दिन काट रहा है

01-08-2024

दिन काट रहा है

वैद्यनाथ उपाध्याय (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

दिन मुझे बेरहमी से काट रहा है
बाहर धूप की उमस है। 
आँगन में कुछ फूल खिले हैं
तितलियाँ झूम रही हैं मज़े से
बाहर चिड़िया दाना चुग रही है
धूल की परतें जम गई हैं
किताबों पर
मन ख़ुश नहीं है कई दिनों से
सपने भी डरावने ही आते हैं मुझे
सोचता हूँ आदमी को ख़ुश रहने के लिए क्या चाहिए?
 
हर आदमी अपने दुख का
इश्तिहार लिए दौड़ रहा है
धूप की उमस और बढ़ गई है। 
हवा भी ख़ामोश है
कहीं कोई हलचल नहीं है
भीतर काफ़ी बेचैनी है
पता नहीं मैं अपनी कहानी के किस पड़ाव पर हूँ
न जाने अब कौन सा कशमकश का दौर निकल आएगा
एक कहानी को जीना 
इतना आसान कहाँ होता है। 

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