एक चिलचिलाता शहर
अवनीश कुमारएक चिलचिलाता शहर
सर से पाँव तक
बदन को तरबतर करता
मशीनों के धौंकने की आवाज़
नींद हराम कर देती
कारखानों से निकले धुएँ से
सारे शहर में छा गए हैं
स्वार्थ के अंधड़ बादल;
हर गली, हर मुहल्ले और हर घर में
करते हैं सभी मशीनों की बातें
कोई पंछी अब चहचहाता नहीं है
मशीनी शहर में;
कोई नदी अब शहर के बीच से
कल-कल करती नहीं निकलती
अब तो नाले जाते हैं
समुद्र तक;
अब किसी को कोई मतलब नहीं;
हर कॉलोनी, हर घर में
अब छाया रहता है हमेशा
लोगों का गहरा सन्नाटा;
इसी घनघोर सन्नाटे में
कोई कवि बरबस ताकता है
गुमनाम हो चुके अपने शहर को
जहाँ नदी बहती थी, पेड़ खड़े थे
और सन्नाटे को चीरने को
कुछ पंछी भी थे।