एक टुकड़ा धूप
अनुपमा रस्तोगीआजकल मैं एक टुकड़ा धूप
तलाशती रहती हूँ।
वही टुकड़ा जो बचपन
के बाद कहीं खो गया है।
माँ का धूप में बैठकर स्वेटर बुनना
और हमारा ऊन की लच्छियों के गोले बनाना।
बुनाई, गपशप और चाय की कड़क
और साथ में मूँगफली, रेवड़ी और गजक।
धूप में लेटना और चेहरे पर पड़ती
तेज़ धूप को माँ के शाल से रोकना।
हलवे की गाजर घिसना हो या मटर छीलना
अचार डालना हो या आलू के पापड़ सुखाना
सब काम का एक ही ठिकाना।
शाम होते धूप के साथ चारपाई को सरकाना
या फिर माँ का तार पर पड़े कपड़ों को
धूप के साथ-साथ खिसकाना
घर है, सर्दी है, धूप है
पर बदला बदला इसका रूप है।
1 टिप्पणियाँ
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The title is good and the content is great as are the photos. बचपन के कईं लम्हों को याद दिल दिया। अच्छा लिखा है, लिखती रहिए।