कैसे उड़ें गगन
लक्ष्मीनारायण गुप्ताहलके मन से तन भारी,
कैसे उड़ें गगन।
पैर मिले, चल लेते हैं
लेकर भारी तन।
मन ही मन, हँस कर अपने
भूले कष्ट, विघन।
नौ माह तक माँ गर्भ में
मुट्ठी कसा बदन।
आँखें जब से खुलीं जगत में
तब से जगा रुदन।
सोते में हँसना-रोना
शैशव के स्पन्दन।
मृत्यु तक चैतन्य मन को
बाँधे रखे सघन।
तन हलकाने की इच्छा
करती रही हवन।
हर बार, होम ही हारा
जितने किये जतन।
हलके मन से तन भारी,
कैसे उड़ें गगन।