बँटा हुआ एक घर
डॉ. कुँवर दिनेशमैंने कविता लिखनी चाही
एक घर पे―
एक ही छत के नीचे
बँटा हुआ एक घर
कितने ही कट-
घरों में विभाजित,
सब में पृथक्-
पृथक् चूल्हा,
चूल्हे से उठता धुँआ
सब क-ट-घ-रों में फैल रहा,
धुँए में कुछ भी
साफ़ नहीं दीख पड़ रहा . . .
धुँआ हटे
तो कविता बने . . .
1 टिप्पणियाँ
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धुँए में धूँ-धूँ करते रिश्ते...आपने गागर में सागर भर कर रख दिया।