गोयंका जी का आशीर्वाद: एक लघु संस्मरण 

15-09-2025

गोयंका जी का आशीर्वाद: एक लघु संस्मरण 

डॉ. सोमदत्त काशीनाथ (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

1996 के दिसम्बर महीने में मेरे एक अध्यापक दिल्ली आए थे। उन्हें सभी बच्चे सम्मान और श्रद्धा से ‘गुरुजी’ बुलाते थे। उस समय में बी.ए. हिंदी की पढ़ाई कर रहा था। मैं द्वितीय वर्ष का छात्र था। अपने डेढ़ साल के प्रवास में दिल्ली के काफ़ी स्थानों से परिचित हो गया था। अपने अध्यापक को घुमाने तथा ख़रीदारी करवाने के साथ-साथ मैं उनके साथ उनके कई परिचितों से भी मिलने गया था। डॉ. कमल किशोर गोयंका जी उनके परिचित होने के साथ-साथ उनके अच्छे मित्र भी थे। एक गुरुवार का दिन था। सवेरे-सवेरे आठ बजे छात्रावास के टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मैं अपने दोस्तों के साथ नाश्ता लेने के लिए मैसरूम में बैठा था। नाश्ता लगभग पूरा हो ही गया था। मेरा फ़ीजी के मूल निवासी मित्र, रोबिन आया और उसने कहा कि मेरे लिए फ़ोन आया है। मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा कि क्या सचमुच में मेरे लिए फ़ोन आया है। मैं ने दौड़कर दूरभाष का चोग़ा उठाया और एक ही साँस में पूछा, “हेलो, नमस्ते, आप कौन बोल रहे हैं?” 

गुरुजी जी ने मुझसे कहा, “नमस्ते काशी मैं गुरुजी बोल रहा हूँ। सुनो काशी, आज मैं अपने एक मित्र से मिलने जा रहा हूँ। तुम्हें भी मेरे साथ चलना होगा। मैंने टैक्सी वाले से कह दिया है दो बजे वह आ जाएगा। तुम तैयार रहना।” 

“लेकिन गुरुजी, आपका मित्र कौन है?” मैंने जिज्ञासा भरे स्वर में पूछा। 

गुरुजी ने पूछा कि क्या मैं डॉ. कमल किशोर गोयंका जी से परिचित हूँ और क्या मैंने उनका नाम सुना है? मैंने अपने बालों में अपना हाथ फेरा और कहा कि शायद मैंने उनका नाम सुना है, किन्तु कहाँ सुना है यह याद नहीं है। उन दिनों संचार के माध्यमों का इतना विकास नहीं हुआ था। बस पढ़ने के लिए पत्रिकाएँ और समाचार-पत्र मिलते थे और छात्रावास के कॉमन-रूम की टीवी सूचनाओं का स्रोत बनी हुई थी। एक बार जो आँखों से निकल गया उसे फिर से जाकर देखने की गुंजाइश ही नहीं थी। इसीलिए आँखों के सामने बहुत सी घटनाओं का उल्लेख आता था और बहुत से नाम भी उपस्थित होते थे जो कुछ क्षणों के प्रवास के बाद शून्य में विचरण करने के लिए चले जाते थे। कुछ लौटकर आते थे और कुछ पूरी तरह विस्मृत हो जाते थे। अब भी मुझे लगता है कि शायद मैंने किसी पुस्तकालय में डॉ. कमल किशोर गोयंका जी की पुस्तक देखी होगी या फिर उनके बारे में किसी प्रकाशित लेख में पढ़ा होगा। 

मेरी ख़ामोशी को भंग करती हुई गुरुजी की आवाज़ गूँजी। उन्होंने बताया कि वे पाँच-छह सालों के बाद गोयंका जी से मिलने जा रहे हैं। पिछली बार जब वे मॉरीशस आए थे तब वे घर पर गुरुजी से मिलने आए थे। गोयंका जी ने उन्हें अपनी कुछ पुस्तकें भेंट की थीं। आज वे भी गोयंका जी से मिलकर लगे हाथों उन्हें अपनी कुछ पुस्तकें देना चाहते हैं। फिर उन्होंने मुझसे कहा, “तुमने बताया था कि बारह बजे आज तुम्हारी कक्षाएँ समाप्त हो जाएँगी। यदि तुम तुरंत छात्रावास लौट आओगे, तो दो बजे तक तुम तैयार होकर रहना, मैं तुम्हें लेने आ जाऊँगा।” 

“ठीक है, गुरुजी। मैं तैयार रहूँगा। नमस्ते!” 

उस दिन मैं कक्षा से कुछ जल्दी ही लौट आया था क्योंकि दूसरे पिरियड के प्राध्यापक नहीं आए थे। मैं बारह बजे का भोजन करके तैयार हो गया था। ठंडी का मौसम था। अंतरराष्ट्रीय छात्रावास के आँगन में हरी घास पर बैठकर मैं एक पुस्तक पढ़ते हुए गुरुजी की प्रतीक्षा कर रहा था कि उनकी आवाज़ सुनाई दी और मैं उनके साथ गाड़ी में बैठ एक नई यात्रा पर निकल गया। साहित्य की यात्रा, जो आज तक चल रही है। उनके साथ उनके और दो छात्र थे जिनसे मैं थोड़ा-थोड़ा परिचित था। दोनों प्रथम वर्ष में पढ़ाई कर रहे थे। किन्तु हिंदी नहीं पढ़ रहे थे। एक भारतीय दर्शन पढ़ रहा था और दूसरा समाजशास्त्र। हम बातें करते-करते लगभग तीस-पैंतीस मिनटों की यात्रा के बाद अशोक विहार पहुँच गए। वहाँ कई मकान एक से दिख रहे थे और लगभग सभी गलियाँ भी एक-सी ही दिख रही थीं। किन्तु भारत की संस्कृति में अध्यापकों, पुलिसवालों और आर्मी के लोगों की एक विशेष पहचान और सम्मान होता है। चाहे कोई व्यक्ति अपने पड़ोसी का नाम नहीं जानता हो किन्तु यदि उसके मुहल्ले में कोई अध्यापक, प्राध्यापक, पुलिसवाला या आर्मीवाला रहता हो तो वह निश्चित ही वह पता बताने में सक्षम हो जाता है, या फिर दूसरों से पता पूछते-पूछते हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचा ही देता है।

गोयंका जी का घर ढूँढ़ने में भी हमें अधिक परेशानी नहीं हुई। उनकी प्रतिष्ठा से कौन अपरिचित हो सकता था? वे उस समय घर पर अकेले थे। हमने उनका अभिवादन किया और उन्होंने हमें अपनी बैठक में बिठाया और रसोईघर से चाय और कुछ बिस्कुट लाने चले गए। मैं उनके घर को अंदर से देख रहा था। कितना साफ़-सुथरा, ज़्यादा सामान नहीं, ज़्यादा दिखावा नहीं, बस जिन सामानों की आवश्यकता रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होती है वह थे और जिनकी आवश्यकता नहीं होती है वे नहीं थे! सामने के शैल्फ़ पर पुस्तकें बहुत ही ध्यान से और क्रमबद्ध रूप से रखी गई थीं। प्रायः पुस्तकें हिंदी की ही थीं। कुछ शब्दकोश भी अपने वज़नदार होने का आभास करा रहे थे। जहाँ वे बैठे थे उस सोफ़े की बग़ल में एक छोटी मेज़ खड़ी थी। उसपर भी कुछ पुस्तकें कुछ देर के लिए सुस्ता रही थीं। पास ही अधीरता से झाँकते हुए काग़ज़ के कुछ पन्ने थे, जिनपर कुछ लिखा हुआ था या यूँ कहिए अपने मालिक के द्वारा कुछ लिख जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस समय दूसरे मित्र तो अपने अनुभवों के बारे में गुरुजी को बता रहे थे। 

किन्तु मैं चुप था। मैं देख रहा था। एक साहित्यकार का घर पहली बार देख रहा था। मॉरीशस मैं डॉ. बीरसेन जगासिंह जी के घर ट्यूशन लेने जाता था। वे भी मॉरीशस के जाने-माने साहित्यकार हैं। मुझमें हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित करने वाले प्रथम माली गुरुजी जगासिंह जी ही रहे हैं। किन्तु उस समय मैं एक दूसरी दुनिया का दर्शन कर रहा था और मुझे लग रहा था कि मैं वहाँ से कुछ न कुछ अवश्य लेकर वापस जाऊँगा। एक ऐसी चीज़ जो लंबे समय तक मेरा साथ देगी और मरते दम तक मेरा साथ नहीं छोड़ेगी! 

कुछ देर बाद हमारे सामने ट्रे में चाय की प्यालियाँ और बिस्कुट रखते हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए बताया कि उस दिन उनके घर पर उनके पत्नी और बच्चे नहीं थे, इसीलिए उन्होंने ख़ातिरदारी में कमी के लिए क्षमा माँगी। गुरुजी ने बड़ी विनम्रता से कहा, “हमारे लिए यही बहुत है, डॉक्टर साहब!” 

उन्होंने कहा कि गोयंका जी ने उनसे मिलने के लिए जो थोड़ा समय निकाला है वही बड़ी बात है। गुरुजी ने अपनी पुस्तकें उनकी और बढ़ाते हुए कहा वे अपनी कुछ पुस्तकें लाए हैं जो वे गोयंका जी को भेंट करना चाहते हैं। गोयंका जी ने सहर्ष उनकी पुस्तकों को स्वीकारा और कहा, “आप इसी तरह लिखते रहिए आपकी क़लम ही एक दिन आपकी पहचान बनेगी।” 

बातें करते-करते उन्होंने गुरुजी से हमारे बारे में पूछा। उन्हें लग रहा था कि हम भी मॉरीशस से भारत भ्रमण के लिए गुरुजी के साथ आए हैं। गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा कि हम उनके शिष्य रह चुके हैं और अभी हम दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं। गुरुजी ने पहले अपने दूसरे शिष्यों का परिचय दिया फिर मेरी ओर संकेत करते हुए कहा, “यह मेरा शिष्य काशीनाथ है। किरोड़ी मल कॉलेज में हिंदी ऑनर्स की पढ़ाई कर रहा है।” 

गोयंका जी ने मेरी ओर देखा और बड़ी सादगी से पूछा, “आप तो प्रथम वर्ष के छात्र नहीं लग रहे हैं?” 

“जी आपने ठीक पहचाना सर, मैं द्वितीय वर्ष में हूँ!” उस क्षण मुझे अपने प्रति गोयंका जी का प्रथम संभाषण बड़ा ही आत्मीय लगा। 

“आप अभी कहाँ रह रहे हैं?” 

“मैं अंतरराष्ट्रीय छात्रावास में रह रहा हूँ जो माल रोड पर है, सर।” 

“वहाँ तो प्रायः छात्रवृत्ति-प्राप्त छात्रों को रहने देते हैं और हिंदी के छात्रों को बहुत ही मुश्किल से वहाँ जगह मिलती है। आपको कैसे वहाँ जगह मिल गई?” 

“सर, मैं भी छात्रवृत्ति पर पढ़ने आया हूँ। मैं एच.एस.सी. में हिंदी में प्रथम आया था। इसीलिए भारत सरकार की ओर से मुझे बी.ए. करने के लिए चुना गया है। बी.ए., प्रथम वर्ष में मेरे परीक्षा-फल अच्छे थे तो द्वितीय वर्ष में मुझे अंतरराष्ट्रीय छात्रावास में जगह मिल गई। शायद मेरा सौभाग्य है,” मैंने उत्तर दिया। 

“जीवन में सौभाग्य से कुछ नहीं मिलता है। कुछ भी पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। यह आपके परिश्रम का फल है। क्या आप लिखते भी हैं? हर हिंदी-प्रेमी को हिंदी की सेवा के लिए लिखना चाहिए,” गोयंका जी ने धीमी आवाज़ में कहा। 

“जी सर, जब मैं मॉरीशस में था तब मैं निबंध प्रतियोगिताओं में भाग लेता था। हमारे यहाँ रेडियो पर ‘नया दौर’ कार्यक्रम चलता है। उस कार्यक्रम में मैं नियमित रूप से भाग लेता था। भारतीय उच्चायोग की तरफ़ से मुझे बहुत सी पुस्तकें पुरस्कार और पारितोषिक के रूप में मिली हैं। यहाँ मैं अपने कॉलेज तथा छात्रावास की पत्रिकाओं में छपने के लिए कविताएँ और कहानियाँ लिख रहा हूँ,” मैंने सरल भाव से उत्तर दिया। वास्तव में, उस समय हिंदी साहित्य से अधिक हिंदी भाषा के प्रति उभिरुचि थी। या यूँ कहिए भारतीय भाषाओं के प्रति मेरा विशेष लगाव था। मैंने प्रथम वर्ष से ही स्वाध्याय से हिंदी के साथ-साथ तमिल और बांग्ला भाषाएँ सीखना आरंभ कर दिया। भारतीय भाषाओं में जो विशेष मिठास और विशेष आकर्षण के साथ-साथ अपरिमित ज्ञान-वैभव है उनका मैं रसास्वादन करना चाहता था। 

“यह तो बहुत अच्छी बात है। आप इसी प्रकार लिखते रहिए। चाहे बदले में कुछ मिले या न मिले। साहित्य की सेवा में जो जितनी निष्ठा दिखाता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। मेरा आशीर्वाद आपके साथ है। एक दिन आपकी पुस्तकें भी पुरस्कृत होगी। बस निरंतर मेहनत करते रहिए। और जिस दिन आपकी पुस्तकें पुरस्कार के रूप में दी जाएगा समझना आपकी साधना की सिद्धि हो गई।” 

“धन्यवाद सर, मैं लिखने का प्रयास करूँगा,” उस समय मैंने अनमने भाव से ही कह दिया था। 

“प्रयास नहीं, आपको पूरे विश्वास के साथ कहना चाहिए, “मैं लिखूँगा!” तभी आपके उद्देश्य की पूर्ति होगी और मेरे भी उद्देश्य की पूर्ति होगी।” उनकी आवाज़ में न जाने कहाँ से एकाएक आत्मविश्वास जगाने की शक्ति आ गई थी। किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों कहा था यह मुझे बहुत बाद में उसका आभास हुआ। लगभग बीस सील बाद! 

मेरे साथ किए गए इस संबोधन के बाद वे पुनः गुरुजी से बातें करने लगे। मैं कभी उनकी ओर देख रहा था तो कभी उनकी बैठक में रखी हुईं उनकी पुस्तकों की ओर। मैंने ध्यान से देखा, उनमें से कई पुस्तकों के रचयिता स्वयं डॉ. कमल किशोर गोयंका ही थे। इतने बड़े लेखक और इतना साधारण व्यक्ति। वे आजीवन एक साधारण व्यक्ति के सामान व्यवहार करते रहे किन्तु एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी बन गए। कुछ साल बाद जब विश्व हिंदी सम्मेलन में वे मॉरीशस आए थे, तब उनसे मिलने का मौक़ा मिला किन्तु भारत सरकार के अधिकारी के रूप में आए डॉ. कमल किशोर गयंका जी से उस समय बात करने का अवसर नहीं मिला। वे बहुत व्यस्त थे। मॉरीशस के उपन्यास सम्राट् डॉ. अभिमन्यु अनत जी के निधन के बाद एक दिन अचानक गोयंका जी की ओर से एक इमेल प्राप्त हुआ। उसमें उन्होंने अपना नंबर भेजा था और उन्हें कॉल करने के लिए कहा था। मैंने उन्हें कॉल किया, “हेलो, नमस्कार सर।” 

“नमस्कार काशीनाथ जी।” 

“आपको मेरा नाम याद है, सर। क्या आपको याद है लगभग बीस साल पहले मैं गुरुजी बिदेसी जी के साथ आपसे मिलने आया था?” मैंने जिज्ञासा व्यक्त किया। 

“हाँ, मुझे याद है। उम्र के साथ कुछ बातें भूल जाता हूँ किन्तु लोगों को उच्छी तरह याद रखता हूँ,” उनकी आवाज़ में कुछ थकावट थी और गति में कुछ धीमापन आ गया था। 

समय ने भी तो पिछली और इस घटना के बीच बीस काल का अंतराल लाकर खड़ा कर दिया था। मैं भी तो बदल गया था इसमें उनका भी बदलना स्वाभाविक ही था। और आवाज़ भी तो उम्र के साथ ढलती रहती है। किन्तु उम्र के साथ बुद्धि की परिपक्वता कुछ ही लोगों में परिलक्षित होती है। और डॉ. कमल किशार गोयंका जी में यह परिपक्वता निरंतर परिलक्षित होती ही रही है। मैंने कुछ सोचकर कहा, “सर, मेरे लिए आज भी सौभाग्य की बात है कि आपको मैं आज भी याद हूँ।” 

मेरी बात सुनकर उनकी एक हल्की सी हँसी सुनाई दी और उन्होंने कहा, “आप शायद भूल गए। मैंने आपको बताया था। यह आपका भाग्य नहीं आपका परिश्रम है!” 

“मैंने तो कुछ ऐसा बड़ा काम नहीं किया है, सर!” मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा। मैं सोच में पड़ गया था। 

“आप क्या कर रहे हैं और क्या नहीं कर रहे हैं, इसपर नज़र मैं यहीं पर बैठे-बैठे रख रहा हूँ। आप हिंदी के लिए जो काम कर रहे हैं वह सराहनीय है। मुझे आपसे एक सहयोग चाहिए।” 

“जी सर, कहिए। यदि मैं कर सकूँगा तो करूँगा। कहिए क्या आज्ञा है!” मैंने धीरे से पूछा। 

“मैं फिर से कह रहा हूँ। आत्मविश्वास हो तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है। आप कर पाएँगे इतना मुझे विश्वास है, इसीलिए तो मैं आपसे कह रहा हूँ। हम ‘प्रवासी जगत’ पत्रिका में अभिमन्यु अनत विशेषांक छाप रहे हैं। आपको अभिमन्यु अनत जी पर एक संस्मरण लिखना होगा।” 

“लेकिन सर, मैं तो केवल कविताएँ और कहानियाँ लिखता हूँ। संस्मरण लिखने में मैं सिद्धहस्त नहीं हूँ। मुझे नहीं लगता कि मैं यह कर पाऊँगा,” मैंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा। 

“मैं कह रहा हूँ। लिखना आपका काम है और सुधारना मेरा काम है। बाक़ी सब आपके द्वारा किए गए परिश्रम पर निर्भर होगा,” उनकी आवाज़ में वही बीस साल पूर्व वाली तेज आ गया था। “आपने विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका में जो संस्मरण छपवाया है मैंने पढ़ा है। इसीलिए मुझे विश्वास है कि आप यह काम कर पाएँगे।” 

“ठीक है सर। आपका आशीर्वाद मेरे साथ है तो मैं कर लूँगा।” 

“वह तो आपको बीस साल पहले ही दे दिया था। अब आपको उस आशीर्वाद को फलीभूत करके दिखाना है। अच्छा बाद में बात करेंगे। मैं फ़ोन रखता हूँ।” 

“ठीक है सर, नमस्कार!” 

“नमस्कार!” 

मैंने डॉ. अभिनन्यु अनत जी पर संस्मरण ‘साहित्य-प्रेमी एवं साहित्यकार का संसर्ग’ शीर्षक लिखकर गोयंका जी को उन्हीं के ईमेल पते पर भेज दिया। कुछ दिनों मैंने इस घटना को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया था। तीन-चार महीने बाद पुनः गोयंका जी का ईमेल आया। उसमें लिखा था, “बधाई हो! आपके द्वारा रचित संस्मरण छप गया है। आपको ‘प्रवासी जगत’ पत्रिका ईमेल द्वारा भेज रहा हूँ। आपके साथ मेरा आशीर्वाद है। लिखते रहिएगा। याद रखिएगा, यहाँ साहित्यकार को बनी बनाई जगह नहीं मिलती उसे बनानी पड़ती है। आपने साहित्य-सेवा का जो मार्ग चुना है उसमें एक दिन आपको सफलता अवश्य मिलेगी। आपके यहाँ से नहीं तो कहीं और से मिलेगी। मेरी इस बात को सदा याद रखिएगा।” 

उसके बाद गोयंका जी से बातें नहीं हो पाईं परन्तु उनकी कही गईं बातों का स्मरण अवश्य होता रहा। विशेषकर उनके मुख से निकले आशीर्वचन संघर्ष के पलों में प्रतिगुंजित होते रहते हैं। हमारे बड़े लोगों ने सही कहा है कि यदि कोई दिल से आशीर्वाद देता है तो उसका परिणाम अवश्य एक दिन दिखता ही है। उनका आशीष साकार होता ही है। बस विश्वास, लगन और मेहनत की आवश्यकता होती है। इस में कोई संदेह नहीं कि जिन लोगों की प्रेरणा से आज मैं लिख रहा हूँ उनमें से एक प्रेरणास्रोत निश्चय ही डॉ. कमल किशोर गोयंका जी हैं। उनका दिया हुआ आशीर्वाद आज भी मुझे साहित्य सृजन की ओर खींचता रहता है। 

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