बहती शाम
अनुपमा रस्तोगीदिल्ली गुड़गाँव/गुरुग्राम एनसीआर,नेशनल कैपिटल/NCR, National capital region में आते हैं। दूरी 35 किलोमीटर है पर ऑफ़िस समय में यह रास्ता तय करने में 1.5 से 2 घंटे लग जाते है।
आजकल रोज़ शाम मेरी सूरज
के साथ दौड़ लगती है,
देखें कौन जल्दी घर पहुँचता है
इस बात पर शर्त लगती है।
दिल्ली ऑफ़िस से शाम को जल्दी टैक्सी से
गुडगाँव घर के लिए निकल पड़ती हूँ
पेड़, पौधे, रास्ता और सूरज के बदलते रंग
अपने मोबाइल में क़ैद करती रहती हूँ।
हर रोज़ वही लम्बा कारों का क़ाफ़िला
कोई वीआईपी मूवमेंट और
किसी न किसी वजह से लगा जाम
मंद मंद रेंगता हुआ ट्रैफ़िक
और बहती ढलती शाम।
इतनी तरक़्क़ी इतने फ़्लाइओवर के बाद भी
सब कुछ बेमानी और व्यर्थ लगता है
जब हर रोज़ दिल्ली गुडगाँव के बीच का
चालीस किलोमीटर का सफ़र बहुत लम्बा लगता है।
बस एक बार फिर इस दौड़ मैं
सूरज मुझ से आगे निकल जाता है
मैं वही हाईवे पर अटकी रह जाती हूँ
और वो मुझसे पहले घर पहुँच जाता है।
पल भर को मेरा मन दुखी हो जाता है
पर अगले ही पल यह सोचकर ख़ुश हो जाती हूँ
की कितनी ख़ुशनसीब हूँ मैं जो रोज़
इस सुरमई शाम के सतरंगी
रंगों को निहार पाती हूँ
ऐसे कितने लोग है जो यह
ख़ूबसूरत नज़ारा देख पाते हैं
वोह सब तो अपने ऑफ़िस के
बंद कमरों में शाम बिताते हैं।
और फिर इसी आशा के साथ घर पहुँचती हूँ
और आने वाले नए दिन, नयी सुबह,
नयी शाम का आतुरता से इंतज़ार करती हूँ।
3 टिप्पणियाँ
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Loved reading this poem and could relate to the feelings. Throughout my working life, मैंने भी सूर्य देवता के साथ बहुत बार रेस लगाई और बहुदा हारा हूँ। Can’t forget the beauty of the sun going down behind middle-eastern sand dunes, Canadian Rockies and far-eastern seas. अच्छा लिखा है। Keep writing.
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महानगर की रोज़मर्रा जिन्दगी को अतिसुन्दर नज़रिए से दिखाती कविता
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Bahut khoobsurat