गिरीश कर्नाड और रक्तकल्याण नाटक

01-08-2023

गिरीश कर्नाड और रक्तकल्याण नाटक

डॉ. लता सुमंत (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

गिरीश कर्नाड भारत के जाने–माने समकालीन लेखक, अभिनेता, फ़िल्म निर्देशक और नाटककार थे। कन्नड़ और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में उनकी लेखनी समान अधिकार से चलती थी। 1998 में ज्ञान पीठ सहित पद्मश्री व पद्मभूषण जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों के विजेता साहित्यकार माने जाते हैं। इनके तुगलक, हयवदन, रक्तकल्याण, नागमंडल, व ययाति जैसे नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुए और भारत की अनेक भाषाओं में इनका अनुवाद एवं मंचन हुआ है। प्रमुख भारतीय निर्देशकों में इब्राहीम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविंद गौड़ और ब.व. कारान्त ने इनका अलग–अलग प्रभावी व यादगार निर्देशन तरीक़े से निर्देशन किया। मूल कन्नड़ भाषा में ‘तलेदंड’ इस नाटक का प्रयोग कर्नाटक के ‘नाटक रंगायन’ ने 1989 में बंगलोर में किया था। सवोत्कृष्ट नाटक का संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार भी उन्हें इस नाटक के लिए दिया गया।

1989 में मंदिर मण्डल की पृष्ठभूमि में लिखा गया नाटक भक्ति आंदोलन के दौरान 12वीं शती ईसवी में मौजूदा समय की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति तथा दक्षिणी भारत के बीच समानांतर रेखा खींचता है। आठ सौ साल पहले के शहर में कल्याण बसवन्ना नामक एक व्यक्ति ने कवियों, मनीषियों, सामाजिक क्रांतिकारियों और दार्शनिकों की एक मंडली को इकट्ठा किया, जो कर्नाटक के इतिहास में रचनात्मकता और सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए बेजोड़ था। उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया, मंदिर पूजा को ख़ारिज कर दिया, लिंग की समानता को बरक़रार रखा और जाती व्यवस्था की निंदा की। लेकिन तब एक घटना ने हिंसक मोड़ ले लिया जब उन्होंने अपनी मान्यता पर काम किया और एक ब्राह्मण लड़की ने एक निम्न जाति के लड़के से शादी कर ली। आंदोलन रक्तपात में समाप्त हुआ।

‘रक्तकल्याण’ नाटक कुछ हफ़्तों से संबंधित है, जिसके दौरान एक जीवंत, समृद्ध समाज अराजकता और आतंक में डूब गया था। हिन्दी में इसे रक्तकल्याण के नाम से जाना जाता है जिसका अनुवाद रामगोपाल बजाज ने किया है। ‘तलेदण्ड’ कन्नड़ भाषा का एक नाटक है जिसके लिए गिरीश कर्नाड जी को 1994 में कन्नड़ भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

‘तलेदण्ड’ त्रिअंकी नाटक है। उसमें पंद्रह दृश्य हैं। मुख्य पात्र-31, और गौण पात्र-9 हैं। इस प्रकार इस नाटक में 40 पात्र हैं। उसमें बसवन्णा, बीज्जाल राजा, महारानी रंभावती, राजपुत्र सोविदेव, शरणा जगदेव, सलाहकार मनचन्णा, गंगाबिक पत्नी, दामोदर भट्ट राजपुरोहित, अंगरक्षक कल्लपा, शरण मधुबरस, कल्लपा ये कुछ प्रमुख पात्र हैं। संत बसवेश्वर क्रांतिकारी और राज्य में अराजकता, विद्रोह तथा राजा बीज्जल की हत्या पर ये नाटक आधारित है। परंपरागत शैव धर्म के अनुयायी पंडित संभाशिव शास्त्री की मरणासन्न अवस्था से इस नाटक का आरंभ होता है। उनका पुत्र जगदेव संत बसेश्वर ने स्थापित किए वीर–शैव पंथ का अनुयायी है। पहले दृश्य में ही राजा बिज्जल की दहशत के दर्शन कुछ पात्रों के उल्लेख द्वारा होता है। इसके अलावा उस काल की जाति व्यवस्था और वर्णभेद के भी दर्शन होते हैं। जगदेव अपने साथीदार को मल्ली को घर में लाना चाहता है परन्तु वह निम्न जाति का है अतः घरवाले और पड़ौसी उसका विरोध करते हैं। इस दृश्य आरंभ में ही राजा बिज्जल और राजभंडारी खजांची बसवेश्वर नगर के बाहर थे तब राजपुत्र सोविदेव के षड्यंत्र द्वारा राजभंडार खोले जाने की सूचना मिलती है।

इस घटना का विरोध करने के लिए बसवा के अनुयायी मोर्चा निकलते हैं। संत बासवेश्वर विरुद्ध रचे गए इस षड्यंत्र की जानकारी मिलती है। उसमें राजदरबर के उच्चा वर्णियों का समावेश है इस बात का ख़ुलासा गिरीश कर्नाड करते हैं।

दूसरा दृश्य राजा बिज्जल के अंतःपुर का है। राजपुत्र सोविदेव बसवेश्वर के विरुद्ध राजा के कान भरता है। बसवेश्वर ठग है, भ्रष्टाचारी है। उसने राजभंडार से 1लाख 30 हज़ार मुद्राएँ चुराई हैं ऐसा आरोप करता है। यह षड्यंत्र सोविदेव को अपने झाँसे में लेकर राजपुजारी दामोदर भट्ट रचता है। परन्तु बसवेश्वर की प्रामाणिकता पर, उसकी नैतिकता पर राजा बिज्जल का विश्वास अटल है जबकि वही सोविदेव को फटकार लगाता है और साड़ी–चोली की शिक्षा सुनाता है। इस दृश्य में राजा बिज्जल और बसवेश्वर के सम्बन्धों पर और उनके विचारों पर लेखक ने मुख्य रूप से प्रकाश डाला है। राजा बिज्जल नाई है इस बात की जानकारी राजा बिज्जल ही देता है। इसके अलावा राजा बसवेश्वर की प्रशंसा में उसके अनेक पहलू प्रकाशित होते हैं।

बाद के दृश्य में राजा का अन्य सलाहकार राजपुरोहित मनचन्ना ख़ुशामद से राजा बिज्जल को नए ख़िताब देता है। ये सारे ख़िताब संस्कृत में हैं। उसके लिए राजा बिज्जल बसवेश्वर को उनका मत पूछते हैं। वे लोकभाषा के महान विद्वान थे। तब राजा बिज्जल से कहते हैं—‘महाराज, अगर इसमे संस्कृत का उपयोग कम करके लोकभाषा का उपयोग अधिक होता तो महाराज का गौरव अधिक बढ़ जाता। इससे लोकभाषा और मातृभाषा विषयी संत बसवेश्वर का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।’ मनचन्ना केवल संस्कृत को देवी और गरिमायुक्त भाषा मानकर लोकभाषा की उपेक्षा करता है। बसवेश्वर निडर, स्पष्टवक्ता और सत्यवचनी है। उस समय में बसवेश्वर के 1 लाख 96 हज़ार अनुयायी थे ये जानकारी मनचन्ना और दामोदर भट्ट के संवादों से प्राप्त होती है। अगले दृश्य में संत बसवेश्वर चमत्कारों का निषेध करते हैं। अपने अनुयायी जगदेव के पिता संभाशिव शास्त्री के निधन होने पर वे उनके घर जाते हैं। तब लिंगायत-वीर शैव से दीक्षित जगदेव सारे ब्राह्मणी कर्मकांड करता है, जिसका विरोध बसवेश्वर हमेशा से करते आए थे। उसी दौरान मंडूर गाँव में जैन और लिंगायत में हिंसात्मक संघर्ष शुरू होता है। तब वे वहाँ जाकर हिंसा का विरोध करते हैं।

दूसरे अंक में ब्राह्मण मधुबरस और चमार हरल्य्या की संतानों के अंतरजातीय विवाह का प्रसंग है। एक तरह से नाटक का यर प्रसंग अनेक रूप से महत्त्वपूर्ण है। उस कल की ये क्रांतिकारी घटना है। इस विवाह का ब्राह्मण प्रचंड विरोध करते हैं। राजा बिज्जल तक बसवेश्वर की विद्रोही फ़रियाद पहुँचती है। राजा बिज्जल को भी ये पसंद न था मगर विवाह का विरोध करने पर उसके अनुयायी भी विद्रोह करेंगे। इस विषय को लेकर दोनों में कई बार संघर्ष होता है। ये घटना नाटक का सुवर्ण प्रसंग है। राजा बिज्जल अंतर से तो बसवेश्वर के निर्णय का स्वागत करते हैं मगर राजकीय और धार्मिक दृष्टि से उसका विरोध करना आवश्यक हो जाता है। आंतरजातीय–आंतरवर्णिय विवाह के लिए राजा बिज्जल बसवेश्वर के पक्ष में हैं, इस बात का पता चलते ही मंचन्ना, दामोदर भट्ट, सोविदेव और पारंपरिक शैव ब्राह्मण राजा बिज्जल के विरोध में धोके से उनको बंदी बना लेते हैं। यहाँ दूसरा अंक समाप्त होता है।

इस समग्र सूत्र का मुख्य सूत्रधार राजपुरोहित दामोदर भट्ट होता है। जो राजपुत्र सोविदेव को मोहरा बनाकर बिज्जल की सत्ता उलट देता है और सोविदेव का राज्याभिषेक करता है। इस अंक में धर्म, नैतिकता और राजनीति के अनेक प्रश्न नाटककर ने खड़े किए हैं। इसी दौरान मधुबरस और हरलय्या को पकड़ लिया जाता है। उनकी आँखें निकालकर उन्हें हाथी के पैरो तले कुचलकर उनकी हत्या कर दी जाती है। इसके बदले में जगदेव बदला लेने की शपथ लेता है और उसके साथी हमला कर देते हैं। इस बात का पता चलते ही सोविदेव और दामोदर भट्ट भाग जाते हैं। उनके हाथों निराश, हतबल, नज़रबन्द राजा बिज्जल मिलता है। बदले की आग से दग्ध जगदेव तलवार से बिज्जल का ख़ून करता है और बाद में ख़ुद भी हताशा में आत्महत्या कर लेता है। नगर में अफ़रा-तफ़री का माहौल छा जाता है। एक सैनिक दामोदर भट्ट की हत्या कर देता है। सोविदेव मनचन्ना की मदद से सारे अनुयायियों का ख़ात्मा करने का आदेश देता है। इसी रक्तपात में मनचन्ना सोविदेव का पुनः राज्याभिषेक करता है। बसवेश्वर इस घटना से स्तब्ध और क्षुब्ध हो जाता है। अपने ही शरणार्थियों के हाथों राजा बिज्जल की हत्या हो जाती है। वे व्यथित होते हैं और कहते हैं—किसका नाम और किसका चेहरा? किसका घाव और किसका ख़ून? ये तो मेरा प्रेत है। मैं ही राजा का ख़ूनी हूँ। बसवेश्वर आत्मदग्ध होते हैं। यहाँ नाटक समाप्त होता है। यह शोकात्मक-अंत बहुत कुछ बोलता है।

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