह विफल रही, बल्कि आसमान में चमक रही बिजलियों ने मातंगों को इस क़द्र भयभीत कर दिया कि उनका प्रत्यावर्तन अपनी ही सेना की ओर हुआ और परिणाम पोरस की हार के रूप में आया।
पोरस के पूर्व से ही शुरू हुआ यह सिलसिला मध्यकाल के 712 ईसवी से होता हुआ, जब 17 साल के एक छौने ने सिंध के राजा को बुरी तरह रौंद दिया था, आज भी न सिर्फ़ चल रहा है, बल्कि उसे गति ही मिली है। मध्य एशिया में समानता पर आधारित एक नए धर्म का उदय हुआ और इसने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए शौर्य को अपना माध्यम बनाया। इसके वीर अनुयायियों ने एक के बाद एक भारत के राजाओं को पराजित कर दिया। 10-11वीं शताब्दी में भी एक ऐसा ही भयंकर संकट ग़ज़नी के महमूद के रूप में भारत पर छाया हुआ था।
महमूद एक ग़ुलाम का पुत्र था, जिसके बचपन के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है और यह अपने बड़े भाई को मारकर राजा बना था। इसने 28 नवम्बर 1001 को भारत पर पहला आक्रमण किया और पेशावर के युद्ध में राजा जयपाल को बुरी तरह पराजित किया। इस विजय के बाद तो भारत पर आक्रमण का एक सिलसिला ही चल निकला और उसने एक के बाद एक 17 बार आक्रमण कर लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत को रौंद कर रख दिया। जयपाल के पुत्र आनंदपाल ने तो राजाओं का एक संघ ही बना लिया, जिसमें उस समय के सभी बड़े राजा थे, किन्तु यह संयुक्त संघ भी महमूद का बाल बाँका न कर सका। 1008 ईसवी को हुए युद्ध में एक बार तो इसकी सेना के पाँव उखड़े, किन्तु इतिहास ने फिर से ख़ुद को दुहराया और आनंदपाल की गजवाहिनी मतवाली हो गई और महमूद हारते-हारते अंत में जीत गया।
इस विजय के बाद महमूद को रोकने वाला कोई नहीं था और इसने भारत में ख़ून की नदियाँ बहा दीं और जिहाद का नारा दिया। 1025 ईसवी में इसने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया और जब वहाँ का राजा भाग खड़ा हुआ, तो शिव भक्तों ने ही मंदिर की रक्षा का बीड़ा उठा लिया। किंवदंती है कि सोमनाथ की रक्षा करते हुए लगभग 50 हज़ार आम नागरिक शहीद हुए थे।”
प्रधान सलाहकार ने आगे बोलने के लिए अपना गला खँखारना चाहा, किन्तु बीच में ही हेमू ने उसे टोक दिया, “आप कहना क्या चाहते हैं श्रीमान? मुद्दे पर आएँ।” कुछ-कुछ मदिरा और बहुत कुछ अपनी विजय और विक्रमादित्य की उपाधि के नशे में चूर होकर लड़खड़ाती ज़बान से हेमू ने कहा।
“महाराज, मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि हज़ारों वर्षों से हम निर्णायक युद्ध में जीतते-जीतते हार जाते रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई अदृश्य शक्ति हमारे और हमारी जीत के बीच में आकर खड़ी हो जाती है। क्यों न हम इसके कारणों की पड़ताल कर समस्या का समाधान करें और तब आगामी युद्ध के लिए प्रशस्त हों।”
सुनकर हेमू ने मुँह बिचकाया। अभी कुछ ही दिनों पूर्व उसने मुग़लों को दिल्ली के युद्ध में हराया था। इसी उपलक्ष्य में उसने पुरानी दिल्ली के उसी लौह स्तम्भ के पास विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी, जिसके विषय में यह कहा जाता था कि इसकी स्थापना राजा विक्रमादित्य ने करवाई थी और जो शेषनाग के फन पर जाकर टिकी है। प्रधान सलाहकार के सुझाव में उसे विशेष दिलचस्पी नहीं थी, फिर भी तनिक व्यंग्य के पुट में उसने कहा, “और इसके कारणों का पता हमें भला कैसे चलेगा?”
युद्ध में निर्णायक मौक़ों पर हार जाने के कारण की भनक भारत के सभी राजवंशों को कमोबेश थी, किन्तु कोई भी न तो सही तथ्य जानता था, न ही उसे जानना चाहता था। इसके कारणों की सही जानकारी विन्ध्याचल पर्वत के जंगलों में रहने वाले उन आदिवासी समूहों को थी, जो तंत्र-मंत्र आदि का अभ्यास करते थे और सदियों से ही राजाओं, विशेषकर क्षत्रिय राजाओं को अपना दुश्मन मानते थे। कहते हैं, उनके पास एक किताब थी, जिसमें इस रहस्य का विवरण था और वर्तमान में यह किताब उस समुदाय की सबसे बड़ी तांत्रिक के पास थी।
वैसे भी, राजा का किसी क़बीलायी वनवासी के पास अपनी समस्या के समाधान के लिए जाना, यह न सिर्फ़ उनकी शान के ख़िलाफ़ था, बल्कि इसे हेय दृष्टि से भी देखा जाता था। अतः, आज तक कोई भी उन वनवासियों के पास सही कारण जानने के लिए नहीं गया था।
प्रधान सलाहकार को मौन देखकर राजा हेमू ने एक बार फिर से पूछा, “और कारणों का सही पता हमें कैसे चलेगा?”
“हुह, अधम व्यक्ति चाहे कहीं क्यों न पहुँच जाए, अपना स्वभाव नहीं छोड़ता,” प्रधान सलाहकार के उत्तर को सुनकर दरबारियों ने खुसुर-फुसुर करते हुए आपस में कहा।
राजा हेमू ने भी उसकी सलाह को अनसुना कर दिया। वैसे भी, उसके गुप्तचर कुनाल ने यह जानकारी दी थी कि बैरम की सेना में 10,000 सिपाही और सिर्फ़ 200 हाथी हैं, जबकि हेमू की 30,000 सिपाहियों की सेना और 500 हाथी उनका स्वागत करने के लिए हर पल तत्पर थे। सैनिकों की संख्या का अधिक होना और हाल में ही अपने उसी शत्रु पर विजय का पाना, फिर भला हेमू क्यों अपने सलाहकार की बात सुनता।
परन्तु प्रधान महिषी को जैसे ही सलाहकार की बात का पता चला, उन्होंने हेमू को उसकी बात मान लेने को कहा। हेमू अपनी रानी से बहुत प्यार करता था, सो उसने उसकी बात मान ली। विन्ध्याचल पर्वत की ओर घुड़सवार दौड़ा दिए गए और कुछ ही दिनों के भीतर वहाँ के प्रधान क़बीले की सरदारनी सह तांत्रिक दिल्ली में थी।
अगले दिन दरबार खचाखच भरा हुआ था। उस बुढ़िया तांत्रिक को दरबार में बुलाया गया था। वह आई। लोगों ने देखा, वह एक झुकी हुई कमर वाली सामान्य-सी ही बुढ़िया थी, जिसके चेहरे पर वृद्धावस्था की झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। आँखें ज़रूर सामान्य से अलग एकदम सफ़ेद थीं, जो संभवतः मोतियाबिंद की बीमारी के ही कारण था। वह एक डंडे के सहारे चल रही थी, जो साँप की आकृति जैसी थी।
उस बुढ़िया तांत्रिक को देखकर दरबार में उपस्थित आमजन को घोर आश्चर्य हुआ। आज तक वे लोग विन्ध्याचल पर्वत के इन वनवासियों के विषय में क्या-क्या सुनते-पढ़ते आए थे। उन्होंने सुन रखा था कि उनके बहुत बड़े-बड़े सूप के आकार के नाखून होते हैं, जिससे वे आम इंसानों को चीर-फाड़ देते हैं। उनके बड़े-बड़े नुकीले दाँत होते हैं, जो मुँह से बाहर निकले होते हैं। पाँव मोटे और घने बालों से भरे हुए, वृहदाकार कान, विशाल लटें, जिसमें वे विष बुझा तीर रखते थे आदि वे वर्णन थे, जिसे सामान्य जनमानस ने पढ़ा-सुना था। किन्तु यह बुढ़िया तो एकदम सामान्य थी, बिलकुल उनके जैसी।
तांत्रिक दरबार के बीचों-बीच आई। राजा ने तनिक हिक़ारत भरी नज़रों से उसकी ओर देखा, फिर अपने प्रधान सलाहकार की ओर देखा और अपनी भृकुटियों से हल्का-सा इशारा किया। राजा का इशारा पाकर प्रधान सलाहकार ने तांत्रिक से पूछा, “आख़िर हमारे पुरखे हज़ारों सालों से निर्णायक युद्ध में कैसे हार जाते रहे हैं? दैव क्यों सदा उनके प्रतिकूल रहा?”
प्रधान सलाहकार के इस सवाल को सुनकर तांत्रिक बड़े ज़ोर से हँसी। इस उम्र में भी उसकी हँसी में इतनी शक्ति और खनक थी कि राजदरबार गूँज उठा। हँसते-हँसते ही वह फूट-फूटकर रोने लगी। रुलाई की आवाज़ हिचकियों में तब्दील हो धीरे-धीरे शान्त हुई, किन्तु यह शान्ति क्षणिक ही थी। शान्ति का स्थान शीघ्र ही गुर्राहटों ने ले लिया, जो उस बुढ़िया के मुख से फूट रही थीं। इन सबसे तटस्थ प्रधान सलाहकार ने एक बार पुनः अभ्यर्थना भरे शब्दों में उस तांत्रिक से पूछा, “दैव सदा से हमसे प्रतिकूल क्यों रहा माते?”
उसके इस विनीत व्यवहार ने बुढ़िया तांत्रिक पर अच्छा असर डाला और उसने कहा, “शाप।
“आदिमाता का शाप, वन माता का शाप।”
उसका यह कथन सम्पूर्ण सभा में गूँज गया, जिसे सुनकर सभा में उपस्थित सभी गणमान्यों को मानो लकवा-सा मार गया था। ऐसा लगा मानो किसी ने उनके कानों में पिघला हुआ लावा डाल दिया हो। उन्हें अपनी रीढ़ की हड्डियों में पारा दौड़ता-सा महसूस होने लगा। सभागार में सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो सबको साँप सूँघ गया हो। अब भी उनके कानों में वही वाक्य गूँज रहा था—“आदिमाता का शाप।”
“कोई प्रमाण देवी?” प्रधान सलाहकार ने अत्यंत विनीत भाव से पूछा, जिसके प्रत्युत्तर में तांत्रिक ने अपने सीने से लिपटी एक लाल रंग की किताब निकाली और उसे सलाहकार की ओर बढ़ा दिया।
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त्रेता युग, विन्ध्याचल पर्वत के पास शैवल पर्वत
अचानक से आसमान से पुष्प वर्षा होने लगी। इंद्र देव ने मौसम सुहावना कर दिया। मंद-मंद शीतल पवन प्रवाहित होने लगा, जिसने आसमान से गिरे हुए अलौकिक, सुगन्धित पुष्पों की सुगंध को चारों दिशाओं में फैला दिया। आसमान में देवताओं की आवाज़ भी गूँज रही थी। जब यह सब कुछ उस बुढ़िया ने देखा, तो उसका चेहरा ख़ुशी के मारे खिल उठा।
“आज मेरे पुत्र की साधना सफल रही,” उसने अत्यंत धीमे किन्तु उल्लसित शब्दों में कहा। उसके वस्त्र अत्यंत मलिन थे, पाँवों में चरण पादुका नहीं थी। वर्षों से लोगों के ताने सुन-सुनकर उसका चेहरा अत्यंत बुझ-सा गया था। अत्यंत जर्जर हो चुकी उस बुढ़िया की उम्र का अंदाज़ा लगाना अत्यंत कठिन था। उसकी केश राशि पूरी तरह धवल रंग की हो चुकी थी, अधिकांश दाँत टूट गए थे। जो बचे हुए थे, वे भी कुछ-कुछ बाहर को निकले हुए थे। उसकी कमर झुकी हुई थी और वह एक डंडे के सहारे ही मुश्किल से चल पाती थी।
किन्तु आज जब उसने आसमन से पुष्पों की वर्षा देखी, तो न जाने उसमें कहाँ से इतनी ताक़त आ गई और वह उस स्थान की ओर दौड़ पड़ी। गंतव्य तक जाने से पहले उसने अपने आँचल में बेर, कंद-मूल, फल-फूल आदि बाँध लिए थे और पीने के पानी को उसने एक मसक में ले लिया था और अपनी लाठी के सहारे बड़ी तेज़ी से शैवल पर्वत के विशाल सरोवर की ओर चल पड़ी। पैरों में पादुका न होने के कारण उसके पाँव बुरी तरह लहूलुहान हो उठे। जंगल के काँटों और झरबेरियों में फँसकर उसके मैले वस्त्र जगह-जगह से फट गए। साथ ही उसका शरीर भी कई जगह से कट-फट गया, जिससे रक्त की धारा निकल रही थी, पर इन सबकी परवाह किए बिना वह अत्यंत तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी।
आज उसके पुत्र का सपना पूरा हो चुका था। वर्षों पहले यूँ ही खेल-खेल में उसके पुत्र का द्विज पुत्रों द्वारा अपमान किया गया था। पुत्र की ग़लती इतनी भर थी कि देवलोक की चर्चा सुनकर उसने भी स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की थी और अपनी इस इच्छा को अपने द्विज मित्रों के सामने रख दिया था।
“शूद्र होकर स्वर्ग जाने की कामना करता है। तुझे वहाँ जाने का कोई अधिकार नहीं है, न ही तेरे लिए कोई उपाय है,” कहते हुए द्विज साथियों ने उस बालक को धक्का दे दिया था। नन्हा बालक रोता हुआ अपनी माता के पास आया और उनसे सारी बात कह-सुनाई। माता ने बालक के आँसू पोंछे और उसे अपने आँचल में छुपा लिया। उस समय बालक भले ही चुप हो गया, पर मित्रों द्वारा दिया गया धक्का उसके शरीर पर न लगकर दिल पर लगा था। वह उस दिन की बात को भूल न सका।
उस घटना को कई वर्ष बीत गए, पर उसकी छाप न मिटी और जब एक दिन उसने अपनी माता से तप की आज्ञा माँगी, तो उसकी बूढ़ी माँ सिहर उठी। कारण कि तब शूद्रों को तप का अधिकार न था। उसने अपने पुत्र को कई तरह से समझाने का प्रयास किया, किन्तु उसने अपनी माता की एक न सुनी। विवश हो माता ने पुत्र को तप करने की आज्ञा दे दी। यह घटना आज से कुछ वर्ष पूर्व की थी और लगता था कि आज पुत्र की तपस्या सफल हुई थी। देवताओं ने आसमान से पुष्पों की वर्षा की थी, आकाशवाणी हुई थी, ये सब इस बात के प्रमाण थे कि तपस्या सफल रही थी।
बूढ़ी माता बड़ी तेज़ी से सरोवर की ओर दौड़ रही थी। जब सरोवर क़रीब आ गया, तो उसने देखा कि देवताओं की भीड़ आसमान में एकत्रित है और कोई देवता-तुल्य तेज़ वाला राजा उड़ने वाले विचित्र विमान पर सवार होने को है। यह सब देख बुढ़िया की गति और तेज़ हो गई। उसने अपनी उखड़ती साँसों को नियंत्रित किया और तीर की भाँति सरोवर तक जा पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि एक धड़ ज़मीन पर पड़ा हुआ छटपटा रहा है और पुष्पक विमान पर सवार युवक के हाथ में रक्त से सनी हुई तलवार है। बुढ़िया को कुछ समझ में न आया और अवाक्, सुनी दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी। धड़ के पास ही उसे एक कटा हुआ सिर नज़र आया, जिसे देखकर वह पत्थर-सी बन गई। उसे कुछ समझ में ही नहीं आया। वह दौड़ी-दौड़ी पुष्पक विमान पर सवार तेजस्वी पुरुष के पास गई और अश्रुपूरित नेत्रों से उनके सम्मुख अपने हाथ जोड़ लिए।
“शूद्र होकर तेरा पुत्र तपस्या कर रहा था, जिससे एक ब्राह्मण पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई,” तेजस्वी पुरुष ने अत्यंत गंभीर वाणी में कहा। वह अब तक हतप्रभ, विस्मय से भरी जड़वत-सी चेतनाशून्य थी, किन्तु अब उसकी चेतना कुछ-कुछ लौट रही थी। वह कटे हुए सिर के पास गई और अपनी पोटली खोलकर उसे फल खिलाने का प्रयास करते हुए कहने लगी, “खा ले मेरे लाल, पुत्र इन्हें खा ले। तू इतने दिनों से कठिन तपस्या में लीन था, तब मैं प्रतिदिन तेरे लिए अत्युत्तम कंद-मूल तोड़कर रखती थी कि न जाने किस दिन मेरे पुत्र की तपस्या पूर्ण हो जाए और जब वह अपनी तपस्या से उठेगा, तो उसे भूख तो लगेगी न? तब मैं उसे इन फल-फूलों को अपने हाथों से खिलाऊँगी। ले देख, मैं तेरे लिए पानी भी लेकर आई हूँ।”
ऐसे ही नाना प्रकार की बातें करते हुए वह अपने पुत्र के कटे हुए सिर से ही वार्तालाप करने लगी। धीरे-धीरे उसका व्यवहार विक्षिप्तों-सा होने लगा। उसने अपने पुत्र के सिर को अपनी गोद में रख लिया और बारी-बारी से उसे खिलाने-पिलाने का प्रयास करने लगी, किन्तु धड़ से अलग हो चुका सिर भला क्या खाता? वह तो स्वयं मृत्यु का ग्रास बन चुका था।
बूढ़िया माता ने किसी तरह शक्ति संचय किया और धीरे-धीरे वह उठी तथा पुष्पक विमान पर सवार तेजस्वी पुरुष के सामने जाकर खड़ी हो गई। अब तक उसका सारा शरीर ग़ुस्से से काँप रहा था और ग़ुस्से से काँपती हुई वह पीपल के डोलते हुए पत्ते-सदृश प्रतीत हो रही थी। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गई थीं। तेजस्वी पुरुष के सम्मुख जाकर उसने सम्पूर्ण हिक़ारत से उसे देखा और कहा, “हे कीर्तिवान देव, स्वर्ण नगरी विजेता, अपार तेज और शक्ति की खान, तुझे अपनी वीरता का बड़ा नाज़ है और इसकी कीर्ति चारों दिशाओं में गाई जाती है, किन्तु आज तूने तपस्या में लीन मेरे निहत्थे, निर्दोष, अबोध पुत्र की हत्या कर दी। क्या यही तेरा न्याय है? यही तेरी वीरता है? जा, मैं तुझे शाप देती हूँ कि तेरे वंशज अपनी तमाम वीरताओं और पराक्रम से युक्त होने के बावजूद हर निर्णायक युद्ध हारेंगे। मैं प्रकृति-पुत्री तुझे शाप देती हूँ कि जैसा अधर्म तूने मेरे पुत्र के साथ किया, तेरे वंशजों को यही अधर्म बार-बार आकर डँसेगा। हर निर्णायक युद्ध में उन्हें दुर्योग का सामना करना पड़ेगा। यह एक माँ का शाप है, यह एक बेबस माँ का शाप है!”
दूसरी बार शाप देते-देते उसकी ज़बान लड़खड़ाने लगी और वह एक कटे पक्षी की भाँति गिर पड़ी। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए थे।
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1556 ईसवी, हेमू का दरबार
“कोई प्रमाण देवी?” प्रधान सलाहकार ने अत्यंत विनीत भाव से पूछा, जिसके प्रत्युत्तर में बुढ़िया तांत्रिक ने अपने सीने से लिपटी एक लाल रंग की किताब निकाली और उसे सलाहकार की ओर बढ़ा दिया था। पुरोहितों और विद्वानों ने उस किताब का क्षण भर में ही परीक्षण कर बता डाला कि यही वह मिथकीय किताब है, जो हज़ारों साल पहले सूर्य मंदिर से मिली थी और जिसके विषय में यह कहा जाता था कि इसे स्वयं माता सीता ने लिखा था। उन्हीं विद्वानों ने कुछ ही दिनों में उस किताब को पढ़ डाला और पाया कि उसमें राम राज्य के सजीव चित्रण के साथ-साथ ‘माँ के शाप’ का वर्णन भी है।
सारे राज्य में खलबली मची हुई थी। इतिहास के इस काले अध्याय एवं माता के शाप से राज्य का बच्चा-बच्चा वाक़िफ़ हो चुका था। हेमू ने यद्यपि भरपूर कोशिश की कि यह राज़ दबा रह जाए, किन्तु उसके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए। अतीत का यह काला सत्य दावानल की भाँति सम्पूर्ण राज्य में फैल गया था।
गुप्तचर कुनाल ने ख़बर लाकर दी कि मुग़लों की सेना अब दिल्ली के बेहद क़रीब आ चुकी है। सम्पूर्ण राज्य में युद्ध की दुन्दुभी पिटवा दी गई। प्रधान महिषी एवं राज्य के प्रमुख अधिकारी माता के शाप को लेकर चिंतित थे, जिसके तपस्यारत पुत्र की हत्या कर दी गई थी, किन्तु हेमू के चेहरे पर उसकी छाया तक न थी। जल्द ही वह दिन भी आ गया, जब मुग़ल सेना और हेमू की सेना मैदान में आमने-सामने थी। हेमू मुग़लों पर काल बनकर टूट पड़ा। एक तो संख्या बल में मुग़ल वैसे ही अत्यंत कम थे, ऊपर से हेमू का यह रौद्र रूप, उनके छक्के छूट गए और जब लगने लगा कि हेमू इस युद्ध को जीत जाएगा, तभी युद्धभूमि में कुछ ऐसा हुआ, जिसने सब कुछ बदलकर रख दिया। अपादमस्तक अभेद्य लौह से ढके हुए हेमू की आँख में मुग़लों का एक तीर सनसनाता हुआ लगा और वह वहीं युद्धभूमि में अपने हाथी से गिर पड़ा। हेमू की सेना में हाहाकार मच गया और वे भागने लगे। इसकी सूचना जल्द ही प्रधान महिषी को दी गई। लोगों को उम्मीद थी कि रानी राजा की अनुपस्थिति में सेना की कमान अपने हाथों में लेकर युद्धभूमि की ओर प्रयाण करेंगी, किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ।
घनघोर वर्षा हो रही थी। प्रधान महिषी ने इस ख़बर को सुना और निर्लिप्त भाव से क़िले के परकोटे पर खड़ी होकर शून्य में निहारती रहीं। उनका हृदय इस बात को कह रहा था कि वह कुछ भी कर लेंगी, तब भी ‘उससे’ नहीं जीता जा सकता है, ‘उसे’ नहीं हराया जा सकता है और उसके पति को मुग़लों ने नहीं, बल्कि जिसने हराया था, वह था एक ‘माँ का शाप।’