गीतसागर के अनमोल मोती!–001–एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . .

15-07-2023
  • आर.डी. बर्मन
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  • संजय लीला भंसाली
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  • जावेद अख़्तर
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  • कुमार सोनू
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  • विधु विनोद चोपड़ा
    विधु विनोद चोपड़ा

गीतसागर के अनमोल मोती!–001–एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . .

सलिल दलाल  (अंक: 233, जुलाई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

गीतसागर के अनमोल मोती!– 001

“एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . .”

 

‘1942 ए लव स्टोरी’ का यह गाना “एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . .” एक से अधिक कारणों से फ़िल्म के गानों के चलचित्रण के इतिहास में एक अविस्मरणीय कृति के रूप में सामने आता है। वह ‘1942 . . .’ को जिनियस संगीतकार आर.डी. बर्मन की अप्रतिम टेलेन्ट के सम्मान के रूप में भी याद किया जायेगा; जो उन्हें जीवन-भर प्राप्त नहीं हुआ था और जो उन्हें मरणोपरांत दिया गया। जैसा कि सभी संगीतप्रेमी जानते हैं, ‘1942 . . .’ का संगीत रिलीज़ होने से कुछ महीने पहले ही पंचमदा का देहावसान हो गया था। इस लिये जिस तरह मीनाकुमारी ‘पाकीज़ा’ की सफलता देखने के लिए सदेह मौजूद नहीं थीं, उसी तरह 1992-93 में कई फ़्लॉप फ़िल्में देने के बाद ‘पंचम’ अपने संगीत को फिर एक बार ‘सुपरहिट’ होता देखने के लिए मौजूद नहीं थे। इस गाने के गीतकार जावेद अख़्तर ने इससे पहले ‘सिलसिला’ और ‘साथ-साथ’ जैसी फ़िल्मों में गाने लिखे थे। ‘तेज़ाब’ में भी अत्यंत लोकप्रिय गाना ‘एक दो तीन . . .’ लिखा था, जिस में अंकों से कविता का नया प्रयोग था। परन्तु,  ‘1942 ए लव स्टोरी’ के गीतों की अभूतपूर्व सफलता के बाद, उन्होंने ख़ुद को सच्चे अर्थों में ‘गीतकार’ के रूप में स्थापित किया। अन्य सभी गीतों में भी शब्दों पर उनकी महारत दिखती ही थी; परन्तु, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . . ’ में साहित्य की दृष्टि से एक प्रयोग भी हुआ था। 

‘एक लड़की को देखा . . .’ में फ़िल्मी गानों के पारंपरिक ढाँचे को छोड़कर (और तोड़कर भी!) जावेद साहब ने पूरे गीत में ‘अंतरा’ ही नहीं लिखा! मतलब सिर्फ़ मुखड़े के साथ रचा गया हिंदी फ़िल्म-संगीत का शायद पहला गाना होगा। (वैसे भी जब नायिका की ख़ूबसूरती की बात होती है तो सबसे पहले उसका ‘मुखड़ा’ ही दिमाग़ में आता है, ना?) इस गाने से गायक कुमार सानू ने भी एक नया इतिहास रचा था। उन्हें इस गीत के लिए जब ‘फ़िल्मफ़ेयर’ पुरस्कार मिला तो वे पहले पार्श्व गायक बने जिन्हें लगातार पाँच साल (1991 से 1995 तक) उस एवार्ड से सम्मानित होने वाले प्रथम कलाकार बने थे। लेकिन संगीत के हर पहलू से यादगार होने के अलावा निर्देशन के लिहाज़ से भी यह गाना ‘ऐतिहासिक’ कहा जा सकता है। 

इस फ़िल्म के डायरेक्टर विधु विनोद चोपड़ा थे और फिर भी उन्होंने गाने डायरेक्ट नहीं किये थे। गीतों का निर्देशन उनके तत्कालीन सहायक और आज के संवेदनशील और सृजनात्मक निर्देशकों में से एक संजय लीला भंसाली ने किया था। ये कोई ‘गोसिप’ नहीं है। एक हक़ीक़त है। विनोद चोपड़ा ने फ़िल्म के टाइटल में भी इसी तरह का ‘क्रेडिट’ दिया है। यह एक दुर्लभ घटना थी जो हिंदी फ़िल्मों में पहले कभी नहीं हुई थी। संजय लीला भंसाली को पिक्चर के टाइटल्स में ‘गाने के निर्देशक’ के रूप में विधिवत पहचान मिली! एक तरह से ‘निर्देशक’ के रूप में संजयभाई का यह पहला काम था जो हिन्दी के मुहावरे ‘होनहार बिरवान के होते चिकने पात’ का जीता-जागता नमूना था। स्वाभाविक था कि एक एसिस्टेन्ट डाइरेक्टर के बेमिसाल काम पर फ़िल्म उद्योग को ध्यान देना ही पड़ा। (कुछ लोग तो उन दिनों में यह भी पूछते थे कि यदि आप ‘1942 . . .’ के बेहतरीन ढंग से फ़िल्माए गए गानों को हटा दो तो लोकप्रियता के लिए उसमें बचेगा क्या?) 

‘1942 . . .’ संजय लीला भंसाली को अपनी क्रिएटिविटी के अतुलित भंडार को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने का एक अनमोल अवसर था और उन्होंने उस मौक़े को दोनों हाथों से पकड़कर इस गीत में उस ख़जाने को पूरी तरह से उड़ेल दिया। उन्होंने फ़िल्मों में जिसे ‘कट टू’ कहा जाता है, उसकी कितनी ख़ूबसूरत झलकियाँ इस गाने में दिखाईं। ‘कट टू’ का उपयोग कहानी दिखाते समय एक दृश्य से दूसरे दृश्य को खोलने के लिए किया जाता था, अभी भी होता है। लेकिन गाने में? और वो भी इतने चमत्कारों के साथ? वैसे तो यह गाना फ़िल्मों की एक परंपरागत स्थिति में आता है। हमारी फ़िल्मों में नायिका के प्रवेश के साथ ही उसके सौंदर्य से अभिभूत नायक का ‘पहली नज़र में प्यार’ वाला रुटीन पहले भी कई बार आया था। जैसे ‘पाकीज़ा’ का वो संवाद “आपके पाँव देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा। वर्ना मैले हो जाएँगे।” लेकिन सृजनशील संजय ने इसके फ़िल्मांकन की पृष्ठभूमि कैसे तैयार की होगी? (याद रहे, फ़िल्म के ‘स्क्रीन’ लेखन में भी, संजय का नाम आता है, और इसलिए यह मान लेना सुरक्षित होगा कि गाने कहाँ और किन परिस्थितियों में रखे जाने चाहिएँ; उसकी ‘स्क्रिप्ट राइटिंग’ में भी संजय का ‘हाथ’ होगा!) 

जब यह गाना ‘एक लड़की को देखा तो . . .’ फ़िल्म में आता है उस से पहले ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के सत्याग्रहियों पर पुलिस दमन का दृश्य है। नायिका मनीषा कोइराला सत्याग्रहियों का मार्गदर्शन करने आये अनुपम खेर की बड़ी, मिनीबस जैसी, कार में हैं और नायक अनिल कपूर अँग्रेज़ों के समर्थक (पिट्ठू) ‘दीवान साहब’ मनोहर सिंह की सरकारी कार में आराम से बैठा है . . . बल्कि सो रहा है। सत्याग्रहियों पर पुलिस की बर्बरता में उस बच्चे को पुलिस ने बन्दूक की बट से मारा, जिसने चरखे के निशान वाला कांग्रेस का तिरंगा झंडा ज़मीन पर गिरने से पहले उठा लिया था। ‘दीवान साहब’ का ड्राइवर ‘मनोहर’ (रघुवीर यादव) उसे अनिल को दिखाता है और अनिल मौक़ा-ए-वारदात की ओर भागता है! वह बच्चे को बचाता है। लेकिन पथराव में बड़ी कार का शीशा टूट जाता है और उसमें से मनीषा का चेहरा प्रकट हो जाता है। यहाँ ‘आर. डी.’ के कमाल को कितने लोग भूल सके होंगे? 

पंचमदा ने मनीषा के ख़ूबसूरत चेहरे को आते ही बाँसुरी का जो छोटा सा टुकड़ा बजवाया था, वो आज भी हमारे रोम-रोम में व्याप्त है! इसमें कोई आश्चर्य नहीं था कि फ़्लूट की वह संवेदनशील तर्ज़ फ़िल्म की ‘सिग्नेचर ट्यून’ बन गई, जो एक से अधिक दृश्यों में बजती है। मनीषा का चेहरा अनिल कपूर देखते हैं और देखते ही रह जाते हैं। पथराव, शोर, हंगामा, कुछ भी पता या सुनाई नहीं देता है। लड़की की आँखों की झलकियाँ और अचानक वो दिलकश चेहरा ग़ायब! बाँसुरी की धुन, जो अब तक सिर्फ़ अनिल को सुनाई दे रही थी, तत्काल बंद हो गई और वहाँ का शोर-शराबा फिर कानों में आना शुरू हो गया। 

नायक ‘नरेन’ (अनिल कपूर) अपने ड्राइवर ‘मनोहर’ को उस हसीना का वर्णन क रने की कोशिश करते हुए कहता है, “उसको देखा तो ऐसा लगा . . . ऐसा लगा . . .” और ड्राइवर कहता है,  अभी घर जाओ, सोचो पूरी रात कि वो कैसी लगी और सुबह बताना . . .” और एक सीधा शॉट ‘कट टू’ सवेरे जागते हुए अनिल कपूर के बिस्तर पर। संगीत के अद्भुत ताल पर गाना शुरू होता है। इधर अनिल एक ख़ूबसूरत अनजान लड़की के ख़्याल से ख़ुश है तो दूसरी तरफ़ वही यौवना मनीषा कोइराला, अपने घर पर सवेरे की अँगड़ाई लेती खड़ी है! हीरो अपनी कल्पना को डोर देते हुए गाना शुरू करता है . . . 

होऽऽऽ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे खिलता गुलाब
जैसे शायर का ख़्वाब
जैसे उजली किरन
जैसे बन में हिरन
जैसे चाँदनी रात
जैसे नग्मे की बात
जैसे मंदिरमें हो इक जलता दिया

इन शब्दों के चित्रांकन में मनीषा को संजय लीला भंसाली ने कितने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है! नायिका द्वारा सुबह-सुबह पानी छिड़क कर अपना चेहरा धोने का ऐसा ग्लेमरस चित्रण कम ही देखा गया था। खिड़की से बाहर निकलते समय धीमी गति में पानी के छींटों को आकर्षक बनाना। जिस फ़्रेम में मनीषा खिलखिलाती नज़र आ रही हैं, उसमें भी ‘स्लो मोशन’ का इस्तेमाल किया गया है। फिर पूरे गाने में मनीषा ज़्यादातर ‘स्लो मोशन’ में ही नज़र आती है। ‘जैसे नरमी की बात’ शब्दों के बाद अनिल नरम तकिया फाड़ देता है और उसमें से छोटे-छोटे पंख उड़ते हैं . . . और फिर ‘कट टू’ शॉट जिस में ऐसा ही एक पंख मनीषा की हथेली में भी होता है! मनीषा भी धीमी गति के चित्रांकन में उस पंख को उतनी ही कोमलता से उड़ाती है। अगले सीन में भेड़ों का झुंड और आम पहाड़ी देहाती दिनचर्या की तरह लाठी लेकर उन्हें भगाने के लिए दौड़ती मनीषा। दूसरी ओर, सत्याग्राहियों का मशाल जुलूस प्रभात फेरी के लिए निकला था; शायद उस जुलूस का ‘ट्रैफ़िक क्लियर’ करने के लिए मनीषा भेड़ों के झुंड के साथ वहाँ मौजूद हैं। ‘जैसे मंदिर में हो इक जल ता दिया’ पंक्ति बजती है और मनीषा दीपक जलाकर मंदिर में शंख फूँकती और घंटी बजाती नज़र आती है और नायक ‘जैसे सुबहो का रूप’ गाता है! 

यहाँ तथाकथित दूसरे अंतरे या भाग में जावेद नायिका की झलक में “जैसे सर्दी की धूप” का प्रयोग कर प्रकृति के एक विशिष्ट रंग को अपनी उपमा में लाते हैं। सामान्यतः दोपहर की धूप परेशान करने वाली होती है लेकिन सर्दी के मौसम की सुबह की गुनगुनी धूप कितनी मीठी गर्माहट देती है . . . ऐसी ही है ये लड़की। शब्द सुनिए और फ़िल्मांकन देखिए . . . 

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे सुबहो का रूप
जैसे सर्दी की धूप
जैसे वीणा की तान
जैसे रंगों की जान
जैसे बलखाये बेल
जैसे लहरों का खेल
जैसे ख़ुश्बू लिये आये ठंडी हवा

यदि ‘वीणा की तान’ शब्द आने पर संजय लीला भंसाली वास्तव में ‘वीणा’ बजाते, तो उनमें और अन्य निर्देशकों के बीच में क्या अंतर रह जाता? उन्होंने नायिका के सुबह उठने और दैनिक दिनचर्या करने के हाव-भाव को लिया और उन्हें इन शब्दों के साथ जोड़ दिया! इस लिये, ‘वीणा की तान’ के दौरान मनीषा द्वारा शंख बजाने का सीन और ‘रंगों की जान’ के वक़्त मंदिर में शिवलिंग पर गुलाल छिड़कते हुए दिखाया गया। लेकिन अब शब्द थे ‘जैसे बल खाये बेल’ शायद उसका मतलब था कि ख़ुद “प्रकृति भी अलसा रही है!” अब उन शब्दों का निर्देशक क्या करे? इस गाने को गाते हुए अनिल कपूर जिस पहाड़ी रास्ते से गुज़र रहे हैं, उसके साइड व्यू में एक मुड़ता हुआ टेढ़ा-मेढ़ा हरा-भरा विस्तार दिखता है। उस में ‘बल खाए बेल’ के अलावा, लहरों का खेल’ शब्दों को दर्शाया गया है। उस प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ ‘जैसे ख़ुशबू लिए ऐ आये ठंडी हवा’ ये शब्द भी सटीक बैठते थे। लेकिन संजयजी कट-टू कर के कैमेरा ले जाते हैं नायिका पर जो चूल्हे में ‘हवा’ फूँकती नज़र आती है। मतलब वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त है और हीरो? उसे खोजने के लिए जैसे सफ़र किया करता है, वह संजयजी की सृजनशीलता की शायद पराकाष्ठा थी। वह आने वाले फ़िल्मकारों को नया रास्ता दिखाने वाली थी। अब तो इस ढंग के फ़िल्मांकन का कोई आश्चर्य नहीं रहा है, आजकल तो वह दृश्य बदलने का वो ख़ूबसूरत तरीक़ा इतनी त्वरा से प्रस्तुत किया जाता है कि कई बार तो न शब्द और न ही पात्र स्पष्ट हो सकते हैं और दृश्यों की भरमार से आँखें परेशान हो जातीं हैं। परन्तु, गाने की हर पंक्ति पर त्वरित और अर्थपूर्ण दृश्य बदलाव के जनक के रूप में संजय इतिहास में दर्ज़ रहेंगे। 

जब कि ‘एक लड़की को देखा . . .’ में सब कुछ इस ढंग से होता है कि दर्शक पर्दे पर आ रहे नवीनतम सीन का सानंद आश्चर्य मज़े लेता है और तुरंत उतनी ही रोचक प्रस्तुति का दूसरा सीन! गाने के तीसरे भाग में नायक की जीप एक पहाड़ी सड़क पर एक साइकिल चालक को ‘ओवरटेक’ करते हुए दिखाई देती है, और दूसरा दृश्य? ‘कट टू’ अनिल कपूर जीप की जगह साइकिल चला रहे हैं। अभी आप उस चमत्कृति से उभरे भी नहीं हैं और फिर से एक और चमत्कार। साइकिल चालक अनिल, दो बहुत छोटे बच्चों को सड़क पर बैठे देखता है और अगला शॉट? अनिल की साइकिल पर आगे बैठे वे ‘चंगु-मंगु’ को हम देखते हैं, जो बदलाव आज भी आपको ‘वाह’ कहने पर मजबूर कर देती है। पर हीरो की कल्पना की उड़ान अभी भी जारी है . . . कल उसने जिस अज्ञात यौवना को देखा था वह कैसी दिखती थी? 

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे नाचता मोर
जैसे रेशम की डोर
जैसे परियों का राग
जैसे संदल की आग
जैसे सोलह सिंगार
जैसे रस की फुहार
जैसे आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता नशा

यहाँ नाचते मोर की जगह रस्सियाँ कूदती लड़कियाँ नज़र आती हैं और अगले दृश्य में अनिल कपूर भी उनके साथ मिलकर रस्सी कूदते हैं और ‘रेशम की डोर’ शब्द भी चरितार्थ होते हैं। लेकिन असली मज़ा ‘जैसे रस की फुहार’ के दौरान आया। इसमें दिखाया गया है कि मनीषा अपने कपड़ों को धोने के बाद सुखाने से पहले उन्हें झटकती है और उसमें से छोटे-छोटे छींटे उसके चेहरे पर छिड़कते हुए स्क्रीन पर दिखाई देते हैं! भई वाह! किसी बाग़ के फव्वारे या पहाड़ से गिरते झरने की जल-कणों को दिखाने के बजाय रोज़मर्रा के काम करती नायिका से उन शब्दों को जोड़ना! और फिर ‘आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता नशा’ गाते हुए नायक साइकिल से उतरता है और उसे धीरे-धीरे धकेलता है, क्योंकि नशे की लत, जो इस नायक को पिछली रात से लगी है और जो आज सुबह होने के बाद से बढ़ती ही जा रही है, उस का शायद वह साइकिल एक प्रतीक है जो अकेली ही आगे बढ़ती जा रही है! इस अद्भुत चित्रित गीत के अंत में संजय लीला भंसाली ने सितार की लयबद्ध तर्ज़ के साथ साइकिल की घंटी की ध्वनि बजाई है। उस मंजुल घंटी के कोमल ध्वनि के साथ एक अद्वितीय निर्देशक के आगमन की सुक्ष्मतम घोषणा ख़ुद करते हों . . . जैसे!! 



‘एक लड़की को’ देखते हुए, गीतसागर के भीतर से मिले ये भी . . .! 

 

  • ‘1942-ए लवस्टोरी’ की हीरोइन के तौर पर मनीषा पहली पसंद नहीं थीं। बल्कि ‘एक लड़की’ जिसकी ख़ूबसूरती की इस गाने में इतनी तारीफ़ की गई है वह पहले विधु विनोद चोपड़ा की कृति ‘परिंदा’ की नायिका रह चुकी माधुरी दीक्षित थीं। 

  • फ़िल्म का नाम पहले ‘1947-ए लव स्टोरी’ था। लेकिन, जैसे ही उसकी घोषणा हुई, इंडस्ट्री में अफ़वाहें फैलने लगीं कि हिंदू लड़के और मुस्लिम लड़की की कहानी वाली फ़िल्म देश को बाँटने वाली होगी। तो वितरक इस फ़िल्म को खरीदेंगे क्या? (धर्म और मज़हब के मामले में लोगों के जज़्बात तब भी इतने ही नाज़ुक हुआ करते थे!) निर्माता के लिए ऐसे जोखम भरे सवालों की शुरूआत होते ही दबाव बढ़ने लगा, अंततः साल 1942  रखा गया और कहानी की पृष्ठभूमि ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय पर सेट की गई। 

  • फिर भी, विधु विनोद चोपड़ा को फ़िल्म के निर्माण और उसके प्रदर्शन तक पहुँचने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। शूटिंग के दौरान चोपड़ा ने निर्माताओं के संगठन ‘फ़िल्म मेकर्स कंबाइन’ यानी ‘एफएमसी’ द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने ‘फ़िल्मसिटी’ स्टुडियो के सहयोग से शूटिंग पूरा किया। लेकिन, उनकी हरकतों के कारण ‘एफएमसी’ ने फ़तवा जारी कर किसी भी वितरक द्वारा उस फ़िल्म को ख़रीदने पर प्रतिबंध लगा दिया। विनोद चोपड़ा ने उनके ख़िलाफ़ दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की और जीत हासिल की। उसके बाद ही फ़िल्म का प्रदर्शन सम्भव हो सका था। 

  • हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी रास्ता आसान कहाँ था? फ़िल्म के प्रदर्शन में एक हफ़्ते की और देरी हो गई। क्योंकि पोस्टर से शक किया गया था कि फ़िल्म में सेक्स की दृष्टि से कोई भी आपत्तिजनक दृश्य नहीं होने का प्रमाण पत्र (नो ऑब्सीन सर्टिफ़िकेट!) लेना आवश्यक था। फ़िल्म के एक गीत ‘कुछ ना कहो . . .’ में अनिल और मनीषा को ‘किस’ करते दिखाया गया था और पोस्टर पर वह फोटो था। शायद माधुरी के इंकार की वजह भी वो सीन हो सकता है। क्योंकि विनोद चोपड़ा के लिए पिछली फ़िल्म ‘परिंदा’ में भी संजय लीला भंसाली ने एक गाना फ़िल्माया था। वह गीत ‘प्यार के मोड़ पे . . .’  पंचम दा और आशा भोंसले की जोड़ी का एक यादगार गाना है। उस में भी अनिल द्वारा माधुरी के होंठ से होंठ छूने का दृश्य था। 

  • वह गाना ‘प्यार के मोड़ पे . . .’ संजयजी को विधु विनोद चोपड़ा की पहली पत्नी रेणु सलूजा यानी कि अभिनेत्री राधा सलूजा की संपादक बहन ने दिलवाया था। रेणु ने फ़िल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाई के दौरान संजय द्वारा बनाई हुई लघु फ़िल्म ‘आंगिकम्‌’ विनोद चोपड़ा को दिखाई और उन्होंने संजय को अपने ‘सहायक’ के तौर पर काम पर रखा था। 

  • विधु विनोद चोपड़ा के अपनी पहली पत्नी रेणु सलूजा से अलग होने के बाद भी उनकी मृत्यु तक अपनी सभी फ़िल्मों का संपादन उन्हीं से ही करवाया था। रेणु के जीवनकाल में ही विनोद चोपड़ा ने ‘इंडिया टुडे’ की तत्कालीन फ़िल्म स्तंभकार अनुपमा चंद्रा से दूसरी शादी की थी। आज तो अनुपमा चोपड़ा ‘शोले’ और शाहरुख खान के बारे में बेहद दिलचस्प किताबें देनेवाली लेखिका तो हैं ही; अन्य पुस्तकें तथा टी.वी. प्रोग्राम्स और वेबसाइट फ़िल्म कंपेनिअन के ज़रिये सिनेजगत की एक जानीमानी समीक्षक भी हैं। 

  • ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा . . .’ के बारे में एक और दिलचस्प बात ये भी है कि उसे गाने के लिए कुमार सानू बिना दाढ़ी किये स्टुडियो पहुँचे थे। अपने बेढंग दीदार को देखकर विनोद चोपड़ा को ग़ुस्सा आ गया। यह कोई ऐसा गाना नहीं है जिसे इस तरह से गाया जा सके! उस रिकॉर्डिंग को रद्द कर दिया। फिर रिकॉर्डिंग के लिए जब कुमार आये तो शेविंग तो कर के ही आये थे; बल्कि परफ़्यूम लगाकर वो इतनी तैयारी से आये थे कि सारा माहौल ख़ुश्बूदार बन गया था! 

  • गीत के रचयिता जावेद अख़्तर के मुताबिक़ पंचमदा ने इसकी धुन खेलते-खेलते महज़ पाँच मिनट में तैयार की थी। इसके संयोजन में, अधिकांश संगीत समीक्षकों के मत अनुसार, ‘रवीन्द्र संगीत’ की छाया प्रतीत होती थी। 

  • इस गाने ने जावेद अख़्तर को पहली बार ‘फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड’ में ‘सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवॉर्ड’ दिलाया। परन्तु, सर्वश्रेष्ठ चुना गया यह गाना भी विवाद से अछूता नहीं रहा। एक पत्रिका में एक पाठक ने लिखा कि जावेद की प्रस्तुति 1944 की फ़िल्म ‘मन की जीत’ में जोहराबाई अंबालेवाली द्वारा गाई गई जोश मलीहाबादी की रचना  ‘मेरे जोबना का देखो उभार’ से काफ़ी प्रभावित लगती है। हालाँकि, जावेद अख़्तर के साथ न्याय करने के लिए, यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि यह गीत, जिसे किसी अभिनेत्री (इस मामले में कुकू) द्वारा अपनी सेक्स अपील का स्वयं वर्णन करने वाला पहला हिंदी फ़िल्म गीत माना जाता था, उसे ‘चोली के पीछे क्या है?’ विवाद के दौरान भी याद किया गया था। 

  • फ़िल्म संगीतकार आर.डी. बर्मन को फ़िल्मफ़ेयर द्वारा ‘सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक’ का मरणोपरांत पुरस्कार तो दिया ही गया; उनके असामयिक निधन पर स्थायी श्रद्धांजलि के रूप में संगीतक्षेत्र की नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए नये पुरस्कार ‘आरडी बर्मन एवार्ड’ की शुरूआत भी की गई। उस वर्ष पहला एवार्ड ‘रोजा’ फ़िल्म के लिए ए.आर. रहमान को दिया गया था। 

  • इसके अलावा ‘बेस्ट प्लेबैक फ़िमेल सिंगर’ का ‘फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड’ भी ‘1942-ए लव स्टोरी’ के लिए कविता कृष्णमूर्ति को ‘प्यार हुआ चुपके से’ गाने के लिए दिया गया था। 

  • ‘फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड’ कैमरामैन बिनोद प्रधान को उनकी शानदार फोटोग्राफी के लिए दिया गया। तो वहीं फ़िल्म की एडिटर रेणु सलूजा को भी ‘बेस्ट एडिटर’ के ख़िताब से नवाज़ा गया। इसी तरह ‘1942’ के समय को पर्दे पर जीवंत करने वाले कला निर्देशक नितिन देसाई ने भी ‘फ़िल्मफ़ेयर’ ट्रॉफी जीती और ‘साउंड रिकॉर्डिस्ट’ भी ‘1942-ए लव स्टोरी’ के ‘सर्वश्रेष्ठ’ बने। संक्षेप में, बॉक्स ऑफ़िस पर अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के बावजूद, विनोद चोपड़ा का खाता उस वर्ष के पुरस्कारों से संतुलित हुआ था! 

  • विनोद चोपड़ा संजय लीला भंसाली को ‘गीत निर्देशक’ का अलग से क्रेडिट देने के बजाय फराह खान के साथ ‘कोरियोग्राफर’ यानी ‘डांस डायरेक्टर’ का क्रेडिट देना चाहते थे। लेकिन संजय ने तर्क पेश किया कि ‘एक लड़की को देखा’ समेत कुछ गाने शिमला-डलहौज़ी में फ़िल्माए गए थे और फराह खान डलहौज़ी में एक भी दिन के लिए मौजूद नहीं थीं। तो फिर हमें अलग से ‘निर्देशक’ का क्रेडिट क्यों नहीं मिलता? बात मान ली गई और हमें ‘डायरेक्टर’ संजय लीला भंसाली मिल गए। नहीं तो वह सिर्फ़ ‘कोरियोग्राफर’ बन कर रह गये होते, क्या??

  • आर.डी. बर्मन
    आर.डी. बर्मन
  • संजय लीला भंसाली
    संजय लीला भंसाली
  • जावेद अख़्तर
    जावेद अख़्तर
  • कुमार सोनू
    कुमार सोनू
  • विधु विनोद चोपड़ा
    विधु विनोद चोपड़ा

2 टिप्पणियाँ

  • 25 Jul, 2023 08:26 PM

    कभी-कभार किसी फ़िल्म पर लिखा आलेख पढ़कर कुछ नया जानने को मिलता है तो अच्छा लगता है। लेकिन सलिल साहब ने तो केवल एक गीत पर ही इतनी रोचक व अद्भुत रोशनी डाल दी है कि वाक़ई इस बार यह गीत अपनी आँखें व कान पूरी तरह से खोलकर दोबारा देखना बनता ही है।

  • 14 Jul, 2023 10:35 PM

    संजय लीला भन्साली वाली और कई जानकारी रसप्रद रही. फिल्म बनती है, तो उसकी हरएक चीज इतिहास की स्मृति बनजाती है. आप जैसे गहन संशोधन करके लिखने वाले नहीं होते तो क्या होता ? फिल्म जगत और फिल्म के रसिक जन आपके ऐसे प्रदान का ऋणी रहेगा. ... इस आर्टिकल को पढनेके बाद अभी यह फिल्म और गाना फिरसे देखना पड़ेगा. और तब पहेले से ज्यादा मजा आएगा देखनेमें. ... फिल्म एप्रिशिएशन का यही मज़ा है. ... आपकी फिल्मों के प्रति पेशन को स्लैम करता हूँ.

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