जब जब

03-03-2009

जब कभी जहान भर की मुश्किलें और आफ़तें जाँ की थीं। 
फ़रिश्तों सी सदा सर पर मेरे, दुआये माँ की थीं॥
 
जलती रही मुसलसल वो गीली लकड़ी की तरह। 
मेरी ख़ुशियों के लिए उसने अपनी ज़िन्दगी धुआँ की थी॥
 
उड़ गया मैं एक दिन उसके घोंसले से बड़ा होते ही। 
इसी दिन के लिये क्या माँओं ने औलादें जवाँ की थीं॥
 
मेरे फूल से बच्चों को बंदूकें थमा दीं किसने। 
नानी से जो पूछते थे, परियाँ कौन थीं कहाँ की थीं॥
 
बरसों तलक तू मेरे मैं तेरे ख़ून का प्यासा बना रहा। 
गवां के सब कुछ जाना, क़ता तो सियासी ज़ुबाँ की थी॥
 
उस ग़रीब बाप पर क्या गुज़री कुछ ख़बर नहीं। 
पहले बेटी रुख़सत हुई, और अब बारी मकां की थी॥
 
यहाँ क़ामयाबी उन चन्द लोगों को ही नसीब हुई। 
क़दम ज़मीं पे थे जिनके, मगर तैयारी आसमां की थी॥

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