प्रेमचंद के कथा साहित्य में दलित चेतना

01-06-2025

प्रेमचंद के कथा साहित्य में दलित चेतना

डॉ. अमित रंजन (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हिंदी कथा साहित्य के सम्राट कहे जाने वाले मुंशी प्रेमचंद (1880–1936 ई.) ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने भारतीय समाज के हाशिए पर खड़े दलित, वंचित और शोषित वर्गों की पीड़ा को अपनी कथा की संवेदना के केंद्र में रखा। उन्होंने यथार्थवादी परंपरा की शुरूआत की और साहित्य को समाज का दर्पण के रूप में प्रतिष्ठित किया। दलित चेतना, जो आधुनिक संदर्भ में सामाजिक न्याय, समानता और आत्मसम्मान की आवाज़ है, प्रेमचंद के युग में भले संगठित साहित्यिक आंदोलन का रूप न ले पाई हो, परन्तु प्रेमचंद के साहित्य में उसका बीजारोपण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। 

प्रेमचंद का यथार्थ उनके अनुभवों और समाज की सूक्ष्म समझ से उपजा है। वे जाति व्यवस्था, आर्थिक विषमता और पाखंड के आलोचक थे। उनकी दृष्टि किसी एक जाति या वर्ग तक सीमित न रहकर सर्वहारा की पीड़ा को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखती है। यहीं से दलित चेतना के तत्त्व उभरते हैं। 

प्रेमचंद के लेखन का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं था अपितु वे सामाजिक क्रांति के साहित्यकार थे। 

प्रेमचंद के कई उपन्यासों और कहानियों में दलित पात्र सिर्फ़ सहानुभूति के पात्र नहीं बल्कि सक्रिय भूमिका में दिखाई देते हैं। उनके कथा-साहित्य में दलित पात्रों को केवल करुणा की दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के वाहक के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसी ही एक कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ है। यह कहानी दलित चेतना का सशक्त उदाहरण है। गंगी नामक दलित स्त्री अपने बीमार पति के लिए ठाकुर के कुएँ से पानी भरने जाती है, जो कि ‘ऊंची जात’ के लिए आरक्षित है। यह कहानी न केवल सामाजिक बहिष्कार की आलोचना करती है, बल्कि दलित स्त्री के विद्रोही स्वरूप को भी सामने लाती है—

“गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा—हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुक़द्दमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया।”

प्रेमचंद की सबसे चर्चित कहानियों में से एक ‘सद्गति’ है, जो सीधे तौर पर दलित जीवन और धार्मिक पाखंड पर आधारित है। दुखी चमार, जो अपनी बेटी की शादी के लिए पंडित से मुहूर्त पूछने जाता है, बिना किसी कारण के पंडित के द्वारा काम में जोत दिया जाता है और अंततः उसकी वहीं मृत्यु हो जाती है—

“भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया। 

पंडितजी ने पुकारा, “उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जायँ। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। ज़ोर से पुकारा, “अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी . . .”

यह कहानी न केवल सामाजिक अन्याय का चित्रण करती है, बल्कि उस व्यवस्था की अमानवीयता को भी उजागर करती है जिसमें एक दलित गाँठ फाड़ते हुए, बेगार करते हुए मर जाता है। 

प्रेमचंद विरचित दलित चेतना की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण किन्तु अत्यंत विवादित कहानियों में से एक कहानी है ‘कफ़न’ जिसमें घीसू, माधव और बुधिया नामक तीन प्रमुख दलित पात्र हैं। घीसू और माधव दलित समाज से हैं, जो अपनी बहू बुधिया के मरने पर कफ़न के नाम पर मिले पैसे से शराब पीते हैं—

“दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बाज़ार की दूकान पर गए, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गई। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अंदर चले गए।”

इस कहानी को लेकर कई विद्वानों ने आलोचना की कि यह दलितों को निकम्मा दिखाती है, लेकिन आलोचकों जैसे डॉ. नामवर सिंह और डॉ. रामविलास शर्मा ने इसे दलितों की विद्रोही चेतना के रूप में देखा। इस कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू तब उभर कर आता है जब घीसू माधव यह सवाल उठाते हैं कि समाज जीवित व्यक्ति की बुनियादी ज़रूरतें अनदेखा करता है, लेकिन उसकी मृत्यु पर दिखावे और रीति-रिवाज़ के नाम पर अपनी अंटी तुरंत ढीली कर देता है—

“कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।” 

उपर्युक्त के अतिरिक्त प्रेमचंद की और कई कहानियों में दलित चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। उनके उपन्यासों में भी दलित चेतना विविध रूप में विद्यमान है। इस कड़ी में जो पहला पहला नाम आता है वह है ‘रंगभूमि’। इस उपन्यास में सूरदास नामक अंधा पात्र है जो पीड़ित है और औपनिवेशिक सत्ता, पूँजीवाद और सामंतवाद के विरुद्ध खड़ा होता है। सूरदास का संघर्ष केवल अपनी ज़मीन के लिए नहीं, बल्कि पूरे गाँव के अस्तित्व के लिए होता है। 

प्रेमचंद का अंतिम और सर्वाधिक चर्चित उपन्यास ‘गोदान’ भले ही कृषक जीवन की त्रासदी है किन्तु इसमें भी दलित चेतना की उपस्थिति है। दलित सिलिया एवं ब्राह्मण मातादीन प्रसंग में इसे देखा जा सकता है। 

‘गबन’ उपन्यास में देवीदिन खटीक के रूप में प्रेमचंद ने ऐसे दलित पात्र की सर्जना की है जो बेहद सशक्त है। वह स्वतंत्रता संग्राम में अपने पुत्रों को खो चुका है पर कहीं से बेचारा नहीं है। अफ़सोस, दुःख के बजाय उसे इस बात का मलाल है कि उसके और पुत्र पहले ही चले गए। अगर वे आज ज़िन्दा होते तो वह उन्हें भी स्वतंत्रता संग्राम में भेजता। वह कथानायक रमानाथ का सम्बल बन कर आता है, उसे बिना किसी जान पहचान के छह माह अपने घर पर रखता है, उसे खिलाता-पिलाता है। यह पता होने के बावजूद की रमानाथ के पीछे पुलिस पड़ी है और उसपर पाँच सौ रुपए का इनाम है, वह उसकी सूचना पुलिस को नहीं देता। रमानाथ के पुलिस के मुख़बिर बन जाने की सूचना सुन वह अत्यंत दुःखी होता है। वह उसके चारित्रिक स्खलन को रोकने का हर सम्भव प्रयास करता है। ‘कर्मभूमि’ में भी गुदड़ चौधरी जैसा सशक्त दलित पात्र है जो उपन्यास के नायक अमरकान्त को आश्रय प्रदान करता है, अपने समाज की कुरीतियों को दूर करता है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि दलितों को लेकर प्रेमचंद का दृष्टिकोण केवल सहानुभूति का नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का था। वे दलितों को करुणा के पात्र नहीं, परिवर्तन का नायक मानते थे। उन्होंने पाखंडवादी संरचना को चुनौती दी और समानता के लिए लेखनी चलाई। जहाँ उनके समकालीन अधिकांश लेखक मुख्यतः प्रेम, वीरता या धार्मिक विषयों पर केंद्रित थे, वहीं प्रेमचंद ने दलितों को साहित्य के केंद्र में स्थान दिया। 

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रेमचंद का साहित्य दलित चेतना का बीज बोने वाला साहित्य है। वे भले ही अपने समय में चल रहे दलित आंदोलन में सक्रिय भागीदार न रहे हों, लेकिन उनकी कहानियाँ और उपन्यास उस चेतना का मूल पाठ हैं जो आगे चलकर दलित साहित्य की आधारशिला बनी। प्रेमचंद ने न केवल समाज की ख़ामियों को उजागर किया, बल्कि दलितों की पीड़ा, संघर्ष और अस्मिता को साहित्यिक स्वर दिया। आज भी, जबकि हम जाति और वर्ग के सवालों से जूझ रहे हैं, जाति आधारित उत्पीड़न और शोषण की समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं, प्रेमचंद का साहित्य प्रासंगिक और पाथेय है। 


संदर्भ सूची:

  1. प्रेमचंद–ठाकुर का कुआँ, सद्‌गति, कफ़न (कहानी संग्रह, प्रतिनिधि कहानियाँ: प्रेमचंद), संपादक: भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 14वां संस्करण, 2023 

  2. प्रेमचंद–गोदान, अनुभव पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद, संस्करण, 2016

  3. प्रेमचंद–रंगभूमि, मैपल प्रेस, संस्करण, 2013

  4. प्रेमचंद–गबन, मैपल प्रेस, संस्करण, 2015

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