कुशल गृहणी
डॉ. रानी कुमारीएक कुशल गृहणी
ताउम्र जोड़ती रही
एक-एक पाई
गाँव के लोगों द्वारा
चलाई जाने वाली
कमेटियों सोसायटियों में
डालती रही पैसा
जोड़ तोड़ कर कि
"रात बेरात खड़ा पांह
किसतै मांगण जायं?
दो पैसा अल्ला पल्ला होये
तो माणस बेफिकर रहवै"
कि संकट की घड़ी में
काम आ सके
उसकी छोटी-सी बचत
यह 'मड़ी-सी पूंजी'
उसका आधार होती
जिससे वह घर बनाने के
सपने भी देखती...
बच्चों का भविष्य
और हारी बीमारी में
काम आने वाला साधन भी..
दूसरों के सामने
हाथ फैलाए...
उससे बढ़िया
अपना देखकर ख़र्चा करें!
अपने पुराने कपड़ों को
कांट छांट कर
बना देती थी
बेटियों के लायक़..
गृहणी कुशल थी
इसलिए मेहनत और
उसकी क़ीमत को
बख़ूबी समझती थी...
पति की आदतों से परेशान,
कुशल गृहणी...
बेटा शायद समझे माँ को
उसकी मेहनत को
पिता की लत से
पूरा घर परेशान,
रात भर का जागना,
रोना-पीटना,
मारपीट से तंग सब
न तनखा का पता,
न ख़ुद का!
बेटे को उम्मीद से
देखती माँ...
बड़ी दुवाओं, मन्नतों से,
गंडे-तावीज तक का
सहारा लिया।
तब जाकर आँगन
फूल खिला था।
बेटा ऐसा नहीं था
उसे ये कंजूसी लगती
सँभल कर चलने की
बात करती उसकी माँ
अब उसे अपनी
सबसे बड़ी दुश्मन लगती
माँ बेटे की
अब बनती नहीं थी...
बेटियाँ भी दुखी थी
इस माहौल से।
अपने घर में ही
इतना कलह!
आगे भी क्या
ऐसा ही होगा।
सोच कर ही
घबरा जाती!
फिर भी इस
उथल-पुथल में
पढ़ लिख गई..
नौकरी के लिए करने लगी
परिक्षाओं की तैयारी।
ज़रूरतों के पूरा होने पर भी
बेटा हमेशा माथे में
तोड़ी ही डाले मिलता...
उसके शौक़ और
लत की आदत ने
घर को अखाड़ा बना दिया...
रोज़ का क्लेश,
अशांति से तंग आकर मां
सब छोड़ कर चली गई
जिस बेटे को बुढ़ापे की
लाठी माना
जिसे विनती, मन्नतों से माँगा
वो ही दुत्कार रहा है
सारे सपने टूटने का एहसास
छलनी- सी माँ
आँखों में आँसू भरे
पुत्र मोह से नाता तोड़..
अपनी ही परछाई के
पास चली गई।
वह कुशल गृहणी
तो बन गई पर
बेटे की नज़र में
अच्छी माँ न बन पाईं...