गुम होते क्रेडिट-कार्ड्स
प्रगति गुप्ता
रात तीन बजे एकाएक ही वैदेही सोते-सोते विवाह के बाद गुज़रे उन पंद्रह सालों में पहुँच गई जहाँ उसे मरीज़ों के बीच घिरा रहना सुकून देता था। ऑपरेशन थिएटर, सर्जिकल इन्स्ट्रूमेंट्स, ख़ुद के मरीज़ और स्टाफ़ . . . सभी उसका आत्मविश्वास बढ़ाते थे। घर और अस्पताल का काम सँभालते हुए कब दिन निकल जाता, वैदेही को पता ही नहीं चलता था। कुछ ऐसे ही स्वप्नों के साथ उसकी नींद सालों-साल से उचट रही थी। समय के साथ ठहरे हुए स्वप्न अक्सर जागरण करवा ही देते हैं।
फिर अचानक वैदेही को महसूस हुआ . . . जैसे श्रीकांत ने उसको आवाज़ देकर पूछा हो, “वैदेही! सो गई हो क्या?”
“हम्म . . . मुझे बहुत नींद आ रही है श्रीकांत। आज दिन काफ़ी हेक्टिक था। तीन डिलीवरी केस थे। आउट-डोर में भी काफ़ी मरीज़ थे। बहुत थक गई हूँ। कुछ बहुत ज़रूरी न हो तो . . . कल सवेरे बात करते हैं।”
“अभी सिर्फ़ साढ़े दस ही बजे हैं। तुम सो भी गई। हम दोनों अपना सारा वक़्त मरीज़ों के साथ गुज़ारते हैं। बात करने का वक़्त ही नहीं निकलता। तुम अपने मरीज़ों की सर्जरी सवेरे-सवेरे रख लेती हो। फिर तुम्हारा आउट-डोर। घर कब आती और जाती हो पता ही नहीं चलता।”
श्रीकांत की बात सुनकर वैदेही कुछ बोलना चाहती थी, मगर बुदबुदा कर रह गई, “जब कभी लंच या डिनर सभी के साथ लेने के लिए पहुँचती हूँ . . . तब भी तो सभी को खिलाने-पिलाने में लगी रहती हूँ। किसी के दिलो-दिमाग़ में नहीं आता कि मुझे भी बैठकर तसल्ली से खाना खाने को कहे। लंच पर डिनर और डिनर पर ब्रेक-फ़ास्ट में क्या खाना है . . . सब उन फ़रमाइशों की चर्चा ज़रूर कर लेते।”
वैदेही को बहस करने की आदत नहीं थी। उसको लगता था बहसों से घर की शान्ति भंग हो जाती है। अक्सर अपनी बात ख़ुद से ही बोलकर शांत होना, उसका मूल स्वभाव था।
उस रात भी सबको खाना खिलाकर वह बच्चों साथ उनके बेड-रूम में ही लेट गई थी। यह उसकी दिनचर्या थी, ताकि बच्चों के साथ वक़्त गुज़ार सके। बच्चे समझदार हो चुके थे। अपना होम-वर्क ख़ुद कर लिया करते थे। बस उन्हें बीच-बीच में माँ की ज़रूरत होती थी।
वैदेही अस्पताल से भी बच्चों को फोन लगाकर निर्देशित किया करती थी।
बहुत थकी हुई होने के कारण वैदेही जैसे ही अपने बिस्तर पर आकर लेटी, उसे नींद आ गई। उसका डिनर अक्सर ही छूट जाता था। हमेशा की तरह श्रीकांत डिनर लेकर टीवी पर समाचार देखने बैठ गए थे, और माँ पापा के कामों में लग गईं। वैदेही ने डिनर लिया या नहीं यह सिर्फ़ वैदेही को पता होता था।
छोटे-मोटे वैचारिक मतभेदों को वैदेही बहुत तवज्जोह नहीं देती थी। उसे श्रीकांत पर बहुत प्यार आता था। श्रीकांत जब भी वैदेही को सोते से जगाता, उसे लगता श्रीकांत को उस पर प्यार उमड़ा है। अक्सर बहुत थके होने पर वैदेही में स्त्री-सुलभ अपेक्षाएँ स्वतः ही जन्म ले लेती। वह सोचती, ‘कोई उसके माथे पर हाथ रख दे या बालों में उँगलियों की पोरों से सहला दे’। पर सच में ऐसा होना मन के सोचे से नहीं, बल्कि निमित्त के अधीन होता है।
दोनों के पास सीमित समय था। जिसमें घर की ज़िम्मेदारियों से जुड़ी बातें हावी होती रही थीं। कैसे ज़िम्मेदारियाँ अंतरंग रिश्तों में घुसपैठ करके उन्हें आम ज़रूरत-सा बना देती हैं, वैदेही को अक्सर ही महसूस होता था। अपनी सोच पर विराम लगाते हुए वैदेही ने श्रीकांत से कहा, “तुम भी तो सारा दिन बिज़ी ही रहते हो श्रीकांत . . . अच्छा बताओ क्या बात करनी थी तुम्हें? . . . मैं सुन रही हूँ।”
श्रीकांत के बात शुरू करते ही वैदेही सजग हो गई।
“वैदेही! मुझे माँ-पापा के बारे में बात करनी है। दोनों की ही तबीयत अब काफ़ी ख़राब रहने लगी है। पापा के लकवाग्रस्त होने के बाद माँ का काम काफ़ी बढ़ गया है। दोनों का बीपी और ब्लड शुगर काफ़ी घटता-बढ़ता रहता है। जिसको बराबर मॉनिटर करना ज़रूरी है। मुझे पापा के लिए रखे हुए स्टाफ़ पर कम विश्वास है कि वह सब काम सुचारु रूप से करता होगा . . .। हमारे बेटे भी अब बड़े हो रहे हैं। वह दोनों भी अपने भविष्य के प्रति सजग और केंद्रित रहें, यही चाहता हूँ। अब उन्हें भी व्यक्तिगत तौर पर देखना बहुत ज़रूरी हो गया है . . . तुम तो जानती ही हो वैदेही, ख़ुद के मरे स्वर्ग नहीं मिलता।”
वैदेही की मुँदी हुई आँखें देखकर श्रीकांत ने उसे हल्का-सा हिलाकर पूछा, “सुन रही हो न वैदेही।”
“हम्म सुन रही हूँ श्रीकांत। मुझे लगा तुम्हें हम दोनों से जुड़ी हुई कोई बात करनी थी। एक बार को तो मुझे लगा कि शायद तुमको प्यार आ रहा है। तभी तुम . . . मुझे सोते से जगा रहे हो . . .। श्रीकांत! एक अरसा हो गया न हमें भी कुछ . . . हर रात जब थककर चूर होकर लेटती हूँ तो लगता है थोड़ी देर के लिए बस तुम मेरे सिर पर हाथ ही फेर दो, और मैं एक गहरी नींद लूँ। पर तुम्हारे दिल में कभी ऐसा ख़्याल आया हो . . . मुझे महसूस ही नहीं हुआ।”
“क्या वैदेही तुम भी . . . मैं इस वक़्त बहुत परेशान हूँ। हमारे घर के लिए चिंतित हूँ। तुम्हें तो बस यही सूझता है . . . छोड़ो अगर तुम्हें सोना है . . . तो सो सकती हो। घर के बारे में सोचने की ज़िम्मेदारी, अगर अकेले मेरी है तो मैं ही सोच लूँगा। तुम मेरी बातों को नज़रअंदाज़ करके अपने काम को तवज़्ज़ो देना चाहती हो . . . तो देती रहो। क्या होगा इतने सारे रुपए कमाकर, जब घरवाले ही उपेक्षित हो जाए।”
श्रीकांत अपने शब्दों के बाण चलाकर शांत हो चुका था। अब उसे वैदेही की प्रतिक्रिया का इंतज़ार था।
“तुम अपनी बात बोलकर हमेशा ही निष्कर्ष पर क्यों पहुँच जाते हो श्रीकांत। जबकि मुझे पूरी बात पता ही नहीं। बात पता चलने के बाद मुझे भी अपना पक्ष सोचने व रखने दो। आम घरेलू महिला के जैसे मेरे साथ, उनके पतियों जैसा व्यवहार मत करो। घर और बच्चे मेरी भी प्राथमिकता हैं। तभी हर बात को व्यक्तिगत स्पर्श देने की कोशिश भी करती हूँ। क्या कहना चाहते हो वो साझा करो? आज घर में तुम्हारी किससे और क्या बात हुई है? . . . सभी कुछ मुझे विस्तार से बताओ। हो सकता है व्यस्तता के रहते कुछ ऐसा हो . . . जो मैं देख नहीं पा रही हूँ।”
थोड़ी देर तक जब श्रीकांत की ओर से कोई बातचीत शुरू नहीं हुई तो वैदेही ने वापस पूछा, “कुछ हुआ है क्या श्रीकांत?”
श्रीकांत के उल्टी तरीक़े से बात करने की वज़ह से वैदेही की नींद अब कोसों दूर भाग चुकी थी। कहने को दोनों का विवाह प्रेम-विवाह था। पर जब भी श्रीकांत को वैदेही से अपनी कोई बात मनवानी होती टेढ़ा ही टेढ़ा बोलता और चलता। उसकी यही बात वैदेही को बहुत आहत करती। पर उसकी शांत होने की प्रवृति उसको और अधिक मरीज़ों के साथ झोंक देती। जब भी ऐसा कुछ होता तो वह अपना अधिकतम समय अस्पताल में रहकर गुज़ारना चाहती।
लगातार सर्जरी करने के बाद जब भी अस्पताल का स्टाफ़ उसे थका हुआ देखता तो कोई न कोई उसके लिए चाय या कॉफ़ी बनाकर ले आता। ऐसे में वैदेही को महसूस होता कम-से-कम उसकी ज़िन्दगी में कुछ लोग तो ऐसे हैं . . . जिन्हें उसके थकने का पता चलता है। इसके अलावा पैदा होने वाले नवजात शिशुओं की किलकारियाँ उसके चेहरे की मुस्कुराहट को दुगना कर देती थी।
वैदेही को ख़ामोश देखकर श्रीकांत ने बताना शुरू किया, “आज लंच के समय माँ बोल रही थी कि ‘पापा के लकवाग्रस्त होने के कारण उनके पास बहुत काम रहते हैं। इसलिए अब उनसे घर व बच्चों की ज़िम्मेदारी नहीं सँभाली जाती।’ . . . उन्होंने तुम्हें भी शायद हिंट दिया था। उनको तुम्हारा घर में और नौकर बढ़ाने का सुझाव पसंद नहीं आया। माँ का कहना है कि नौकरों की मनमानियाँ भी उनसे नहीं देखी जाती . . . नौकरों को निर्देश देने और उन पर आँख रखने के लिए घर का ही कोई इंसान होना चाहिए।”
वैदेही ने श्रीकांत के चुप होते ही कहा, “अस्पताल से फोन कर-करके सब कुछ सँभालने की कोशिश करती तो हूँ। नौकरों पर आँख रखने का क्या मायने है? तुम्हारी और माँ की मेरे से क्या अपेक्षा है श्रीकांत?”
“कुछ तो सोचना ही पड़ेगा वैदेही। आख़िरकार इक़लौता बेटा हूँ उनका।” . . . अपनी बात बोलकर श्रीकांत शांत हो गए।
“तुम मुझसे क्या चाहते हो? मरीज़ों की डिलीवरी के हिसाब से मुझे अपना टाइम सेट करना पड़ता है। हमारे बेटे भी अब बड़े हो रहे हैं। उनकी आगे की पढ़ाई व ख़र्चों को भी तो देखना होगा। कहीं बाहर पढ़ने भेजना है तो रुपया चाहिए ही न।”
“रुपया तो मैं भी अब काफ़ी कमा लेता हूँ। आज की परिस्थितियों को देखकर हम दोनों में से किसी एक को कोई न कोई निर्णय लेना ही होगा।”
“कैसा निर्णय?”
“यही . . . हम दोनों में से एक . . . घर को ज़्यादा समय दे और ज़िम्मेदारी सँभाले।”
“तुम सँभाल पाओगे घर की ज़िम्मेदारियाँ? न तो तुमने कभी घर का काम किया है . . . न ही तुम्हें कोई इंटरेस्ट है। अगर हम दोनों सामने खड़े हों . . . तो माँ और पापा को भी अपने सभी काम मेरे से ही करवाने होते हैं। उनको हमेशा से ही अपना बेटा बहू से ज़्यादा थका हुआ दिखाई देता है। बच्चों के स्कूल जाने से लेकर उनकी पढ़ाई अब तक मैंने ही सँभाली है।” . . . वैदेही की नींद अब पूरी तरह ग़ायब हो चुकी थी।
वैदेही की बातों का जवाब दिए बग़ैर श्रीकांत ने अपनी ही बात ज़ारी रखी, “यह तुम्हें सोचना है वैदेही। मैं सोलह से अठारह घंटे काम कर सकता हूँ . . . तुम नहीं कर सकती। अब निर्णय तुम्हें ही लेने है। तुम कहोगी तो मैं अपनी नौकरी छोड़ देता हूँ। अगर तुम्हें लगता है माँ-पापा मेरे हैं . . . तो मुझे ही सोचना चाहिए तो सोच लूँगा। या फिर सोच कर देखो . . .। कुछ सालों की ही तो बात है। तुम अपनी प्रैक्टिस बाद में भी शुरू कर सकती हो।” अपनी बात बोलकर श्रीकांत करवट लेकर लेट गए।
उस रोज़ ख़ुद को घर की चारदीवारी में क़ैद करने का ख़्याल आते ही वैदेही सिहर गई थी। वह मेडिकल की जिस ब्राँच से जुड़ी थी . . . मरीज़ प्रेग्नन्सी के पहले दिन से डिलीवरी तक एक ही डॉक्टर को दिखाना चाहता था। बौख़लाहट में वैदेही अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गई और श्रीकांत से बोली, “श्रीकांत! तुम सो गए हो क्या . . . नींद से उठाकर मेरे से बात शुरू की है . . . तो बात तरीक़े से पूरी भी करो प्लीज़। माँ-पापा तुम्हारे या मेरे क्या होता है। माँ-पापा बस माँ-पापा ही होते हैं।”
वैदेही को श्रीकांत की यह बात आहत कर सकती है . . . उसने नहीं सोचा। तभी पुनः बोला, “वैदेही! बात पूरी हो चुकी है। तुम जो भी निर्णय लोगी मुझे सवेरे बता देना। मैं वैसा ही कर लूँगा।”
थोड़ी ही देर में श्रीकांत के ख़र्राटों की आवाज़ कमरे में गूँजने लगी। वैदेही के दिलो-दिमाग़ पर इस समय ख़र्राटों की आवाज़ हथौड़े के जैसे लग रही थी। श्रीकांत के बात करने का अंदाज़ कुछ ऐसा ही होता था, जब वह अपनी मनमानी करवाना चाहता था।
इतने साल साथ गुज़ारने के बाद वैदेही अक्सर सोच में पड़ जाती . . . अगर दोनों का प्रेम विवाह हुआ था, तो उनके बीच से प्रेम ऐसे मौक़ों पर गुम कहाँ हो जाता था।
अक्सर नींद में वैदेही को मेडिकल कॉलेज वाला समय भी चलचित्र जैसा चलता हुआ दिखता था। जब उनका प्रेम परवान चढ़ा। दोनों प्रेम में सराबोर थे। पर अपने कैरियर और प्रैक्टिस को जमाने के भी असंख्य स्वप्न देखते थे। बग़ैर किसी अड़चन दोनों का विवाह भी हो गया था। शुरू के सालों में जो गायनेकोलॉजिस्ट पत्नी और बहू गर्व का एहसास करवाती थी। समय के साथ ज्यों-ज्यों वह व्यस्त होती गई, घर के लोगों की अपेक्षाएँ उसके समर्पण की घर पर भी ज़्यादा माँग करने लगी।
दोनों एक ही अस्पताल में काम करते थे। श्रीकांत भी जनरल सर्जन था। शुरू के सालों में श्रीकांत के पास मरीज़ नहीं होते थे, क्योंकि किसी भी नए सर्जन के मरीज़ बनने में समय लगता है। जबकि स्त्री-रोग विशेषज्ञ के मरीज़ जल्दी बन जाते हैं। ऐसा ही वैदेही के केस में भी हुआ। वैदेही का शांत व सौम्य व्यवहार मरीज़ों को बहुत राहत देता था।
जिस प्राइवेट अस्पताल में दोनों काम करते थे, उसके मालिक डॉ. कामथ नामी हृदय-रोग विशेषज्ञ थे। वह हमेशा ही वैदेही को बोलते थे, “वैदेही यू आर परफ़ेक्ट फ़ॉर योर प्रॉफेशन . . . योर डेडिकेशन इस रिमार्केएबल।” वैदेही उनकी बात पर मुस्कुरा जाती और अपना बेस्ट देने की कोशिश करती।
शुरू में वैदेही घर और बच्चों को अधिक समय देना चाहती थी। पर श्रीकांत के बहुत मरीज़ न होने से अप्रत्यक्ष रूप से वैदेही पर ज़्यादा घंटे काम करने का दबाव डाला गया था। तभी घर सुचारु रूप से चल सकता था। जब वैदेही का काम बढ़ने लगा . . . सास-ससुर से अनचाही बातें भी सुनने को मिली। जबकि उस समय वह दोनों स्वस्थ थे।
‘हम दोनों तो घर की चौकीदारी कर रहे हैं . . .। तुम दोनों तो होटल के जैसे घर में आते-जाते हो। सारा दिन हमारी आँखें दरवाज़े पर लगी रहती हैं। कब तुम दोनों आओ और घर सँभालो।’
वैदेही को यह सब बातें, मिलकर समाधान न खोजने की वज़ह से आहत करती थीं।
समय अप्रत्याशित होता है। जब पापा को अचानक ही लकवा हो गया तो परिस्थितियाँ और भी बदल गई। साथ में माँ की उलहाना बदल गई।
“तुम लोगों ने पापा के लिए जो स्टाफ रखा है। वह पापा की अस्पष्ट भाषा नहीं समझ पाता तो मुझे ही उसको समझाना पड़ता है। तुम दोनों के आने-जाने का कोई समय तो है नहीं। तो बच्चों के स्कूल से आने के बाद मुझे उनको भी देखना पड़ता है। तुम लोग कम से कम खाने के निर्देश तो अस्पताल से ही दे दिया करो, ताकि मुझे रसोई की चिंता नहीं करनी पड़े। अब मेरे से इस उम्र में इतना कुछ नहीं सँभाला जाता।”
अधिकांशतः वह खाने में क्या बनना है, निर्देश देकर जाती, मगर कभी एमर्जेंसी आने पर बताना छूट भी जाता था। बढ़ती उम्र के साथ सभी को दिक़्क़तें आती हैं, वैदेही बहुत अच्छे से समझती थी। तभी समस्याओं के समाधान खोज़ने की भी कोशिश करती थी। ऐसे में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से मिलने वाली उलाहनाएं उसको पीड़ा देती थीं। पर वैदेही उन कही बातों को मुस्कुरा कर भूलने की कोशिश करती।
कहीं-न-कहीं यह भी सच था कि ज़रूरत से ज़्यादा सुविधाएँ इंसान को आराम तलब बना ही देती हैं।
श्रीकांत ने किसी भी बात पर प्रतिक्रिया न देने का मानस बना रखा था। शायद यह उस समय की ज़रूरत भी थी। अपनी-अपनी प्रैक्टिस को जमाने के लिए बाक़ी बातों से दोनों को ही ध्यान हटाना था।
वैदेही ने भी अपने मुँह पर संस्कारों का बाड़ा बाँध कर रखा था। न सिर्फ़ घर और श्रीकांत को उसके काम की ज़रूरत थी, बल्कि काम करना उसका पैशन भी था। कुछ इस तरह विवाह के बाद पंद्रह साल निकल गए थे। वैदेही का शहर की अच्छी स्त्री-रोग विशेषज्ञों में नाम था।
वैदेही को विवाह के पंद्रह साल बाद श्रीकांत का इस तरह बात करना, बहुत स्वार्थी-सा महसूस हुआ था। पहले उसे बारह-बारह घंटे काम करने दिया। जब घर में ज़रूरत हुई तो मिलकर विकल्प सोचने की बजाय उसकी भावनाओं को आहत किया। जब बातों में थोपने जैसा व्यवहार दिखाई दे, तब इंसान पीड़ा महसूस करता है।
उम्र के इस पड़ाव पर वैदेही कोई कड़ा निर्णय नहीं ले सकती थी, जिससे घर की शान्ति भंग हो, और जब बच्चे अपने-अपने कैरियर बनाने की तैयारियों में लगे हो। उस रोज़ वैदेही को समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ खड़ी है? और उसके साथ कौन-कौन खड़ा है। एक बार को तो उसका सभी रिश्तों से मन उचट गया था।
जिस विवाह की नींव पर सारे रिश्ते खड़े थे, वहाँ शान्ति की क़ीमत क्या हो सकती थी . . . यह वैदेही से बेहतर कोई नहीं समझ सकता था। खूँटे पर बँधी गाय के जैसे उसके हालात थे। ऐसे में कड़े से कड़ा निर्णय एक औरत कितनी जल्दी ले लेती है, वैदेही को ख़ुद पर भी आश्चर्य हुआ।
उसके इतने बड़े फ़ैसले को भी फ़ॉर ग्रांटिड ही ले लिया गया। स्वप्न वैदेही के थे तो उनका मूल्य सिर्फ़ उसके लिए था। तभी तो उनका दर्द वैदेही को सालों-साल गुज़रने के बाद पीड़ा-सा सालता रहा। जब भी उसको एकांत काटने दौड़ता है . . . पीड़ाएँ भी साथ-साथ हावी हो जातीं।
वैदेही की नींद अब पूरी तरह खु़ल चुकी थी। ख़ाली बिस्तर पर असंख्य दर्द और पीड़ाएँ बिखरी पड़ी थीं। ख़ुद को शांत करने के लिए उसे बहुत जतन करने पड़े . . . नहीं तो वह अवसादित हो जाती, या किसी के लिए भी मन से नहीं कर पाती।
रात तीन बजे वैदेही की नींद छूटे हुए स्वप्नों की वज़ह से उचट गई थी। पुरानी बातें सोचते-सोचते अब सवेरे के पाँच बज चुके थे। वैदेही उठकर अपने लिए कॉफ़ी बना लाई थी। आज वैदेही बेड साइड पर बैठकर उन सभी घटनाओं को एक ही बार में दोहरा लेना चाहती थी . . . जो किश्तों में बार-बार आकर उसकी नींद को उचाट देते थे।
वैदेही ने उस दिन अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अपना इस्तीफ़ा डॉ. कामथ को भिजवा दिया था। जब डॉ. कामथ ने वैदेही को फ़ोन करके पूछा तो उसके पास कहने को सिर्फ़ एक ही बात थी, “डॉ. कामथ! हाल-फिलहाल घर को मेरी बहुत ज़रूरत है। सब सेटल होते ही आपके अस्पताल को फिर से जॉइन करूँगी।”
उसकी बातों को सुनकर डॉ. कामथ ने कहा था, “वैदेही! याद रखना गुज़रा हुआ समय फिर से नहीं आता। समस्याओं के समाधान खोज सको तो खोज लो . . . और जल्द ही अस्पताल वापस जॉइन करने की कोशिश करना। यू आर ऑलवेज वेलकम . . .”
“जी ज़रूर . . . थैंक्स . . . आई विल डेफ़िनेटली लेट यू नो . . .”
उस रोज़ पंद्रह साल की मेहनत पर घर की ज़िम्मेदारियाँ भारी पड़ गई थीं। हर महीने दो से तीन लाख रुपए का चैक उठाने वाली वैदेही का अकाउंट बच्चों की पढ़ाई व विभिन्न कामों में ख़र्च हो गया।
एक रोज़ अपनी अलमारी सँभालते हुए जब उसका हाथ अपनी ज़ीरो बैलन्स वाली पास-बुक पर पड़ा तो . . . शब्द गुम हो गए बस आँखों में एक नमी तैर गई। अपने कैरियर से जुड़ा पहला क्रेडिट कार्ड उसने ख़ुद ही श्रीकांत को सौंप दिया था। ख़ुद कमाने का एक एहसास जो वैदेही को आत्मविश्वास देता था, वो उसके क्रेडिट कार्ड के साथ श्रीकांत के पास चला गया था।
बाद में श्रीकांत ने जो भी कमाया उससे जॉइन्ट नेम में घर और बाक़ी निवेश भी किए। आज उसी घर के एक कमरे में वैदेही अकेली बैठी थी। काम करना उसका पैशन था। तभी स्वप्न उसका पीछा नहीं छोड़ते थे। उसकी पढ़ाई, उसके मरीज़, उसका नाम, उसकी मेहनत सब बार-बार आकर उसको जगा देते थे।
जिस रोज़ वैदेही ने अपना निर्णय घर के सभी लोगों को सुनाया। श्रीकांत ने सभी के सामने ख़ुश होकर कहा,
“मैं तुम जैसी पत्नी पाकर बहुत ख़ुश हूँ वैदेही। मुझे तुमसे यही उम्मीद थी। पत्नी हो तो तुम जैसी। जैसे ही बच्चे थोड़ा सेटल हों और माँ-पापा की तबीयत सुधरे तुम वापस जॉइन कर लेना। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।”
श्रीकांत की बात सुनकर वैदेही मुस्कुरा दी थी। वह श्रीकांत से कहना चाहती थी, ‘श्रीकांत! साथ होने के मतलब तुम आजीवन नहीं समझ पाओगे। पंद्रह साल की जमी-जमाई प्रैक्टिस को छोड़ना कितनी पीड़ा देता है, इसका एक प्रतिशत भी तुमने महसूस किया होता तो तुम हर जगह मेरे साथ खड़े हो जाते।’
दरअसल पापा तो हक़ीक़त में बीमार थे, पर माँ ज़िद में वैदेही की माँ बनकर नहीं सोच पाई।
घर की शान्ति को बरक़रार रखने के लिए उसने सालों-साल एक झूठ को अपनी मुस्कुराहट में छिपा कर रखा कि वह अपना करिअर छोड़कर ख़ुश है।
कैसे ख़ुश हो सकती थी वह? जैसे आज उसके बच्चों के स्वप्न उसके लिए बहुमूल्य थे . . . ऐसे ही उसके भी स्वप्नों में उसकी माँ-बाबा का किया हुआ त्याग शामिल था। उसका मेडिकल का इम्तिहान होता या कोई और भी इम्तिहान, माँ सारा-सारा दिन मंत्रों के जाप करती। वह आज जो भी थी . . . अपने माँ-बाबा की वज़ह से थी।
निर्मूल कारणों से पौराणिक वैदेही को ज़मीन में समाना पड़ा था। और इस वैदेही ने ख़ुद अपना कैरियर उन लोगों के लिए ज़मीन में दफ़ना दिया था . . . जिन्होंने उसको डॉक्टर से नर्सिंग स्टाफ़ बना दिया।
‘वैदेही! पापा का बीपी ले लो . . . पापा की ब्लड शुगर कर दो . . . इंसुलिन लगा दो। वैदेही! पापा की मेडिसन का वक़्त हो गया है। जब तुम उनकी दवाइयाँ हाथ पर रखोगी, वह तभी खाएँगे।’
पापा की नर्सिंग केयर व बाक़ी काम सँभालने में कब वक़्त उड़न छू हो जाता, वैदेही को पता ही नहीं चलता।
हालाँकि पापा के लिए एक फ़ुल-टाइम नर्सिंग स्टाफ़ रखा हुआ था। पर जब वह अस्पताल जाती थी . . . तब भी पापा को वैदेही के लौटने पर उसी से अपने काम करवाने होते थे। अब सारा दिन वह घर पर दिखती थी तो सभी की निर्भरता उस पर बढ़ गई थी।
घर पर रहने के बाद वैदेही को बेफ़िजूल की उलहानाओं से तो मुक्ति मिल गई। पर उसका पैशन एक प्रश्नचिन्ह बनकर लटक गया था।
जिस रोज़ वैदेही ने अपना इस्तीफ़ा लिखकर एक महीने का नोटिस देकर अस्पताल भेजा . . . घर में सभी के चेहरे पर मुस्कुराहट की लहर दौड़ गई। पर किसी ने उसके मन की थाह लेने की कोशिश नहीं की।
पापा के लिए रखा हुआ स्टाफ़ पंद्रह दिन की छुट्टी माँग कर अपने गाँव क्या गया तो वापस ही नहीं लौटा। उसके बाद जो भी स्टाफ़ मिले पार्ट-टाइम ही मिले। वैदेही के घर पर होने से फ़ुल-टाइम स्टाफ़ को ढूँढ़ने की कोशिश भी नहीं की गई।
समय के साथ ज़िम्मेदारियों का एक ऐसा चक्र शुरू हुआ . . . जिससे वैदेही अगले दस-बारह सालों तक नहीं निकल सकी। पापा के जाने के बाद मम्मी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। वैदेही को हमेशा उनका संबल बनकर खड़ा रहना पड़ा। लगभग दो साल तक माँ के ऐसे ही हालात रहे। फिर माँ भी चल बसी। इस बीच बच्चे भी अपना-अपना भविष्य बनाने विदेशों को निकल गए। वैदेही भी अब सत्तावन साल की हो चुकी थी।
वैदेही की अपनी भावनाओं का क्रेडिट कार्ड भी, इस बीच न जाने कब और कहाँ गुम हो गया। उसने कभी किसी से फिर कोई अपेक्षा ही नहीं की। बस उसको अपने ज़िंदा होने का एहसास भर रहा। उसका घर में रुकना क्या हुआ कि उसके कैरियर और दिनचर्या पर सबकी अपेक्षाओं ने अपना कब्ज़ा जमा लिया। इन सबके बीच वैदेही का डॉक्टर होना भी कहीं खो गया था।
श्रीकांत एक बार घर से निकलता तो रात को ही थका-हारा प्रवेश करता। पहले एक ही अस्पताल में काम करने से दोनों के पास कोई न कोई बात करने को होती थी। फिर दोनों के बीच बातों पर भी धीर-धीरे पूर्ण-विराम लगता गया।
ख़ुद के कमाने पर वैदेही को बहुत गर्व था। शायद इसी वज़ह से वह ताउम्र कभी भी श्रीकांत से माँग कर रुपया नहीं ले पाई। वैदेही के लिए रुपया कभी प्राथमिकता नहीं थी। तभी उसने अपना कैरियर दाँव पर लगा दिया था।
समय के साथ जब बेटे भी अपनी राहों पर निकल गए। तब श्रीकांत ने वैदेही से कहा, “वैदेही! अब तुम अस्पताल जॉइन कर सकती हो। तुम्हें अभी भी अस्पताल वाले बुला रहे हैं। मम्मी-पापा भी नहीं रहे। अब तुम्हें जॉइन करने का सोचना चाहिए।”
श्रीकांत की बात मानकर वैदेही ने ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार करके अस्पताल जाने का फ़ैसला किया।
वैदेही को अब चौदह साल से अधिक प्रैक्टिस छोड़े हुए हो चुके थे। जब वह पहले दिन अस्पताल पहुँची। वहाँ का वातावरण उसको उत्साहित करने की बजाय डरा रहा था। जो सर्जिकल इन्सट्रूमेंट उसको उत्साह से भर देते थे . . . आज वही ख़ौफ़ दे रहे थे। मुश्किल से आधा घंटे वह अस्पताल में रुक पाई। इस तरह अपना आत्मविश्वास खोते हुए देखकर वैदेही का रोना छूट गया। जब डॉ. कामथ ने उसे रोते हुए देखा तो उसकी मनो:स्थिति को भाँपते हुए बोले, “हिम्मत रखो समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।”
डॉ. कामथ की बातों ने उसे बहुत हौसला दिया। पर वैदेही के हाथ सर्जरी करने के लिए तैयार ही नहीं हो पा रहे थे। डॉ. वैदेही को मारकर, वैदेही की हिम्मत टूट चुकी थी।
फिर अचानक दो महीने पहले ही श्रीकांत भी कार्डियक अरेस्ट से चले गए। एक ख़ौफ़ से वह निकली नहीं थी कि श्रीकांत का अचानक चले जाना उसको बहुत तोड़ गया।
अतीत के पृष्ठ एक बार क्या उलटना शुरू हुए कि वह पलटना ही बंद नहीं कर रहे थे। जिन रिश्तों के लिए उसने अपने फिजिकल और इमोशनल अकाउंट ख़ाली कर दिए थे। वह सब अपनी-अपनी राह निकल गए। साथ में उसका आत्मविश्वास भी ले गए थे। आज बिस्तर पर अकेली पड़ी वैदेही अपने अतीत के पन्नों को बराबर उलट-पलट रही थी।
जीवन में उसने कभी कोई क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल नहीं किया। पर वह ख़ुद क्रेडिट कार्ड के जैसे ताउम्र इस्तेमाल होती रही या ख़ुद को इस्तेमाल करवाती रही। पता नहीं किन जन्मों का कर्ज़ था कि बरसों बरस की मेहनत को छोड़ना पड़ा।
श्रीकांत के अचानक ही चले जाने के बाद उसके क्रेडिट कार्ड्स उसका ही मज़ाक़ उड़ा रहे थे। जिनका बैलन्स ज़ीरो था . . . और उसकी ज़िन्दगी अकेलेपन में गुम़ थी।
किसी के कहे हुए चंद वाक्य क्षणिक सुखों का अनुभव तो करवा सकते हैं, पर इंसान का काम करना उसको जीवंत महसूस करवाता है। यह बात वैदेही बहुत अच्छे से समझ चुकी थी।
वैदेही अब उन ठहरे हुए चौदह-पंद्रह सालों से जुड़े उन स्वप्नों से भी बाहर निकलना चाहती थी . . .। जो उसको रात-रात भर का जागरण करवा देते थे।
बच्चे अपने पास आकर रहने को बोल रहे थे। पर हिंदुस्तान के बाहर जाकर रहना उसको अच्छा नहीं लगता था।
श्रीकांत के रहते हुए उसने अस्पताल का एडमिनिस्ट्रेशन सँभालने का काम शुरू किया था। वो आज भी ज़ारी था ताकि वह मरीज़ों के बीच रहकर उनकी मदद कर सके। मरीज़ों का प्यार व विश्वास ही उसका अकेलापन भर सकता था। वैदेही अपने सोये हुए आत्मविश्वास को फिर से जगाना चाहती थी, ताकि भविष्य में वह सर्जरी भी कर सके। साथ ही वह उन स्वप्नों से भी निकलना चाहती थी . . . जिन्हें परिस्थितियों ने उस पर थोप दिया था।