हम आम आदमी
लक्ष्मीनारायण गुप्तावही वही मकड़ जाल
बुनते हैं सुबह शाम
हम आदमी है आम
उठने से सोने तक
कहता हूँ मरा मरा
जानूँ न समझूँ राम।
अन्यों को देख देख
मुँह में न थमे लार
तृषा को नहीं लगाम।
मानव है बगुले सा
रूप धर योगी का
जोड़ता है धन-धाम।
दोष क्यों देते हमें
कुसंस्कारित कर रहे
कलियुग के तामझाम।
रूप आम के तमाम
दशहरी, तोतापरी
चौसा, नीलम, बदाम।
खास लोगों के लिये
कटते पिटते है हम
बने रहते गुमनाम।