कविता एक घाव है
आनन्द कुमार रायकविता एक घाव है
साथ ही किसी समझदार का दाव है
पर मेरे लिए तो घाव है
जैसे, पिचकारी, में रंग भरकर
उसे निकालते हैं दबाकर
ठीक, वही चीज़
मुझमें भी घटती है
जब मैं दबाया जाता हूँ
अन्दर से
शब्दों के नाते कब अर्थ से
जुड़ जाते हैं
मुझे पता भी नहीं चलता
कब दर्द बाहर तैरता है
कब खौलता है
पता भी नहीं चलता
कि, पंक्तियों के बरामदे में
शब्दों की सही नाप-जोख
सही तौल, कौन तौलता है
पर मुझे याद है
जब मैं या मेरी कविता
पेन की स्याही से निकलती हैं
तो मेरे भीतर एक दर्द ही होता है
कभी हँसते हुए मैंने कविता नहीं किया
इसलिए कोई मुझसे
पूछता है—कविता क्या है?
तब मैं अपने दर्द की ही व्याख्या से
उसे समझाता हूँ
तो अनायास कविता परिभाषित
हो उठती है कि—
कविता एक घाव है।