कुहासा और तुहिन 

15-01-2023

कुहासा और तुहिन 

डॉ. आरती ‘लोकेश’ (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

“तुषार! तुषार! अरे रुको न! क्यों दौड़ा रहे हो? मुझमें शक्ति नहीं है तुमसे रेस लगाने की,” देबाक्षी कहती जाती थी और डेढ़ वर्ष के बालक के पीछे दौड़ लगाती जाती थी। 

दौड़ तो देबाक्षी ने बहुत-सी लगाई थीं अपने जीवन में। पी.टी. प्रशिक्षिका थी और कुशल धाविका भी। युवाओं से तेज़ दौड़ने की क्षमता रखती थी। 

तीन साल पहले ही की तो बात है—

कोलकाता से बैंकॉक जाने के लिए विमान हवाईअड्डे पर तैयार था। देबाक्षी और छह धाविकाएँ बड़ी उत्सुकता से गेट नं. चार के स्वागत कक्ष के बाहर दिख रहे हवाईयान को टुकुर-टुकुर ताक रहीं थीं। सब की सब उतावली थीं कि कब बोर्डिंग की घोषणा होगी। उत्तेजना व हर्षातिरेक में प्रतीक्षा की घड़ियाँ एवरेस्ट-सी ऊँची हुई जाती थीं। 

‘बुद्धज्ञान मंथन स्कूल’ में अंतरराष्ट्रीय स्तर की खेल-क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में भाग लेने बैंकॉक जाना था। पी.टी. प्रशिक्षक सुश्री देबाक्षी भौमिक पिछले पच्चीस वर्षों से ‘सिद्धार्थ बालिका विद्यालय’ कोलकाता की बालिकाओं को हर प्रतियोगिता में विजयश्री दिलाने में सिद्धहस्त थी। खेल प्रतियोगिताओं के अतिरिक्त संगीत-नृत्य प्रतियोगिता, कविता-कहानी स्पर्धा, विज्ञान प्रदर्शनी; स्कूल से बाहर जाने के लिए देबाक्षी ही को प्रथम विकल्प चुना जाता था। उसने सदा ही यह उत्तरदायित्व पूरे मनोयोग से निभाया था। कुछ तो उसका साथ ही बालिकाओं तथा विद्यालय के लिए भाग्योदय बन आता था अतः प्रधानाचार्या उसके अतिरिक्त किसी और अध्यापिका को भेजकर हार का ख़तरा उठाने से डरती थीं। 

बालिकाओं को अपने आगे-आगे चला, निरीक्षण करते हुए देबाक्षी विमान में चढ़ी। यूँ तो सारे बंगाल और भारत भर में बस-ट्रेन आदि से कन्याओं को वह कई-कई बार लेकर गई थी। कन्याओं की देखभाल में उसकी दक्षता के कोई पासंग नहीं था। विदेश तक की उड़ान का यह पहला अवसर था। छह बच्चियों के माता-पिता ने पूरे उसके भरोसे पर अपने कलेजे के टुकड़ों को उसकी निगरानी में भेजा है अतः वह अधिक सतर्क थी। पैंतालीस वर्ष की देवाक्षी यह भली-भाँति जानती थी कि बस-ट्रेन की तुलना में हवाई-यात्रा अधिक सुरक्षित है। उत्तरदायित्व की गठरी काँच की बनी होती है। वह ऐसा बोझ है जिसे उठाने में अदृश्य रोड़ों से सँभलकर सफ़र तय करना होता है। 

देबाक्षी ने अपने हाथ में पकड़े छह बोर्डिंग पास के अनुसार सीट संख्या ‘जी’-1, 2, 3 तथा ‘एच’-1, 2, 3 पर बालिकाओं को बिठाया। सामान सिर के ऊपर वाले केबिनेट में व्यवस्थित किया, पुन: सबके पासपोर्ट एकत्र कर अपने पर्स में रखे और अपनी सीट ‘बी’-5 की ओर बढ़ी। एक बार फिर पलटकर सुनिश्चित किया कि सबने अपनी-अपनी सीट बेल्ट बाँध ली हैं। 

“मैम! आप चाहो तो यहाँ बैठ जाओ। मैं आपकी जगह बैठ जाऊँगी। यहाँ से आप इनका ध्यान रख पाओगी,” सुबर्णा ने देबाक्षी से कहा। 

सुबर्णा, जो 15-19 वर्ष की आयु वाले सीनियर्स ग्रुप में भाग ले रही थी, निश्चित रूप से पाँच अन्य लड़कियों से अधिक समझदार थी। समझदारी और उम्र दोनों हाथ में हाथ डालकर ही आगे बढ़ती हैं। 

“चिंता मत करो सुबर्णा! तुम सब सयानी हो। मैं हर समय पुलिस पहरा बिठाने में विश्वास नहीं करती। आज़ादी की साँस लेने का अधिकार तुम लोगों को भी है। मेरी उपस्थिति में तुम सब खुलकर बात भी नहीं कर पाओगी। बस दम घोटे बैठी रहोगी। फिर तुम हो न! तुम्हारे होते हुए मुझे बिल्कुल चिंता नहीं। मैं कोई दूर थोड़े ही हूँ। बीच-बीच में आसानी से निगाह डाल सकूँगी। और फिर भी कुछ समस्या हुई तो तुम मुझे आवाज़ लगा देना,” कहकर देबाक्षी ने प्रेम से सुबर्णा के सिर पर हाथ फेरा और अपनी सीट का रुख़ किया। 

अपने साथ लाए हैंडबैग को ऊपर टिकाकर वह सीट पर जा बैठी। अपनी रक्षा पेटी बाँधकर विमान को ‘रन-वे’ पर दौड़ लगाते देखने की प्रतीक्षा करने लगी। देबाक्षी को बच्चों की संगति में अच्छा लगता था। घर में अकेलापन काट खाने को दौड़ता था। उसके भाग्य में विवाह होता तो शायद उसके बच्चे आज युवा होते। सोचकर आँख भर आईं देबाक्षी की। सारा बचपन आँखों के सामने जीवंत हो उठा। उसकी यादों की ट्रेन अतीत की पटरियों पर दौड़ लगाने लगी। खिड़की से गुज़रते चलचित्र में वह आत्मकथा के अक्षरों को बाँच रही थी। 

हावड़ा के बुत्तोर स्थान पर एक छोटे से घर में एक हँसता-खेलता परिवार रहा करता था। सात बच्चों में देबाक्षी सबसे बड़ी थी। चैताली, शेफाली, मिताली; तीन बहनें, फिर तीन भाई—जयाशीष, सोमांश और ओश्विन थे। बच्चों के पालन-पोषण में घरेलू माँ को इतना समय ही कहाँ था कि किसी अन्य कार्य के बारे में सोच सकतीं। पिताजी पिछले चार वर्षों से भोपाल में एक कपड़ा मिल में काम करते थे और वहीं किराए पर मकान लेकर रहते थे। संघर्ष भी साथ ही रहते थे दोनों मकानों में। 

स्कूल की छुट्टियाँ होने पर माँ छोटे तीनों या दोनों भाइयों को लेकर पिताजी के पास रहने चली जाती थीं। भोपाल में अकेले होने से पिताजी को नौकरी और घर; दोनों काम का बोझा ढोना पड़ता था। माँ के आ जाने से दो महीने तो उनके चैन से व्यतीत होते थे। वहाँ से वापस आकर माँ को अगले दस महीनों का वियोग झेलने की हिम्मत आ जाती थी। माँ का हाथ बँटाते-बँटाते देबाक्षी छोटे भाई-बहनों का उदर भरने लायक़ खाना बनाना सीख गई थी। वह कपड़े धो देती तो तीनों बहनें खेल-खेल में मुँडेर पर सुखा आती थीं। घर से बाहर चारों-पाँचों एक साथ केवल रबीन्द्र संगीत की कक्षाओं के लिए ही पग धरते। सबको मंत्रमुग्ध कर और भावविभोर होकर एकसाथ सुरलहरी लगाते—

“एशो आमार घोरे
बाहिर होये एशो तुमी जे आछो अनतोरे
स्वपोन द्वार खुले एशो ओरुन-आलोके
मुग्धो ए चोखे” 

गीत के बोल देबाक्षी के कंठ से सुर झंकृत होने को आकुल हो उठे। तेज़ गति से दौड़ती स्मृति की ट्रेन धीमी पड़ गई। उसने आस-पास देखा, ‘बी-5’ सीट की लाइन में कोई और यात्री न दिखा। वह पुन: चलचित्र की नायिका बन गई। 

जब पिताजी बुत्तोर में होते तब वे हमें हुगली नदी के किनारे हर रविवार घुमाने ले जाया करते थे। हम हावड़ा सेतु पर से ट्रेन गुज़रती देख ख़ुशी से ताली बजाते हुए उछलते। बचपन ऐसा ही होता है, निरर्थक बात में भी अपार ख़ुशी सहेज लेता है। हम बच्चे झालमुड़ी के चटखारे लेते, भुनी हुई मसाला मच्छी के स्वाद लेते और लौटते समय सब्ज़ी बनाने के लिए ताज़ी शाक-सब्ज़ी ले आते। 

एक बार हुगली नदी में बाढ़ आने पर कई दिन तक पिताजी हमें हुगली के घाट पर न ले गए। चैताली से लेकर अश्विन तक सब मचलने लगे। पिताजी ने बताया कि बाढ़ के कारण वहाँ बहुत बर्बादी हुई है। सब कुछ सामान्य होने में समय लगेगा। मैंने स्कूल की किताबों में प्राकृतिक आपदाओं के बारे में पढ़ा था। मुझे जिज्ञासा थी कि बाढ़ कैसी दिखाई देती है। नदी को देखकर कैसे पता चलता है कि इसमें बाढ़ आई है। डरते हुए पिताजी से कहा कि मुझे बाढ़ देखनी है। पहले तो पिताजी हँसे। फिर थोड़ा गम्भीर होकर हमें बाढ़ दिखाने ले चले। 

मैंने देखा कि जिस स्थान पर हम ककड़ी, खीरा, सिंघाड़े, मच्छी खाया करते थे, वहाँ अब कोई फल-सब्ज़ीवाला नहीं है। वहाँ मकान पानी में डूबे हुए हैं और झोपड़ियाँ टूट-फूटकर पानी में बह गई हैं। कुछ बहते तिनके ही कभी उनके वहाँ होने के साक्ष्य के रूप में पानी की लहरों से जूझ रहे थे। छोटे भाइयों को बाढ़ समझ ही न आई। उन्होंने नदी के उफ़ान में बहती किसी वस्तु को बाढ़ मान लिया। 

जयाशीष कहने लगा, “पिताजी! कहाँ आई है बाढ़? हम भी देखेंगे। दिख ही नहीं रही है। हमें कंधों पर उठा लो।” यह जानते हुए भी कि कंधे पर बैठकर भी वे बाढ़ को लक्ष्य न कर पाएँगे, पिताजी ने एक-एक कर दोनों को कंधों पर बिठाया और अश्विन तो गोदी में था ही। हम बहनों को भी पिताजी ने पूरे समय माँ का पल्लू न छोड़ने के निर्देश दिए हुए थे। ऐसा प्रतीत हुआ कि नदी अभी समुद्र बन जाएगी और एक तीव्र लहर आकर हमें लील जाएगी। वापस लौटते समय पिताजी का मुख गाम्भीर्य ओढ़े रहा। वयस्क मन कौतूहल नहीं, विप्लव समेट रहा था। अंतर्मन में कदाचित यह गीत हिलोरें ले रहा था—

“आमार जे दिन भीसे गैछे चोखेरो जाले
तारी छाया पोड़ेछे श्राबोनो गागोनो ताले
से दिन जे रागिनी गैछे थेमे अतोलो बिरोहे नेमे गैछे थेमे . . .”

मैं बीस वर्ष की रही होगी। माँ बीमार रहने लगीं थीं। जाँच में पता चला कि माँ को तपेदिक ने घेर लिया था। उपचार चल रहा था। व्यय की नई चोट, नई चिंता से आहत पिताजी ने दो घंटे अधिक काम करना शुरू कर दिया ताकि तपेदिक के महँगे इलाज को निभाया जा सके। इधर उस वर्ष ही भोपाल में भयानक तबाही और मौत का तांडव मचाने वाली ‘भोपाल गैस त्रासदी’ वाली दुर्घटना हुई। कीटाणुनाशक बनाने वाली फ़ैक्ट्री से निकलने वाली विषैली गैस ‘मिथाइल आइसोसायनेड’ हज़ारों प्राणियों को कुछ घंटों में ही लील गई। विनाशलीला के दृश्यों से टीवी, अख़बार भरे पड़े थे। बीमार पत्नी की चिंता में घुल रहे पिताजी की साँसों में घुलकर भोपाल की ज़हरीली हवा ने उनकी काया भी जाने कहाँ हवा कर दी। हमने राहत शिविरों के बहुतेरे चक्कर काटे परन्तु पिताजी का शव बरामद नहीं हुआ। 

जीवन शेष था पर रूठा हुआ। कुछ महीनों के अंदर तपेदिक का बढ़ता आक्रमण टूटी हुई माँ को जीतने में सफल रहा और माँ जीवन की जंग हार गईं। हम पर दुखों की बाढ़ आ गई। जो बच्चे तब बाढ़ देखकर भी न समझ पाए थे, अब बिन देखे ही उसके अर्थ और अस्तित्व को समझ गए थे। कभी मौन रुदन करते तो कभी चीखकर विलाप। ढाढ़स बँधाने वाला भी कोई न था। कोई रिश्तेदार न था जो यह सोचता कि इन सात बच्चों का गुज़ारा कैसे होगा! 

छह भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी मेरे काँधों पर आ पड़ी। भाई-बहनों ने मुझे माँ के पद पर आसीन कर दिया। मैंने अपने आँसू पोंछे और बच्चों को कलेजे से लगा लिया। एक अदद नौकरी की तलाश शुरू हुई। बचपन से ही अपने विद्यालय की हर क्रीड़ा में प्रतिभागी रहा करती थी। प्रतियोगिताओं में अव्वल भी आती रही थी। ऐन.सी.सी. की सदस्या भी थी। पास ही एक प्राइवेट स्कूल में खेल प्रशिक्षिका की नौकरी से डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। 

दो वर्षों के प्रयासों के बाद हमारे पड़ोसी के सुपुत्र अर्धेंदु घोष ने सरकारी स्कूल की नौकरी के लिए आवेदन-पत्र भरवा दिया। अंधे को क्या चाहिए—दो आँखें! कुछ ऐसा ही हुआ। ‘सिद्धार्थ बालिका विद्यालय’ सरकारी स्कूल में नौकरी लग गई। परन्तु हावड़ा स्थित घर से वह स्कूल बहुत दूर पड़ता था। मैंने भाई-बहनों को लेकर कोलकाता के पलाशकुड़ा स्थान पर किराए पर एक कमरे का मकान ले लिया। जीवन में अपने जीने लायक़ जगह का निर्माण होने लगा था। 

एक-एक कर बहनों पर यौवन बहार लाने लग गया था। उनके निखार के साथ ही मेरी सतर्कता में भी विस्तार हुआ। चैताली स्नातक हो चुकी थी और नौकरी ढूँढ़ रही थी। उसे साक्षात्कार के लिए इधर-उधर जाना पड़ता था। वह अस्थिरचित्त की लड़की थी। जब मर्ज़ी ख़ुश दिखती तो जब मर्ज़ी चिड़चिड़ी। न उसके चहकने का कारण पता चलता न उदासीन रहने का। कुछ पूछो तो भड़क के उत्तर देती। मैंने चुप रहकर ही सोचने-समझने में भलाई समझी। 

कई बार घर के बाहर स्कूटर रुकने की आवाज़ से मेरे कान खड़े हो गए। खिड़की का पर्दा हटाकर देखा कि चैताली किसी के स्कूटर की पिछली सीट पर से उतरी है। दिल की धड़कनें बढ़ गईं। पर्दा छूट गया। मैं जैसे तैयार खड़ी थी। चैताली के घर में घुसते ही मैंने कई सवाल दाग दिए। चैताली बौखला गई। उसने अपनी तुनकमिजाज़ी से मुझे माँ के अधिकारों से तुरंत बेदख़ल कर दिया। उसके जवाबों से उसके रोष के अलावा कुछ न समझ आता था। मेरा क्रोध भी सारे बाँध तोड़ चला था। उसे बहुत बुरा-भला कह डाला। 

मैं भीतर तक हिल गई थी। क्या इसी दिन के लिए अर्धेंदु के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था? वह कितना गिड़गिड़ाया था। मेरी नौकरी लगवाई; मुझसे बहुत मिन्नतें की; बहुत भरोसा दिलाया कि वह मेरे भाई-बहनों का अपने सहोदरों की तरह ख़्याल रखेगा। उसके प्रेम पर विश्वास होते हुए भी मैं अपने कर्त्तव्य के सामने उस की अडिगता पर विश्वास न कर सकी। मुझे लगा था कि मुझसे बेहतर मेरे बच्चों को कोई नहीं सँभाल सकता। पहले ही टकराव में चैताली मुझे यूँ अपमानित कर देगी, सोचा न था। 

कुछ देर में मुझे होश आया तो पाया कि वह स्नानघर में बंद होकर देर से रो रही थी। ग़ुस्से का गुबार छँटा तो दिल कचोटने लगा। मैं स्वयं को धिक्कारने लगी। अपनी नासमझी पर क्षोभ होने लगा। कहीं वह कुछ कर बैठी? सोचकर मैं दहल गई। अश्रुओं का प्रवाह बाँध तोड़कर बह निकला। शैफाली और मिताली साथ में रोती जाती थीं। अपने प्राणों का वास्ता देकर बड़ी मुश्किल से चैताली को स्नानघर से बाहर निकलने को मैंने बाध्य किया। मैंने खींचकर अपने कलेजे से चिपका लिया। उसे पुचकारा। एक हल्की चपत लगाई। उसकी डबडबाई आँखों के समंदर धरती को पुकार रहे थे। मुझे कसकर भींच वह फफक-फफककर रोई। मेरे अंदर की ऊष्मा भी खारे पानी में बदल गई। मलाल इस धारा में विसर्जित हो गया। 

नौकरी और घर! इन दोनों के बीच झूलते मैं भाई-बहनों की भावनात्मक आवश्यकताओं के धरती-आकाश को विस्मृत कर बैठी थी। सबकी स्कूल की फ़ीस जमा कराना, घर का किराया, बिजली का बिल, दूधवाले का हिसाब, भाजीवाले से झिक-झिक, मच्छीवाले से तोल-मोल, त्योहारों के लिए बचत, रिक्शेवाले को डाँट; इन सब के बीच घड़ी की सुईं सी भागती ज़िन्दगी में अपने आँचल में समेटे उन ही बच्चों की इच्छाओं की मैंने तिलांजलि दे दी जिनकी ख़ातिर माँ का लिबास ओढ़ा था। 

“तुमि रोबे निरोबे ह्रिदोये मॉमो
निबिरो निभ्रितो पूर्णिमा निशिथिनि श्यैमो”

चैताली देर तक माँ को याद कर रोती रही। बार-बार उसकी हिचकी बँध जाती, गला रुँध जाता। तब मुझे अपनी थोथी ममता का भान हुआ। सच ही तो है। मैं बहुत कर के भी एक बहन का उत्तरदायित्व ही निभा पाई, माँ का नहीं। एक माँ की तरह न सोच सकी। माँ होतीं तो शायद समझ जातीं कि उसकी विवाह योग्य उम्र हो गई है। 

समाचार-पत्र में विज्ञापन देकर उचित वर के लिए छानबीन शुरू कर दी। मैं चैताली के साथ बैठकर प्रस्तावित ‘बायो-डेटा’ पर विचार करती। चैताली की पसंद-नापसंद के अनुसार ही आगे बात चलाती। तीन-चार जगह बात करने पर ही एक जगह चैताली का सम्बन्ध पक्का हो गया। वर पक्ष को मैंने पहले ही अपनी आर्थिक स्थिति के स्पष्ट दर्शन करा दिए थे। चैताली सौभाग्यशाली थी कि उन्हें ख़ूबसूरत और गुणवान कन्या की तलाश थी। इसके अतिरिक्त उनकी कोई विशेष माँग नहीं थी। 

हावड़ा वाले घर को बेचने का फ़ैसला हृदय पर पत्थर रखकर किया। संयोग से ग्राहक भी जल्दी ही मिल गया। माँ-पिताजी की सैंकड़ों यादों से आबाद था वह वीरान घर। जब ग्राहक के साथ वहाँ पहुँची, मकड़ी के जालों और धूल से भरा होने के बाद भी लगता था कि अभी माँ वहाँ रसोईघर से आवाज़ लगाएँगी–“देबू! ओ देबू! तुमि तो शोनो! निजेर भाई-बोनके निये आशो। खाबा ठांडा होए जाछे।” 

बहते आँसुओं को किसी तरह दुपट्टे से सोख कमरे पर दृष्टि डाली। पिताजी का छाता अब भी ज्यों का त्यों खूँटी पर टँगा देख जाने क्यों उस से लिपट, अपने कलेजे से लगा मैं ख़ूब रोई। बहुत देर बाद स्वयं को संयत कर पाई। सूजी हुई लाल आँखों से घर का कोना-कोना ग्राहक को दिखाती जाती थी और गीले दुपट्टे को और गीला करती जाती थी। ऐसा कौन-सा कोण होगा जहाँ से माँ-पिताजी की यादों से महकती समीर न आती हो। माँ के आँचल में दुबके और पिताजी को पकड़कर झूलते सारे बच्चे सब, अब भी वैसे के वैसे ही बसे हुए हैं उस घर में। हम घर ख़ाली कर चले गए पर घर हमें ख़ाली न कर सका। 

मेरी हालत देखकर ग्राहक ने अधिक सौदेबाज़ी न की। जल्द ही काग़ज़ी हस्तांतरण भी हो गया। मुझे भी जल्दी थी। आजकल अच्छे लड़के टिकते कहाँ हैं। कहीं रिश्ता हाथ से निकल गया तो चैताली का दिल तो टूटेगा ही मेरे हाथों के तोते भी उड़ जाएँगे। ग्राहक भी ईश्वर का भेजा कोई देवदूत ही है। वर्ना मजबूरी में घर जैसी वस्तु न ख़रीदते बनती है न बेचते। और फिर मजबूरी का लाभ उठाने वालों से दुनिया भरी पड़ी है। घर बेचकर मिले पैसों के चार हिस्से कर तीन हिस्से बैंक में जमा करा दिए। एक चौथाई में विवाह का कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ। 

मैं कब स्वयं कन्या से माँ बन गई, मुझे आभास तक नहीं हुआ। मेरे अंदर की माँ अब पूरी तरह जाग्रत हो चुकी थी। शेफाली के स्नातक होते-होते मैंने उसके लिए भी वर की खोज प्रारंभ कर दी थी। शेफाली नौकरी के आवेदन-पत्र भर रही थी। मुझे इस उम्र की चैताली भूली नहीं थी। हालाँकि शेफाली चैताली जैसी मुँहज़ोर न थी पर मैंने अपने कर्त्तव्य के निर्वहन में ढील बरतना उचित नहीं समझा। अधिक खोजबीन नहीं करनी पड़ी। शेफाली को एक कार्यालय में नौकरी मिल गई थी। साथ-साथ ही योग्य वर की तलाश भी पूरी हो गई थी। वर को केवल सुशील और कामकाजी वधू चाहिए थी। बैंक में जमा पूँजी से एक तिहाई निकालकर मैंने शेफाली का विवाह कर दिया। 

मिताली के विवाह के समय तक जयाशीष भी बड़ा हो चुका था। घर के निर्णयों में भाग लेने लगा था। मिताली जीवन बीमा कंपनी में काम कर रही थी। वहीं एक सहयोगी कर्मचारी ने उसका हाथ माँगकर हमें कृतार्थ कर दिया था। रूपवान, चपल, वाचाल मिताली उसे बहुत पसंद आई थी। अब बैंक में जमा रक़म का आधा निकाल मैंने विवाह पर ख़र्च कर दिया। तीनों बहनों का विवाह कर जैसे गंगा नहाने का-सा अहसास हुआ। 
स्कूल के लिए तैयार होते हुए दर्पण में ख़ुद को देखा। पिछली बार जब ठीक से दर्पण देखा होगा, उस बात को दस वर्ष बीत गए होंगे। बहुत बदलाव लक्ष्य किया ख़ुद में। पहचान ही नहीं पा रही थी कि यह मैं ही हूँ। बालों में भवों के ठीक ऊपर थोड़ी सफ़ेदी का सा अहसास हुआ। गालों की त्वचा को कुछ दबाकर, थोड़ा खींचकर देखा, ढीली पड़ गई थी। आँखों के चारों ओर स्याह घेरों ने आसन जमा लिया था। मन बनाया कि किसी सीमा तक उत्तरदायित्व से मुक्त हो चली हूँ, थोड़ा ख़ुद पर भी ध्यान दूँगी। कितनी दुविधा से मैंने अपने-आप को समझाया और कुछ जीवन के मुरझाए पौधे को हवा-पानी देना आरंभ किया। 

जयाशीष एक आकर्षक युवक में ढल चुका था। सोमांश और अश्विन भी बड़े हो चुके थे। मैं बहुत आश्वस्त थी कि अपने जीवन की बागडोर तो तीनों ख़ुद ही सँभाल लेंगे। जयाशीष नौकरी करने लगा था। घर-खर्च में भी सहारा लग गया था। एक दिन जयाशीष अपने साथ एक सुंदर लड़की को घर लाया। जयाशीष ने थोड़ा हिचकिचाते हुए बताया कि वह सुष्मिता से प्रेम करता है। मैं तुरंत बहन की गद्दी छोड़कर माँ के सिंहासन पर बैठ गई। जल्द ही दोनों का विवाह करा दिया। 

एक ही कमरे का घर था। घर में जगह की तंगी देखकर जयाशीष ने अलग घर किराए पर ले लिया। बहनें विदा हुईं तो हुईं, भाई भी विदा हो गया। हृदय को आघात-सा पहुँचा। अपनी ममता का सारा कोष मैंने सोमांश और अश्विन पर उँडेलना शुरू कर दिया। मेरे भीतर भी कहीं यह ग्लानि पनप रही थी कि बड़ों की देख-रेख में नन्हे दोनों को पूर्ण ममत्व न दे सकी हूँ। उम्र के अनुसार तो वैसे भी मेरे बेटे-से ही थे। 

समय मानो पंख लगाकर उड़ता चला गया। सोमांश की अच्छी नौकरी लगी। घर में उसके रिश्ते आने लगे। मैंने भी गर्म लोहे पर हथौड़ा मारकर एक रिश्ता पक्का कर दिया। नई बहू को छोटे घर में घुटन हुई तो सोमांश के साथ अपने मायके में रहने लग गई। दोनों का ऑफ़िस वहीं से पास पड़ता था। 

अश्विन की पत्नी भी घर में न टिक सकी और ऊँचे ओहदे पर होने के प्रभाव से कम्पनी ने आलीशान मकान दिया। मैं पलाशकुड़ा में अकेली दीवारें ताकती रह गई। दीवारें अट्टहास कर मुझे डराने लगी थीं। यही वह घर था जहाँ छह बच्चों को अपनी छाती से चिपकाकर मैं उनको जीवन देने के लिए लाई थी। वे अपने-अपने हिस्से का जीवन लेकर चलते बने। मेरा जीवन मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता चला गया। कुछ चिपके हुए कण ही हाथ लगे रह गए थे। 

अगली सुबह धूल जमे दर्पण को साफ़ किया तो प्रतीत हुआ कि कोई बुढ़िया दर्पण के पीछे से मुँह चिढ़ा रही है। माँग के दोनों ओर भवों के ऊपर की लट पूरी तरह सफ़ेद हो चुकी है। त्वचा लटकने लगी है। काले छल्लों के बीच धँसी आँखें धुँधला गई हैं। आस-पास कुछ छायाएँ घूम रही हैं जो दर्पण देख डर गई हैं, चिल्ला रही हैं। 
एक-एक कर सबको अपनी आवश्यकताएँ पता चलीं। क्या किसी ने मेरी आवश्यकताओं के बारे में सोचा? अपनी कोख से जन्म दिए बिना छह भाई-बहनों को माँ बनकर पाला था। अपने लिए उन्होंने माँ माना भी। परन्तु विधवा माँ! आजकल तो विधवाएँ भी विवाह के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। मेरे बारे में किसी ने भी नहीं सोचा? छह में से एक ने भी नहीं? एक बार भी विचार नहीं आया कि जीजी अब बूढ़ी हो चली है अकेले कैसे जीवन गुज़ारेगी? बहनों का तो फिर ठीक है, भाइयों को भी केवल अपने विवाह तक मतलब रहा। पहले चलो छोटे थे, जब बड़े हुए तब भी यह नहीं सोचा कि हम अपनी ज़िम्मेदारी निभाएँ। यह जो माँ जैसी दिखती है, है तो बहन ही . . .। इसके सपनों, इसकी ख़ुशियों, इसके जीवन की जो क़ुर्बानी हम अब तक लेते आए हैं, तो अपनी ख़ुशियों से पहले इसके लिए भी कुछ ख़ुशी के क्षणों का प्रबंध कर दें। चलो, पहले नहीं सोचा पर उसके बाद भी . . .? अश्विन के ब्याह को भी चार साल हो गए। आज तक किसी ने सुध नहीं ली कि जीजी के सहारे के लिए भी कभी विमर्श कर लें। कभी नहीं सोचा कि जीजी की भी कुछ ख़्वाहिशें हैं, कुछ अरमान हैं। वह भी घर बसाना चाहती होगी। त्योहारों पर आते हैं अपनी शक्लें दिखाकर सोचते हैं कि उनके कर्तव्यों की भरपाई हो गई और अपने घर की राह पकड़ निकल जाते हैं। कभी यह भी सोचते हैं कि हमारे बिना जीजी कैसे दिन काटती होगी? कहीं कुछ हो गया तो अस्पताल पहुँचाने वाला भी कोई नहीं। 

यह विचार आते ही मन वितृष्णा से भर उठा। आह रे! स्वार्थी दुनिया। दुनिया को क्या दोष देना। उससे क्या उम्मीद रखे जब सहजातों से ही कोई उम्मीद करना बेमानी है। एक गहरी ठंडी निश्वास छोड़ देबाक्षी ने ग़ौर किया कि जीवन अपने लिए भी है। आज देबाक्षी ने बेबसी या परबसी का आवरण उतार फेंका। दर्पण में बसी कुहासे में लिपटी आकृति पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह मुसकाती हुई साड़ी का पल्लू लहराती हुई, शॉल लपेटे, जीवन को आलिंगनबद्ध किए अपनी धुरी पर घूमती, आनंद से भरपूर मुस्कुरा रही है। किसी की उपस्थिति से बेख़बर कुहासे की छाया में हिलोरें लेती लहरों के समान बस स्वयं में मग्न है। उसे देख देबाक्षी में एक नई उमंग का संचार हुआ। स्वतः ही गुनगुना उठी—

“जोदी तोर डाक शुने केऊ ना SSS आशे तोबे एकला चोलो रे”

चेहरे की हलके हाथ से मालिश की। बालों में हिना का लेप लगाया। ढीले-से पैरहन को त्याग चुस्त परिधान धारण किए। हलका शृंगार किया। अपने रूप पर स्वयं मोहित हो उठी। एक भीनी-सी मुस्कुराहट चेहरे पर तिर गई। 

“जोदी तोर डाक शुने केऊ ना SSS आशे तोबे एकला चोलो रे
एकला चोलो, एकला चोलो, एकला चोलो, एकला चोलो रे”

मस्तिष्क में मौन चलता गीत कुछ मुखर हो उठा। देबाक्षी अपनी सीट नं ‘बी-5’ में कुछ और धँस गई। आँख बंद किए बहुत धीमी गुंजन में गुनगुनाती रही—एकला चलो रे। 
“एक्स्क्यूज़ मी” आवाज़ सुनकर देबाक्षी ने अगंतुक की ओर चेहरा उठाए बिना तिरछी निगाहों से देखा। अंतर में गीत की लय अभी भी निरंतर ध्वनित हो रही थी। अर्धचेतनावस्था में देखा कि वह एक सजीला, ऊँचा, सूटेड-बूटेड, आकर्षक, वृद्ध-युवक अर्थात् अधेड़ उम्र का व्यक्ति था। 

“जी, वह ‘बी-6’ मेरी है।” उस मनुष्य के चेहरे पर अपूर्व तेज था। वेश-भूषा तथा शारीरिक उपक्रमों की भाषा से ही ज्ञानी-विद्वान प्रतीत होता था। देबाक्षी चेहरा उठाकर उस मानवाकृति को निहारने लगी। 
“जी, मैडम! . . . मुझे अंदर वाली सीट पर जाना है। वह खिड़की वाली सीट . . . अगर आप थोड़ा पैर . . .” उसकी विनम्रता और भाषा की शालीनता अभिभूत कर देने की विषयवस्तु थी। देबाक्षी अपनी भीनी गिनमिनाहट में तन्मय रही। 

“जी, थोड़ी सी जगह . . .” कहने के साथ ही उसने अपने हाथों की उँगलियों के पोरवों को एक साथ जोड़कर थोड़ी-सी भिक्षा माँगने वाली मुद्रा बनाई तो देबाक्षी जैसे मदहोशी की अवस्था से छूटी, उछल खड़ी हुई। उसका यह प्रयास विफल किया सीट बेल्ट ने। आख़िर वह इसी काम के लिए ही तो होती है। ‘कट्ट’ की आवाज़ के साथ उसने सीटबेल्ट खोली। 

“ओह! सॉरी! आय एम सॉरी! वेरी सॉरी! आय डोंट नो वाय आय एम . . .” अब जाकर देबाक्षी जैसे होश में आई थी। क्षमा माँगने को भी शब्द न मिल रहे थे। बेल्ट खोलकर उसने तुरंत सीट के बाहर निकलकर उस सज्जन को खिड़की की सीट तक जाने का अवसर दिया। वह हतप्रभ थी कि कोई इतना सुसभ्य भी हो सकता है कि चार बार रास्ता न मिलने पर भी मीठी वाणी में बात दोहरा सके। वापस बैठते-बैठते देबाक्षी ने उसके लैपटॉप बैग पर लगा लेबल अपने मन में पढ़ा ‘डॉ. डी.जे. माथुर’। 

डॉ. माथुर ने अनुमान लगाया कि यह पास बैठी इकहरे बदन की, साँवले रंग की, तीखे नैन नक़्श की, क़रीने से गूँथी हुई नागिन सी लहराती वेणी को झटकती, सावन के झूले सी डोलती बालों की लट को सँवारती प्रौढ़ा में युवती-सहज लचीलापन व आकर्षण है। यह बार-बार पीछे मुड़कर किसी को देखती है। 

“जी, आपकी फ़ैमिली पीछे बैठी है क्या? आप चाहें तो यहाँ बुला लें। मैं वहाँ बैठ जाऊँगा,” देबाक्षी की दुविधा का अनुमान लगाकर दिव्य ज्योतिर्मय माथुर बोल पड़े थे। जबकि विमान में बैठकर एक बार वे अपना लैपटॉप खोल लेते तो दीन-दुनिया से बेख़बर हो जाते। 

“नहीं नहीं! आप परेशान न हों। मैं एक पी.टी. टीचर हूँ। मेरे साथ मेरी स्टूडेंट्स हैं। पीछे बैठी हैं। सब एक साथ ही हैं। बस यूँ ही बुरी आदत है बार-बार चेक करने की कि ठीक हैं कि नहीं,” कहकर वह स्वतः ही अपनी हरकत पर हँस दी। 

“अच्छी बात है। और आपकी फ़ैमिली? वह साथ नहीं है,” कुछ क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। देबाक्षी की दुखती रग पर जैसे किसी ने हाथ रख दिया था। डॉ. माथुर ने कोई उत्तर न पाकर झेंपते हुए स्वयं ही स्पष्टीकरण दिया, “आप सब अभी शायद स्कूल की स्पोंसरशिप पर जा रहे होंगे। पर फ़ैमिली के साथ भी अवश्य जाइएगा बैंकॉक . . . अच्छी जगह है,” कहकर डॉ. माथुर ने देबाक्षी के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने की चेष्टा की। वह थोड़ा आशंकित थे कि कहीं स्त्री को आहत कर बैठे हैं। 

“जी, अभी तक तो मेरी कोई फ़ैमिली नहीं है,” कहते हुए अपनी भर आई आँखों को मुश्किल से देबाक्षी ने छुपाने की चेष्टा में सफलता पाई। जिस चित्रपट को वह दुर्स्वप्न समझ भुला देना चाहती थी, वही आज साक्षात्कार के पाठ्यक्रम का मुख्य प्रश्न बन वेदना से भर गया। 

“जी, आप! डॉ. डी.जे.? किसी म्यूज़िकल बैंड-वैंड से संपर्क रखते हैं क्या?” अपने दुख को भीतर दबा लेने के लिए देबाक्षी ज़ोर से हँसी। 

“जी, दिव्य ज्योतिर्मय माथुर नाम है मेरा,” देबाक्षी को सामान्य देखकर राहत की साँस ली थी। “मैं न्यूरोलोजिस्ट हूँ। सर्जन हूँ . . . बैंकॉक में अखिल विश्व के तीन दिवसीय न्यूरो सर्जन सम्मेलन में भाग लेने जा रहा हूँ,” कुछ रुककर बोले, “नाम तनिक लम्बा है मेरा। सब मुझे दिव्यम के नाम से बुलाते हैं।” 

“जी, नाम तो तनिक लम्बा नहीं, अधिक ही लम्बा है। और दिव्यम! अच्छा नाम है। पर मेरा नाम भी मिलता जुलता है।” 

“अरे वाह! क्या नाम है आपका?” 

“देबाक्षी . . ., जिसका अर्थ होता है देवों की दृष्टि! वैसे माँ-पिताजी ‘देबू’ कहते थे।” बताते हुए फिर आँख भर आई देबाक्षी की। अब की बार वह चाहकर भी रोक नहीं पाई अपने गालों पर ढुलकते हुए इन मोतियों को। 

“मैं समझ सकता हूँ। माता-पिता के न रहने के बाद इंसान एकदम अकेला रह जाता है। परन्तु आपकी फ़ैमिली नहीं है। ऐसा क्यों? आपने शादी नहीं की या फिर . . .?” 

“छह भाई-बहनों को पालते और उनकी शादियाँ कर जब मैं स्वयं के लिए मुक्त हुई तो उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुकी थी कि शादी का विचार ही दूभर प्रतीत होता है।” 

“इतनी उम्र तो नहीं लगती आपकी।” 

“जी, मैं इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह सँभालकर रख लेती हूँ। दिन बन गया आज तो मेरा।” 

दोनों हँस दिए। किसी अजनबी से इतनी बातचीत! देबाक्षी स्वयं पर हैरान थी। अंदर ही अंदर अपने इस बदलाव पर वह कुछ ख़ुश हुई। कब तक डर-डरकर जीती रहेगी? और किससे डरे और क्यों? जिससे मन आएगा बात करेगी वह, सोचकर कुछ उसकी पीठ कुछ तन गई। 

डॉ. माथुर ने अपने लैपटॉप पर काम करना शुरू किया तो देबाक्षी ने अपने बैग में से ‘चोखेर बाली’ निकालकर पढ़ना शुरू किया। ढाई घंटे का सफ़र कट गया। विमान लैंडिंग के निर्देश दिए जा रहे थे। डॉ. माथुर ने लैपटॉप बंद कर बैग के सुपुर्द किया तो देबाक्षी ने भी उपन्यास पर्स के हवाले। 

“जी! आपने अपनी फ़ैमिली के बारे में नहीं बताया कुछ,” सहसा देबाक्षी को जैसे याद आया। 

“देबाक्षी जी! कई वर्ष गए पत्नी का देहांत हो गया।” 

“ओह! बहुत दुःख हुआ जानकर। और आपके बच्चे?” 

“नहीं हैं।” 

“उफ़्फ़! जीवन भी कैसे-कैसे दिन दिखाता है। चारों ओर दुखों का अंबार लगा है। और हम सोचते हैं कि हमारा ही दुःख सबसे अधिक है . . . फिर दोबारा विवाह . . .?” पूछते संकोच का अनुभव हुआ और वाक्य अधूरा छूट गया। 

“बंजारों का-सा जीवन है। आज यहाँ कल कहाँ। फिर समय ही नहीं मिला। ध्यान भी नहीं आया। ज़रूरत भी नहीं लगी . . . चलिए फिर मिलते हैं।” 

विमान रुक चुका था। डॉ. माथुर अलविदा कह निकल गए। देबाक्षी भी अपनी छात्राओं को लेकर निकली। 

पहले दो दिन ‘बुद्धज्ञान मंथन स्कूल’ द्वारा बैंकॉक भ्रमण के लिए निश्चित किए गए थे। ‘सियाम निरामित’ के अद्वितीय शो के आलावा ‘वट फ़रा किऊ’, ‘वट फ़ो’, ‘वट अरुन’, ‘वट साकेत’, ‘वट महातत’ के अतिरिक्त ‘सफारी वर्ल्ड’ का आनंद लिया। तीसरे दिन से विद्यालय में अभ्यास-सेशन आरम्भ हुए। 

“सुबर्णा! रुको! हेलमेट पहनो। कितनी बार कहा है साइकलिंग के समय हेलमेट मत उतारा करो,” बिना हेलमेट के अभ्यास करते देख देबाक्षी ने सुबर्णा को मीठी झिड़की लगाई। सुबर्णा ने हेलमेट पहनने के लिए साइकिल को रोकना चाहा और इसी प्रक्रिया में संतुलन खोकर गिर पड़ी। सिर में चोट आई थी। ख़ून बहने लगा। देबाक्षी के हाथ-पैर फूल गए। प्राथमिक चिकित्सा देकर देबाक्षी के साथ सुबर्णा को तुरंत अस्पताल की ओर रवाना किया गया। 

“एक्स-रे एंड अदर टैस्ट्स आर फ़ाइन। नो एविडेंट साइन्स ऑफ़ ऐनी डीप इंजरी और बोन क्रैक। स्टिल आई वुड रिकमैंड यू टू सी ए सर्जन, ही इज़ ऐन इंडियन सर्जन विथ ग्रेट एक्सपीरियेंस। लक्कीली हीयर फ़ॉर फ़्यू डेज़। यू विल फ़ील रीलिव्ड।” स्थानीय डॉक्टर ने देबाक्षी के चेहरे पर उड़ती हवाइयों को पढ़कर मशवरा दिया। उसने तुरंत एक नर्स को भेज नामी सर्जन को बुलवाया। 

“अरे! डॉ. माथुर आप!” देबाक्षी चौंक गई। चौंके तो डॉ. माथुर के साथ-साथ स्थानीय चिकित्सक भी थे। वे समझ गए थे कि दो भारतीयों का एक-दूसरे को जानना कोई अनहोनी बात नहीं है। देबाक्षी ने सचमुच ही राहत की साँस ली। एक चिकित्सक के रूप में भले ही दिव्यम को न जानती थी किन्तु भारतीय डॉक्टर होना ही विश्वास जमने के लिए काफ़ी था। उसने सहज होकर सुबर्णा की चोट दिखाई। दिव्यम ने सुबर्णा की जाँच की और उसकी सारी मेडीकल रिपोर्ट्स ध्यान से पढ़ीं। 

“आ . . .ओह! इतनी सावधानी के बाद भी चोट लग गई,” मुआयना कर कहा, “चिंता की कोई बात नहीं है। शी इज़ परफ़ैक्टली ऑल राइट। एक-दो दिन रुककर पुनः अभ्यास कर सकती है,” डॉ. माथुर की बात सुन जान में जान आई। अगर दिव्यम ने यह न कहा होता तो देबाक्षी उसे आगे प्रतिभाग करने ही न देती। 

डॉ. माथुर ने एक पर्ची पर कुछ लिखा और पकड़ाते हुए कहा, “एहतियात के तौर पर ये मेरा कॉन्टैक्ट नम्बर रख लो। वैसे कल तक सुबर्णा भली-चंगी हो जाएगी।” 

देबाक्षी ने हाथ जोड़कर आभार प्रकट किया। वे मुस्कुराए और देबाक्षी को सुबर्णा का सिर सहलाते छोड़ अपने काम सँभालने को फ़ुर्ती से निकल गए। 

सुबर्णा अभ्यास भी कर पाई और कई मैडल भी जीते। देबाक्षी के मिडास-स्पर्श का प्रभाव था तो अन्य कन्याओं ने भी कई-कई खेलों में मैडल और ट्रॉफ़ी जीतीं। एक सप्ताह बाद आज वापसी का दिन था। हवाई-अड्डे पर कन्याओं के पासपोर्ट निकालते समय देबाक्षी के हाथ वह पर्ची लगी जिसपर नम्बर लिखा था। उसे आवश्यक लगा कि शिष्टता के नाते एक शब्द धन्यवाद का तो बोला ही जाना चाहिए। उसने फोन नं. मिला दिया। मालूम हुआ कि डॉ. माथुर भी बैंकॉक के ‘स्वर्णभूमि इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ पर ही हैं। फिर तो आकर उन्होंने सुबर्णा का एक पुन: चेक-अप भी कर लिया। विमान में सब साथ ही बैठे। 

“आप तो तीन दिन के लिए ही थे बैंकॉक में?” देबाक्षी ने अधिकारपूर्वक संशय जड़ दिया। 

“अरे! बाबा, तीन दिन का सम्मेलन था। बैंकॉक में तीन ही दिन रहकर फुर्र हो जाऊँगा, ऐसा मैंने कब कहा था?” 

देबाक्षी को यह चुहल भली लगी। 

“फिर क्या किया बाक़ी दिन?” 

“घूमा-फिरा। और क्या करता?” दिव्यम का लैपटॉप आज बंद था। 

बातचीत का सिलसिला चलता रहा। यात्रा समाप्त होते-होते यह मुलाक़ात घनिष्ठ मित्रता में परिणत हो चुकी थी। देबाक्षी ने अपना सम्पर्क नम्बर डॉ. माथुर को दिया। 

डॉ. माथुर ने बताया कि अभी तो उन्हें दो दिन कोलकाता रहकर दिल्ली प्रस्थान करना है। टच में बने रहने और पुनः कोलकाता पधारे तो देबाक्षी से मिलने का वादा कर वे अपनी राह निकल गए। 

‘सिद्धार्थ बालिका विद्यालय’ में इस सफलता का जश्न-उत्सव मनाया गया। देबाक्षी को प्रधानाचार्या ने पृथक पुरस्कार व प्रशस्ति-पत्र दिया। 

देबाक्षी को कुहासा छँटता-सा दिखने लगा था। कोहरे के उस पार हाथ बढ़ाकर कोई उसे पुकारता था। जब वह कोहरे को छाँटती हुई आगे बढ़ती तो वह हाथ गुम हो जाता। वह मंद-मंद मुस्कुरा उठती। एक सौंधा-सा अहसास उसे गुदगुदाने लगता। वह उस आकृति को स्पष्ट देख लेने को व्याकुल थी जिसका केवल हाथ ही देखा था अब तक। उसकी अकुलाहट उसे आगे, और आगे बढ़ाती जाती थी। कभी कोहरा और गहरा जाता था। 

देबाक्षी का बुझा-सा चेहरा अब आभा बिखेरने लगा था। उसकी मुस्कान कुछ और नशीली और बातों का अंदाज़ कुछ और सुरीला हो चला था। उसकी चाल में एक अलग ही तरह का ख़ुमार घुल-सा गया था। उसकी घुँघराली लटें जब-तब उसके अधरों को चूम लेतीं और वह लजा जाती। अकेलापन उसे सताता न था। हर समय एक अहसास उसके साथ दिनभर घूमा करता था। उसकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया का वह अहसास साक्षी हुआ करता था। घर में भी वह तनिक बन-ठन के ही रहा करती थी। 

वह एक ख़ुशनुमा सफ़र पर निकल पड़ी थी जिसकी मंज़िल का उसे पता न था। हमसफ़र गुम था, रास्ता तय न था, रास्ते की तकलीफ़ों का अंदाज़ा भी न था। तय था तो बस देबाक्षी का अपनी ख़ुशियों को गले लगाना। ख़ुशियों को गले लगाने के लिए उनका आस-पास होना भी तो ज़रूरी है। 

अंदर के उल्लास ने दस्तक दी ही थी कि तभी एक मनहूस ख़बर मिली। ‘ग्रांड ट्रंक रोड’ जैसे राष्ट्रीय महामार्ग पर साइकिल का अभ्यास करते हुए सुबर्णा दुर्घटना का शिकार हो गई। हेलमेट पहना हुआ था परन्तु धक्के से वह खुलकर दूर जा गिरा। सिर में गहरी चोट आई। अस्पताल पहुँचने से पहले ही उसकी साँसें प्रयाण कर चुकी थीं। देबाक्षी ने उसे अपनी पुत्री जैसा स्नेह दिया था। इस ख़बर से वह भीतर तक टूट गई। उसकी इस वेदना को भाई-बहन समझने में असमर्थ थे। खिले फूल-सी देबाक्षी एक बार को मुरझा-सी गई। 

दो माह बाद ही डॉ. माथुर का फोन आया। अस्पताल में विशेष प्रकार की सर्जरी सिखाने के लिए वे कोलकाता आए हुए थे। थकी-हारी देबाक्षी को कोहरे के उस पार अरुणोदय की लालिमा का आभास हुआ। देबाक्षी के हृदय में कोमल भावनाओं का संचार हुआ। फोन का रिसीवर पकड़े ही वह देर तक रोती रही। दिल हल्का हो जाने पर सँभलती हुई बोली—

“मिलने नहीं आओगे?” 

“कैसे नहीं आऊँगा मेरी मालिक? . . . ओह! सॉरी . . . मैं ग़लती से . . .” दिव्यम थूक सटकने लगे। 

देबाक्षी हँसी। बड़े दिनों बाद हँसी ने उसका दरवाज़ा खटखटाया था। देबाक्षी को फिर कोहरे वाला दृश्य स्मरण हो आया। कोहरे के उस पार से हाथ बढ़ाती आकृति में एक पुरुष को अब वह देख पा रही थी। मिलने के लिए देबाक्षी ने घर का पता दिया। 

दिव्यम के आते ही वह उनके गले लग गई। दिव्यम ने अपने खुले बाज़ुओं में देवाक्षी को समेट लिया। एक अनचिह्नी डोर से दोनों जुड़ चुके थे। 

“कहाँ ठहरे हो?” 

“अभी देखता हूँ कोई जगह। जिस होटल में अस्पताल वालों ने मेरा प्रबंध किया वह बहुत घटिया-सा है, बड़ा असुविधाजनक निकला।” 

“तो यहीं रुक जाओ न दिव्यम! . . . सुबर्णा के यों चले जाने के बाद से बहुत तन्हा महसूस करती हूँ। बड़ी घुटन- सी होती है। अपराधबोध और ग्लानि से दबी जाती हूँ . . .। कभी लगता है कि काश! तुम यहाँ होते तो शायद वह आज जीवित होती,” देबाक्षी का सुबकना बंद न हो रहा था। 

“सब होनी के खेल हैं दिवू! कौन किसको बचा सका है। ऊपर वाले ने भी कुछ लिखा होता है,” दिव्यम ने देबाक्षी को अपने सीने से लगाकर शांत कराया। 

किसी के सीने से लग अपने सारे ग़म, दुःख, दर्द, चोट, गुबार निकाल देने का अहसास कैसा होता है आज लगभग तीस बरसों बाद देबाक्षी को फिर से महसूस हुआ। माँ के सीने से लगकर कभी सारी तकलीफ़ें भूल जाया करती थी। इस निस्सीम शान्ति की तलाश कब से थी। घंटों दिव्यम के सीने से लगी उसकी शर्ट को खारे पानी से भिगोती रही। दिव्यम ने उसकी पीठ सहलाकर अंदर से सभी दुर्भावनाओं को निकाल फेंकने में मदद की। दिव्यम की स्नेहिल बातों से देबाक्षी के मन से अपने भाइयों-बहनों के प्रति रोष भी कुछ कम हुआ। निश्छल प्रेम के स्पर्श से उल्लसित देबाक्षी को कुहासे को चीरती भीनी गुनगुनी ज्योति का आभास हुआ। एक अधूरी आकृति सम्पूर्णता को प्राप्त कर चुकी थी। अपने मन के सूने आँगन में आज उसने एक प्रेम-मूर्ति की स्थापना कर निर्बाध उसे पूजा। दिव्यम ने भी प्रेम-सागर में स्नान कर संतृप्त महसूस किया। 

पाँच दिन पलक झपकते ही निकल गए। विरह की बेला आ गई। दिव्यम ने देबाक्षी को अपना निर्णय सुनाया कि वह जल्द ही अपनी सारी प्रतिबद्धताओं को पूरा करेगा, ख़ाना-बदोश जीवन त्यागकर यथावत देबाक्षी से विवाह-सूत्र में बँधेगा। एकाकी जीवन में फिर से गीत गुंजायमान्‌ होंगे। देबाक्षी की प्रसन्नता की सीमा न रही। 

देबाक्षी ने अपने घर सब भाई-बहनों की बैठक बुलाकर डॉ. दिव्यम ज्योतिर्मय माथुर से विवाह का फ़ैसला सुनाया तो एक बार तो साँप सूँघ गया। आपस में खुसुर-फुसुर होने लगी। दबी हुई ज़बानों पर से धीरे-धीरे चादर उतरने लगी। छह दिशाओं से विरोध के स्वर गूँजने लगे। “इस उम्र में विवाह! छि:छि:! लोग क्या कहेंगे? दुनिया क्या कहेगी?” 

जी में तो उसके भी आया कि पूछ ले, “लोगों ने तब कुछ नहीं कहा जब तुमने अपना पोषण करने वाली बहन को अकेला और बेसहारा छोड़ दिया तो अब भी कुछ नहीं कहेंगे।” पर वह कुछ न बोली। अंतस के आर्तनाद से उसकी इंद्रियाँ फटी जाती थीं। कुछ देर बाद कानों की कठोर प्रतिक्रिया ने कुछ सुनना-समझना बंद कर दिया। उसे तय किया कि गोद में पाले बालकों से अनुमति लेने की बाध्यता नहीं थी। 

अब वह माँ की पदवी से कुछ उतर चुकी थी। वह केवल एक बहन थी। उसने बहन का-सा व्यवहार किया। सबको घर से बाहर निकालकर उसने दरवाज़ा भीतर से कसकर बंद कर लिया और ज़ार-ज़ार रोई। दरवाज़े से बाहर निकले साये उसे बहुत कलुषित प्रतीत हुए। वह ऐसे किवाड़ से चिपक गई कि उसके हटते ही कहीं सायों की कालिमा उसके घर में न फैल जाए। उसी पर टिकी वह सिसकती रही। हर बार उसकी ख़ुशियों के आड़े उसके अपने ही क्यों होते हैं। साथ परायों ने दिया है। ऐसा क्या है कि वे अपने अपनों को अपना नहीं बना सकी। 

सामने देवी की तसवीर थी। वह प्रतिदिन ही तो पूजा-अर्चना करती थी। क्या यही उसकी समस्त आराधना का प्रतिफल था? उसने जीवन के समस्त प्रश्नों को समेट उत्तर की अपेक्षा में माता को देखा। माता की कथा उसके सामने चलने लगी। माँ ने भी तो अपने इच्छित वर को पाने के लिए घोर संघर्ष किया। अपने पिता की अवहेलना और अपमान झेला। आज उसे माँ में शंभु के दर्शन हुए। उसने पाया कि माता गौरा के हाथ में प्रभु शंकर का त्रिशूल है। यह त्रिशूल माँ ने सदा ही रक्षार्थ उठाया है। माँ के विस्तृत तीसरे नेत्र में उसे समस्त जगत् और नातों-रिश्तों का खोखलापन दिखाई दिया। आज उसकी बारी है। अपने हिस्से की ख़ुशियाँ उसे स्वयं बटोरनी होगी। मोह, ममता और कर्त्तव्य को आज इस त्रिशूल की तीन नोंकों से काट डालना होगा। तीसरे नेत्र से स्वार्थ और अहसानफ़रामोशी को पहचानकर दूर निकाल फेंकना होगा। 

फोन की घंटी बजती रही और उसके कानों के पर्दे संवेदनाशून्य बने रहे। कई बार घंटी बजने के बाद उसकी तंद्रा टूटी। पुलिस का फोन था। चैताली और उसके पति की कार-दुर्घटना की ख़बर मिली। चैताली अस्पताल में थी। चैताली के पति की इस हादसे में मृत्यु हो गई थी। 

डॉक्टरों की कड़ी मेहनत से चैताली को ही बचाया जा सका था परन्तु उसकी मानसिक हालत ठीक नहीं थी। देबाक्षी ने सारे बैर-द्वेष भूलकर चैताली की सेवा में दिन-रात एक कर दिया। दुर्भाग्य से चैताली की कोई संतान नहीं थी। उसके ससुराल से कोई अस्पताल में झाँकने तक न आया। चैताली की हालत में सुधार हुआ तो देबाक्षी ने उन्हें चैताली को ले जाने के लिए संपर्क किया। ससुराल वालों ने उसे रखने से साफ़ इंकार कर दिया तो पुन: एक बार माँ की ओढ़नी ओढ़, सब कुछ भुलाकर वह चैताली को घर ले आई। 

दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। ईश्वर जब भी उसे दो घड़ी ख़ुशी की देता था तभी किसी अनहोनी की सूचना भी देता था। कहीं तुषार देख सकने योग्य भी कुहासा न छँटता था। देबाक्षी ने दिव्यम को स्थिति से अवगत कराया। अपने उत्तरदायित्व के चलते विवाह से भी इंकार किया। दिव्यम ने समझाया, “तुम चिंता मत करो देवू! मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी में पूरा हाथ बँटाऊँगा। तुम अगर माँ हो चैताली की तो मैं उसके पिता का धर्म निभाऊँगा।” 

देबाक्षी को अर्धेंदु याद आया। जो ग़लती वह एक बार कर चुकी थी वह दोबारा नहीं कर सकती थी। तब वह नासमझ थी, अब स्थिति बदल चुकी है। उसे दिव्यम की घोर आवश्यकता थी। 

देबाक्षी की ममता और वात्सल्य से चैताली की मानसिक स्थिति सुधरने लगी। दिव्यम ख़ुशी से फूला न समाया। उसने सचमुच पिता का कर्त्तव्य निभाया। दूर होते हुए भी वह प्रतिदिन चैताली के समाचार जानता और देबाक्षी को सुधार के उपाय बताता। अपनी जानकारी के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकों से उसने परामर्श दिलवाया। 
कुछ दिन से देबाक्षी की तबीयत भी नासाज़ थी। चैताली ने देबाक्षी को महिला चिकित्सक को दिखाने की ज़िद की। बिना चिकित्सक के ही देबाक्षी को अपने स्त्रीत्व की सम्पूर्णता का संज्ञान हो रहा था। चैताली देबाक्षी को ख़ुश देख बहुत ख़ुश हुई। देबाक्षी ने दिव्यम को यह सुखदायी समाचार सुनाया कि वह स्वयं गर्भवती है। दिव्यम मारे ख़ुशी के पागल हो उठा। सारे काम-काज छोड़ अगले सप्ताह ही कोलकाता पहुँच विवाह करने की सहमति हो गई। 

देबाक्षी बहुत ख़ुश थी। उसका अपना एक संसार होगा। अपना परिवार होगा। एक बेहद प्यार करने वाला पति और अपनी कोख से जन्मी संतान होगी। इससे अधिक और क्या चाह सकती थी वह ज़िन्दगी से। ईश्वर से भी इसकी प्रार्थना न की थी जो उसे मिलने जा रहा था। इस उम्र में उसके सारे सपने पूरे होंगे। 

देबाक्षी को कहाँ पता था कि रचयिता ने उसके जीवन की कथा में क्या-क्या रचा है। सिंगापोर एयलाइंस के विमान ने कोलकाता के लिए उड़ान भरी। डॉ. दिव्यम माथुर को लगातार सीने में दर्द के कारण विमान को बीच में ही बैंकॉक में उतारना पड़ा। आनन-फ़ानन में उपचार करने और हवाई-अड्डे के पास ही अस्पताल में सारी कोशिशों के पश्चात भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। बाद में वह विमान भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया और एक भी सवारी की जान न बची। नियति विकराल रूप लेकर पुन: सामने आ खड़ी हुई थी। 

प्रेम-कहानी के इस दुखद अंत ने देबाक्षी को असमय वृद्धावस्था में ढकेल दिया। वह अब पूरी तरह बिखर चुकी थी। उसकी आशा, संवेदना, जीजिविषा सबने दम तोड़ दिया था। वह चलती-फिरती जीवित लाश-सी दिखाई देती थी। 

ममता का क़र्ज़ उतारने की बारी अब चैताली की थी। उसने माँ का छत्र धारण किया। कभी स्नेह की वर्षा कर तो कभी डाँट-फटकार और कभी मनुहार से बेजान देबाक्षी को जिलाया। दिव्यम की निशानी को जीवन-दान देने के हित फ़िनिक्स पक्षी की भाँति अपनी ही राख से वह पुनर्जीवित हुई। नन्ही आशाओं ने अँगड़ाई ली। 

घोर पारिवारिक और सामाजिक विरोध हुआ। यहाँ तक कि भाई-बहनों ने नाता तोड़ लिया। देबाक्षी के साथ चैताली अडिग चट्टान बनकर खड़ी रही। देबाक्षी के साथ-साथ चैताली के लिए भी ममत्व लुटाने का यह पहला अवसर था। वह जान गई थी कि किस औचित्य के तहत विधाता ने उसके पति के साथ ही उसे क्यों नहीं अपने पास बुला लिया। गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए देबाक्षी ने पूरी तपस्या की। 

चैताली देबाक्षी को संबल देने को गीत गाती और सम्मोहित देबाक्षी साथ गुनगुना उठती—

“जोदी केउ कोथा ना कोय ओरे ओरे ओभागा केउ कोथाना कोय
जोदी शोबाय थाके मूख फिराए शोभाय कोरे भोए-2
तोबे पोरन कुले SSS
ओ थुए मुख फुटे थोर मोनेर कोथा एकला बोलो रे
जोदी तोर डाक शुने केऊ ना SSS आशे तोबे एकला चोलो रे”

कुहासे को चीरते हुए देबाक्षी ने ‘तुषार ज्योतिर्मय माथुर’ को जन्म दिया। मुट्ठी में चिपके बालू भर जीवन के कण आज मोती सम चमक उठे थे। 

2 टिप्पणियाँ

  • बापरे, देबाक्षी के साथ तकदीर ने जो खिलवाड़ किए उनसे तो बचना असम्भव था, पर आपने जो जीवन उसे दिया उसमें एकाध खुशी के अवसर उसे दे सकती थीं! अत्यंत करुण !!@

  • 9 Jan, 2023 10:36 AM

    कहानी पढ़ कर मन भावविभोर हो गया। कुछ परिचित लोगों का जीवन स्मृति पटल पर चित्रित हो गया। अति सुंदर रचना, अंतर्मन को छूने वाली।

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