खोया पीहर लौट आया 

01-07-2023

खोया पीहर लौट आया 

रीता मिश्रा तिवारी (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

स्टूल पर रखी चाय ठंडी हो गई और मान्या बालकनी में चुपचाप उदास बैठी थी। 

सामने ही रास्ते के उस पार के एक घर के आँगन में आम से लदा पेड़ था। पेड़ के नीचे चार पाँच बच्चे धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। कोई उचक -उचक कर तो कोई गुलेल से कोई डंडा मारकर आम तोड़ने के भरसक प्रयास में कोई पेड़ पर चढ़े जा रहा था। 

तभी एक आदमी जिसकी उम्र यही कोई पचास साठ के बीच होगी, जिनकी आवाज़ मान्या साफ़ सुन पा रही थी; वो महाशय बच्चों को आम न तोड़ने के लिए डाँट रहे थे। 

पेड़ पर चढ़े बच्चे को नीचे उतरने को कह रहे थे। शायद बच्चों ने उनसे शर्त लगाई तभी वो उद्दंडता छोड़ पेड़ से नीचे उतरे। 

शायद बच्चों के दादा या नाना होंगे। 

अब बेचारे महाशय बच्चों के प्रेम में वशीभूत शर्त को अंजाम देने के लिए ख़ुद पेड़ पर चढ़ गए और आम तोड़ कर नीचे गिरा रहे थे। 

इन दृश्यों को देखते-देखते मान्या के दिमाग़ ने चौदह साल पीछे बीते उन ख़ूबसूरत, दर्द भरे लम्हों के पन्ने पलटने लगी। 

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“दादा जी! आप हम बच्चों को यूँ डाँटा मत करिए। आपको पता भी है कि बच्चे भगवान होते हैं। उन्हें कुछ भी करने से नहीं रोकना चाहिए। उनकी हर इच्छा पूरी करनी चाहिए। नहीं तो भगवान जी ग़ुस्सा हो जाते हैं। हमें तो कच्ची कैरी खानी है, और हमें खाने से कोई नहीं रोक सकता आप भी नहीं समझे। 

“अब आप या तो हमें कच्चे आम तोड़ने दें . . . नहीं तो स्वयं तोड़ कर दें। हमारी इच्छा की पूर्ति करें ईश्वर आपका भला करेगा।”

मान्या के बोलने के अंदाज़ से दादाजी के साथ बरामदे में खड़े मम्मी-पापा, दीदी रोली, रमा और इकलौता भाई चिंटू सब हँसने लगे। 

दादाजी बोले, “अच्छा मेरी माँ! अभी आपको आम तोड़ कर देते हैं। मगर एक शर्त है . . . “

सारे बच्चे एक साथ बोल पड़े, “ऐं ऽऽऽ शर्त कैसी शर्त? आप हमें शर्त के नाम पर ब्लैकमेल न करें दादाजी। नहीं तो . . .”

दादाजी ने बीच में बात काट दी, “नहीं तो क्या? क्या करोगे?” 

मान्या ने धमकी दी, “पापा से शिकायत कर देंगे।”

पापा ने समझाते हुए कहा, “बेटा मान्या पहले सुन तो लो दादाजी की शर्त क्या है।”

बच्चे एक साथ बोले, “हाँ हाँ ठीक है बताइए दादाजी आपकी शर्त क्या है, पर सोच समझ कर हाँ . . .।”

मम्मी ने बच्चों को डाँटा, “क्या बात है? तुम लोग दादाजी को क्यूँ परेशान कर रहे हो? धूप बहुत है चलो सब अंदर।” फिर पलट कर दादा जी से कहा, “पिताजी अंदर चलिए नहीं तो आपकी तबियत ख़राब हो जायेगी।”

मान्या बिगड़ी, “ओ पिताजी की चमची! रहने दो दादाजी अभी कहीं नहीं जायेंगे। दादाजी! जल्दी आप अपनी शर्त बताइए।”

दादाजी कहने लगे, “बेटा! ये आम का जो पेड़ देख रहे हो न इसमें मेरी माँ के बड़े बेटे की जान बसती थी। बहुत प्यार से इसकी सेवा सुश्रुषा करती थी। इस पेड़ को वो अपना बेटा ही मानती थी। रोज़ घंटों इसके साथ बैठती और दुनिया जहान की बातें करती थीं।”

“क्या हुआ था उन्हें दादाजी?” 

“पोलियो से ग्रसित थे वो। देखने में बहुत सुंदर होनहार और बुद्धिमान थे। पंद्रहवाँ जन्मदिन था उनका बहुत धूमधाम से मनाया गया था। रात को सोए तो फिर कभी नहीं जगे।”

“ओह . . . फिर क्या हुआ दादाजी?” 

“माँ क़रीब पागल-सी हो गई थी। एक दिन पिताजी माँ को आँगन में उग आए इस आम के पौधे को दिखाकर बोले—लाजवंती हमारा बेटा कहीं नहीं गया है। हमारे पास ही तो है। देखो कितना ख़ुश है और झूम रहा है— उसी दिन से माँ इस पेड़ को बेटा मानने लगी और धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगी।”

भीग आए कोरों को पोंछते हुए दादाजी ने कहा।

“बच्चों! तो शर्त ये है कि तुम लोग किसी भी मुसीबत, परेशानी या स्वार्थ में आकर इस पेड़ की बुनियाद को कभी चोट मत पहुँचाना। मतलब कभी काटना, बेचना नहीं।”

बच्चे बोले, “ठीक है दादाजी हमें शर्त मंज़ूर है।”

दादाजी बच्चों को बहुत सारी कच्ची कैरी तोड़कर दिए। 

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कहते हैं न समय किसी का मोहताज नहीं हैं। अपनी तीव्रता से अच्छी–बुरी यादों को पीछे छोड़ आगे बढ़ता जाता है। 

मान्या एक भाई और तीन बहनों में सबसे छोटी तेज़-तर्रार, ख़ूबसूरत और सबसे छोटी थी, तो मम्मी की बहुत दुलारी थी। 

वृद्धावस्था ने दादाजी को अपने गिरफ़्त में ऐसा जकड़ा की उनकी जान लेकर ही दम लिया। 

दोनों बहनें शादी करके ससुराल चली गई और भाई की दुलहन हमारे घर आ गई। 

माँ को लिवर कैंसर की बीमारी लग गई। घर अस्त-व्यस्त हो गया। बहनों की शादी में बहुत रुपए ख़र्च हो गए थे। पापा के रिटायर्ड के बाद पीएफ फ़ंड भी ख़त्म हो गया था। अब माँ के इलाज के लिए पैसे नहीं थे। पापा को दो चिन्ताएँ अब खाए जा रहीं थीं एक माँ का इलाज दूसरी मेरी शादी। 

गाँव में पुरखों की ज़मीन भी बिक गई अब सिर्फ़ ये घर बचा था। 

पापा ने उसे बेचने का मन बनाया तो हमने और चिंटू ने दादाजी जी बात याद दिलाई और मना कर दिया। माँ की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। 

एक दिन माँ ने पापा को बुलाकर मेरी शादी के लिए मामाजी के साले का बेटा जो कि बेंगलोर में इंजीनियर है इकलौता और बहुत अच्छा संस्कारी है, उससे करने की बात कही। 

साधारण ढंग से शादी कर मैं ससुराल आ गई। कुछ दिन बाद पापा ने माँ के लिए घर बेच दिया फिर भी माँ को बचा नहीं सके। 

माँ के जाने के बाद पापा जैसे हम बहनों को भूल ही गए। न कभी बात करते थे, न ही कभी घर जाने पर ख़ुश होते थे। 

एक दिन तो सीधा सपाट शब्दों में कह ही दिया कि हमेशा मुँह उठा यहाँ आकर मुझे परेशान करने की ज़रूरत नहीं है। अपने घर में सुख शान्ति से रहो और मुझे भी शान्ति से रहने दो। 

चिंटू ने जब एतराज़ जताया तो उसे भी अलग रहने को कह दिया। हमारा पीहर जाना अब छूट गया। 

पापा के जाने के बाद आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब हो गई थी, चिंटू उदास और चिंता में रहता। भाभी से बात कर सारा हाल जान लेती। मैंने भाभी को इनसे (पति) कह कर एक कंपनी में नौकरी लगवा दी। अब दोनों के काम करने से हालत घर की सुधरने लगी। 

मान्या की तंद्रा तब भंग हुई जब काकी (मेड) ने कहा, “अरी बिटिया! तुमरी चाय तो ठंडी हुई गई। दरवाजे पर कोई आया है। तुमारा नाम बोल रहा है!” 

मान्या ने पूछा, “कौन है काकी?” 

“अब हमका पता नहीं। आप ही के बारे में पूछ रहा है।”

नीचे आकर देखी तो अचंभित हो गई। एक पल को तो आँखों को विश्वास ही नहीं हुआ। लगा कोई सपना देख रही हूँ। अपने आँख को कई बार मिचमिचाये, मले, काकी से ख़ुद को चिकोटी काटने को कहा। 

उधर चिंटू की आँखें पनीली हो गई थिं। उसने अपनी बाँहें पसार दी रुँधे गले से कहा, ”मान्या मेरी बहन”! दोनों भाई बहन बरसों बाद गले मिल फफक पड़े। 

“मान्या तेरी भाभी रोली दी को और भूपेंद्र, रमा को लाने उसके ससुराल गए हैं। चल बहुत दिन हो गए मान्या। घर तुम लोगों का इंतज़ार कर रहा है बहन।”

मान्या की आँखों से गंगा जमुना की अविरल धारा बह रही थी। 

गाड़ी जब दरवाज़े पर रुकी तो सामने ही पड़ोसन आंटी जो अब बूढ़ी हो गई थी आरती का थाल लिए खड़ी थी। 

पीछे से दोनों बहनों की भी टैक्सी आ गई। चिंटू ने कार का दरवाज़ा खोल बहनों को उतारा और घर के आँगन में लगे आम के पेड़ के नीचे खड़ा हो कहने लगा, “दादाजी की शर्त मैं भूला नहीं था पर मजबूरी थी। माँ थी छोड़ तो नहीं सकते थे न। दादाजी की भावनाओं को ठेस पहुँचाई थी पर दिल से बेची नहीं थी। 

“मैंने क़सम खाई थी जब तक अपना घर वापस नहीं ले लेता तुम लोगों से बात नहीं करूँगा। मैंने घर बेचते वक़्त अंकल को पेड़ की हिफ़ाज़त करने की कहानी बता रखी थी और वादा किया था कि एक दिन घर वापस लूँगा इसी शर्त पर बेचा गया था बहन।”

आज हमारा भी चौदह वर्ष का वनवास ख़त्म हुआ और हमारा खोया पीहर लौट आया। सब भाई-बहन, भाभी-बच्चों ने एक साथ भरी आँखों से पेड़ को अपने अंक में भर लिया। 

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