गाँव के आँचल में पलती कहानियाँ—कपास

01-05-2024

गाँव के आँचल में पलती कहानियाँ—कपास

सोनल मंजू श्री ओमर (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: कपास (कहानी संग्रह)
लेखक: डॉ. कुबेर दत्त कौशिक
प्रकाशक: शॉपिज़ेन डॉट इन (shopizen.in)
समीक्षक: सोनल मंजू श्री ओमर
मूल्य: ₹333.00 (पेपरबैक) ₹25.00 (ई-पुस्तक)

हाल ही में लेखक डॉ. कुबेर दत्त कौशिक जी का 10 कहानियों का संग्रह ‘कपास’ पढ़ने को मिला। इनके अभी तक लगभग एक उपन्यास (दस्तख़त) व एक दर्जन कहानी संग्रह (झोपड़ी, कुल्हड़, कपास, शाख़ शाख़ जल गई, अफ़साना, रोशनाई, चरणामृत, खंडहर, कहानी-कहानी केवल कहानी, जज़्बात, पतझड़, परछाइयाँ आदि) प्रकाशित हो चुके हैं। कपास किताब की सभी कहानियों की पृष्ठभूमि आंचलिक परिवेश में गढ़ी गई है। डॉ. कुबेर दत्त कौशिक की कहानियाँ आज के शहरीकरण के युग में विशुद्ध गाँव के आँचल में पलती, किलकती, बिलखती, इठलाती अपने परिवेश की गाथा कहती हुई दिखायी पड़ती हैं।

इस संग्रह की पहली ही कहानी का नाम ‘कपास’ है, जोकि संभवतः किताब के नामकरण का भी आधार बनी। इसकी शुरूआत एक यूनिवर्सिटी के हॉस्टल से होती है, जिसमें ग्रामीण परिवेश का एक लड़का चंद्र प्रकाश तिवारी रहता है। उसकी एक महिला मित्र है विलियम रॉबर्ट। विलियम चंद्र प्रकाश के कपड़ों को देखती थी और उनके विषय में प्रश्न पूछा करती थी। ऐसे ही एक बार वो उससे ‘खेस’ के विषय में पूछती है तब चंद्र प्रकाश उसे बताता है, “खेस मोटे सूत का वस्त्र होता है, जिसे प्रायः गाँव के लोग सर्दी के मौसम में ओढ़ते हैं।” विलियम उससे सूत इत्यादि के विषय में भी पूछती है। सम्पूर्ण कहानी कपास की फ़सल अर्थात्‌ बॉडी बोने से लेकर खेस तैयार होने तक की कथा है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने एक किसान परिवार के जीवन के संघर्ष को दिखलाया है कि किस प्रकार किसान एक-एक फ़सल को अपना खून-पसीना देकर, सर्दी-गर्मी-बरसात सभी मौसमों में अपनी संतानो से भी कहीं ज़्यादा ध्यान देकर सींचते-पालते हैं।

‘पश्चाताप’ कहानी सही-ग़लत के द्वंद्व के मध्य फँसे पश्चाताप की कहानी है। इसमें एक पैंसठ वर्षीय मरीज़ तीन साल से फालिंज नामक बीमारी से पीड़ित है, जिससे उसका पूरा शरीर निष्क्रिय हो चुका है और अब उसका कोई इलाज नहीं है, उसके तीमारदारों ने उसका कई जगहों पर भरपूर इलाज कराया और अंततः उसे एक नर्सिंग होम में भर्ती कराकर छोड़ देते हैं। इस नर्सिंग होम को डॉ. मनोज मिश्रा और उनके सहायक श्रीकांत देखते है। श्रीकांत उस मरीज़ को पीड़ा में मृत्यु का इंतज़ार करते देखकर दुखी होते हैं। वे चाहते हैं उस मरीज़ को मुक्ति दे दी जाए, पर डॉ. मनोज मिश्रा इस सोच को हत्या और पाप की संज्ञा देते हैं। इस द्वंद्व की स्थिति में श्रीकांत डॉ. मनोज को एक लड़के के पश्चाताप की कहानी सुनाते है। श्रीकांत का मानता है कि, “पश्चाताप एक ऐसी औषधि है ऐसा उपाय है जो पाप के रोगों का समापन कर देती है।” इसीलिए अंततः वो उस मरीज़ को उसकी पीड़ा से मुक्त कर देते हैं। इस कहानी द्वारा लेखक के दार्शनिक दृष्टिकोण का भान होता है। वो पाठकों पर ही इस बात का फ़ैसला छोड़ देते है कि श्रीकांत ने सही किया या ग़लत।

‘परछाईयाँ’ भूले-बिछड़े साथी से बरसों बाद मिलने की कहानी है। इसमें सत्तर वर्ष की ‘दुर्गी’ अपना भरापूरा परिवार होने पर फिर भी नितांत अकेली है। उसकी एक फ़क़ीर मातूराम से भेंट होती है। उसे पता चलता है कि मातूराम उसके ही मायके का रहने वाला है। वह अपने गाँव के आस-पड़ोस, सभी परिवार, सदस्य इत्यादियों के विषय में मातूराम से पूछती है। अंत में दुर्गी एक सुबोध नाम के व्यक्ति के विषय में पूछती है, ऐसे किसी व्यक्ति को जब मातूराम जानने से इंकार करता है तो दुर्गी उदास हो जाती है। कुछ माह पश्चात मातूराम पुनः दुर्गी से मिलने आता है और उसे अपने साथ एक कॉलेज के समारोह में चलने का आग्रह करता है, जिसमें कवि सम्मेलन का आयोजन है। उस आयोजन में पहुँच कर दुर्गी को एहसास होता है कि उन कवियों में एक सुबोध भी है। बड़ी ही नाटकीयता के साथ दोनों एक-दूसरे को पहचान लेते हैं और अंत में दुर्गी के मुख से बस इतना ही निकलता है, “लै देख ले सुबोध! मौत जैसी इंतज़ार की बेहिसाब लम्बी ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद आख़िर आज तुझसे मुलाक़ात हो ही गई।”

‘अर्थी’ कहानी का मुख्यपात्र बिरजपाल, जोकि छीवर जाति का, अनपढ़ और मज़दूर वर्ग का व्यक्ति है। वह इकलौता ऐसा व्यक्ति है जो अर्थी बाँधने का कार्य करता है। इसीलिए हर जाति-वर्ग के लोग, उसके गाँव के साथ आस-पास के गाँव के लोग भी अर्थी बँधवाने के लिए सभी उसी पर निर्भर रहते हैं। वह इस कार्य के लिए कोई मूल्य नहीं लेता क्योंकि उसका मानना है कि यह पुण्य का कार्य है। इस कार्य को करने में वह इतना समर्पित है कि अपने घर-परिवार, अपनी रोज़ी-रोटी के कार्यों को भी बाद में महत्त्व देता है। लेकिन उसकी इस अच्छाई के फलस्वरूप उसे कुछ हाथ नहीं लगता है। गाँव में डेंगू बुख़ार का प्रकोप होने से जब पहले उसकी माँ को, फिर उसकी पत्नी को और फिर बिरजपाल को डेंगू हो जाता है तब भी बिरजपाल अपने परिवार से पहले दूसरों की मदद करता है, लेकिन जब उसकी माँ और पत्नी का देहांत होता है तो कोई उसको पूछने तक नहीं आता। वह दोनों की अर्थी रेहड़े पर ले जाता है। बाद में उसकी ख़ुद की मृत्यु डेंगू से सही समय पर इलाज न मिलने के कारण हो जाती है। अंत में कहानी इस प्रश्न के साथ ख़त्म होती है कि अर्थी बाँधने वाला बिरजपाल ही नहीं रहा तो अब उसकी अर्थी कौन बाँधेगा? कहानी बहुत ही मर्मस्पर्शी है पर प्रश्न भी उत्पन्न करती है कि अर्थी बाँधने का कार्य तो कोई भी कर सकता है। आमतौर पर मृतक के परिवारजन ही यह काम करते हैं इसके लिए किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर रहना क्यों आवश्यक है? क्या उस व्यक्ति के न होने पर अर्थी नहीं बँधेगी?

‘मास्क’ एक गाँव की कहानी है जहाँ की औरतें एकजुट होकर जत्थे में जंगल जाती हैं, वहाँ से अपनी गाय-भैसों के लिए चारा काट के लाती हैं। अचानक एक दिन लॉकडाउन लग जाता है और सभी को घर पर ही सीमित रहना पड़ता है। इन गाँववालों को नहीं पता कि कोरोना क्या है, लॉकडाउन क्या है, मास्क क्योंं लगाना है, दूर क्योंं रहना है, सैनिटाइज़र क्यों उपयोग करना है? उन्हें सिर्फ़ इतना समझ आता है कि पुलिस का निर्देश है इसीलिए ये करना पड़ेगा। कोरोना एक भीषण विभीषिका का दंश है जिसकी मार सबसे अधिक प्रतिदिन कमाने खाने वालों को झेलनी पड़ी। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने उसी वर्ग को दर्शाया है कि निर्देश होने के बावजूद अपना व अपने परिवार का पेट पालने के लिए उन्हें अपने घरों से निकलकर अपने कार्य करने होते थे ऐसे लोगो को कोरोना भी नहीं डरा सकता।

‘भिखारी’ कहानी मुझे कुछ अधूरी और रहस्यमयी लगी। इस कहानी का केंद्रबिंदु सूर्यकांत, किसी महिला को ढूँढ़ने गाँव के गली, महल्ले, बाज़ार, हाट, मंदिर सब जगह जाता है, लेकिन किसी को बता नहीं पाता कि वो किसे ढूँढ़ रहा क्योंंकि उसे ख़ुद भी नहीं पता है सिवाय इसके कि उस महिला के चेहरे पर चेचक के दाग़ हैं। शायद बहुत समय से भटकने के कारण ही उसकी दीनदशा भिखारी जैसी दिखती है। कहानी के अंत तक यह रहस्य रहस्य ही रह जाता है कि सूर्यकांत कौन है, वो किस महिला को ढूँढ़ रहा है और क्योंं ढूँढ़ रहा है?

‘अतिथि’ कहानी में एक नरेंद्र है जो बहुत संस्कारवान है और त्यागी समाज का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है। एक रात उसके घर पर एक अतिथि अशोक त्यागी आते हैं। नरेंद्र और उनकी पत्नी चार-पाँच दिनों तक अपनी क्षमता से कई अधिक उनका ख़ूब आतिथ्य करते है। उसकी फ़रमाइश पर शराब भी लाकर पिलाते हैं, जबकि शराब का नाम भी नरेंद्र और उसकी पत्नी के लिए अप्रिय है। इतने आतिथ्य को देखकर अंततः अशोक को लज्जा आ जाती है कि जब कुछ माह पूर्व नरेंद्र उसके निवास पर गया था तो उसने भरी दोपहरी में उसे द्वार से वापस लौटा दिया था, न बैठने के लिए कहा न पानी के लिए पूछा। जबकि इसके विपरीत नरेंद्र ने उसकी चार-पाँच दिवस तक ख़ूब आवभगत की। इस कहानी में लेखक के गाँधीवादी विचारधारा की झलक मिलती है कि कोई कैसा भी व्यवहार करे पर हमें अपने मूल्य अपने संस्कार नहीं भूलने चाहिए।

‘मदिरा’ एक ग्रामीण दंपती की कहानी है। राजपाल शराब का लती है, पत्नी के मना करने के बाद भी वो शराब पीने का कोई-न-कोई बहाना खोज लेता। कभी जुताई के समय खेत से शराब की बोतल निकलती तो वो धरती माता का प्रसाद मान के पी लेता, कभी ईख की झाड़ से बोतल गिरती तो आसमान से भगवान का प्रसाद बोल के पी लेता। अंततः किरणो समझ जाती है कि राजपाल शराब नहीं छोड़ पाएगा इसीलिए वह ख़ुद बाज़ार से पाँच-छह शराब की बोतल ख़रीद लाती है ताकि राजपाल घर पर ही पिए ताकि उस पर कोई अंगुली न उठा सके। राजपाल किरणो की यह मंशा जान जाता है तो संकल्प लेता है कि अब वो कभी मदिरा को छूएगा भी नहीं। लेखक ने किरणो के माध्यम से मदिरापान को ग़लत न मानकर समाजिक रूप से पीने को ग़लत माना है। इसीलिए उनका मानना है कि “मदिरापान किसी मनुष्य का व्यक्तिगत दोष नहीं होता जबकि सच्चाई यह है कि मदिरापान एक सामाजिक दोष है। केवल समाज का मनुष्य ही मदिरापान को अनुचित और अशुभ प्रमाणित करता है। निषेध मानता है।”

‘मुआवज़ा’ दो भाइयों बलजीत और राजबीर की कहानी है। दोनों के पास पुश्तैनी पाँच-पाँच बीघा ज़मीन है जोकि सरकार द्वारा रेलवे कॉरिडोर के लिए अलॉट कर ली जाती है, जिसके बदले दोनों को सरकार की तरफ़ से एक-एक करोड़ का मुआवज़ा मिलता है। इतना पैसा पाकर दोनों वैभव विलासिता में डूबकर धीरे-धीरे अपनी सारी सम्पत्ति ख़र्च कर देते हैं। अंत में नौबत यह आ जाती है कि उनपर लाखों के बिजली का बिल का क़र्ज़ा चढ़ जाता है। यह कहानी हमें बहुत बड़ी सीख देती है कि यदि हमारे पास ज़्यादा पैसा आ जाए तो उसे विलासिता में नष्ट नहीं कर देना चाहिए अपितु उसे सही जगह पर निवेश करना चाहिए। और पैसा कितना भी हो जाए अपना कर्म करना बंद नहीं करना चाहिए जैसे राजबीर और बलजीत ने काम करना ही बंद कर दिया, क्योंकि पैसा कितना भी हो यदि उसे उपयोग करते ही रहेंगे तो एक दिन समाप्त हो ही जाएगा।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘सिला’ है। “गेहूँ की फ़सल खेत में से कट जाने के बाद जब कुछ बिखरी पड़ी गेहूँ की बालियाँ खेत की धरती के ऊपर से चुनी जाती है उसे सिला चुगना कहते है।” पंडित जगन्नाथ कौशिक के खेत पर गेहूँ की फ़सल कटने के उपरांत निचली जाति की कुछ औरतें सिला चुगने का काम कर रही हैं। सिला चुगने वाली महिलाओं को सिलयारी कहा जाता है। इस सिला द्वारा ही ये महिलाएँ कुछ दिनों तक अपने परिवार के लिए रोटी का प्रबंध करती हैं। पंडित जगन्नाथ कौशिक एक उदार व दार्शनिक स्वभाव के व्यक्ति हैं, वो सिला को परमात्मा का उपहार मानकर इसपर सिलयरियो का अधिकार मानते हैं। वो इन महिलाओं को ‘बहुरानी’ कह के सम्बोधित करते हैं और उन्हें न सिर्फ़ सिला चुगने देते हैं बल्कि भयंकर धूप में उनके लिए पानी और गुड़ की व्यवस्था भी करते हैं और अंत में सभी महिलाओं को अपनी फ़सल से भी चार-चार बंडल गेहूँ के देते हैं। इस कहानी से हमें सिला के विषय में तो पता चलता ही है साथ यह भी ज्ञात होता है कि एक मालिक का एक दानदाता का उससे निचले तबक़े के लोगों के प्रति व्यवहार कैसा होना चाहिए।

इस संग्रह की सभी कहानी एक से बढ़कर एक उम्दा विषय पर है तथा बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ लिखी गई है। ये सभी कहानियाँ कहीं-न-कहीं हमें कुछ नया सिखाती हैं। लेखक के कहानी कहने का अंदाज़ काफ़ी निराला है। ये एक-एक स्थित, हाव-भाव, मनोभाव आदि का इतना सूक्ष्मता से वर्णन करते है, जिससे सूक्ष्म वस्तु भी व्यापक हो जाती है, जोकि क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। लेकिन लेखक का एक ही चीज़ को कहानी में बार-बार बतलाना, ये पुनरावृत्ति पाठक मन को खटकती है। इसपर यदि लेखक ध्यान देंगे तो कहानियाँ पाठकों पर और गहरी छाप छोड़ने में सफल होगी।

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