अपने-अपने दायरे

01-02-2022

अपने-अपने दायरे

डॉ. तबस्सुम जहां (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

10 बजे बैंक खुलेगा। मिसेज़ गिल उससे पहले ही बैंक पहुँच जाती हैं। वहाँ पहुँच कर देखती हैं कुल बीसेक लोग मौजूद हैं। सब गेट के सामने पाँच-पाँच क़दम की दूरी पर बने गोल दायरे में खड़े हैं। एक दिन में केवल बीस लोग ही बैंक आ सकते हैं। कोरोना व लॉकडाउन के चलते बैंक का ऑर्डर है। नियम के हिसाब से सोशल डिस्टेंस का पालन करना होगा। मिसेज़ गिल भी लास्ट वाले एक दायरे में सिमट जाती हैं। चूँकि बैंक खुल चुका है लोग निश्चिंत हैं। कम से कम सरकार ने बैंक तो खोले। एटीएम तो कैश बिना ख़ाली खोखे-से भाएँ-भाएँ कर रहे हैं। अब काम भी देर सवेर हो ही जाएगा। 

सुबह से ही मिसेज़ गिल में बैंक जाने का उत्साह है। एक महत्त्वपूर्ण काम निपटाना है। काम आज ही हो जाए तो बेहतर। वे कल पर नहीं टालना चाहतीं। मिस्टर गिल को नाश्ता व मेडिसन दे कर वे समय पर बैंक पहुँच जाती हैं। लॉकडाउन ने जैसे उनके शरीर पर ज़ंग ही लगा दिया था। उम्र वैसे 63 के आसपास ही होगी पर उनके चेहरे की कशिश और सुगठित काया देख कर अच्छे-अच्छे उन्हें 55 से कम ही आंकते थे। एक ज़िंदादिली-सी उनके मिज़ाज में रची बसी थी। मिसेज़ गिल देखती हैं पाँच क़दम की दूरी पर एक-एक गोल दायरा बना है। उसमें लोग सिमटे खड़े हैं। अपनी-अपनी परिधि में क़ैद। एक बारगी उन्हें लगा कि यह गोले नहीं अपितु हरेक व्यक्ति की अपनी सीमाएं हैं। जिनमें धार्मिक व सामाजिक मर्यादाएँ गुँथी हुई हैं। इनसे बाहर निकलना उसमें खड़े व्यक्ति के लिए निषेध है। कोई अपने दायरे के विरुद्ध कुछ न बोले इसलिए मास्क से उनके मुँह और ज़ुबान भी बंद कर दी गयी हैं। लगता है ये दायरा ही व्यक्ति का जीवन-मरण चक्र है। व्यक्ति को एक-एक दायरा पार करना है तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिलेगी। वे ध्यान से देखती हैं चॉक से बने गोले एक आकार नहीं हैं। कुछ छोटे हैं। व्यक्ति के संकुचित विचारोंं की तरह। कुछ अपेक्षाकृत बड़े। किसी बड़े दिलदार व्यक्ति की तरह। प्रत्येक गोला अपने भीतर समाहित व्यक्ति की सोच का पैमाना स्पष्ट कर रहा है। अलग-अलग दायरा और उनमें खड़े अलग अलग सोच के मानुष। सब जैसे अपने-अपने दायरे में सिमटे हुए-से है। 

बीस लोगों की लाईन ही बैंक के मुख्य गेट से होते बाहर सड़क तक पहुँच गई जाती है। मिसेज़ गिल भी सड़क पर ही खड़ी हैं। धूप सिर पर है। हवा में गरमाहट पसरी है। रह-रह कर हवा ग़ुबार उड़ा रही है। मार्च में अक़्सर ऐसा ही होता है। चारोंं ओर अजीब से भंग बीतने लगते हैं। बड़े बुज़ुर्ग कहते हैं मार्च के महीने में आसमान से सबसे ज़्यादा बुरी बलाएँ उतरती हैं। इस महीने ही सबसे ज़्यादा बीमारी फैलती है। बच्चे भी बहुत रोते हैं। पर मार्च तो पिछले महीने था। अब तो अप्रैल चल रहा है। मिसेज़ गिल ने हिसाब लगाया। इस दुर फिट्टे मुँह कोरोना ने तो मार्च अप्रैल का भेद ही मिटा दिया। वे जंग में निकले सिपाही की तरह मुस्तैद एक गोले में खड़ी हो जाती हैं। एक जोश व जज़्बा है जो उनको तरोताज़गी का अहसास कराता है। यूँ तो वे आख़िरी गोले में हैं एक-एक गोले को पार करेंगी तब कहीं जा कर गंतव्य तक पहुँच सकेंगी। 

मिसेज़ गिल रिटायर्ड टीचर हैं। मिस्टर गिल भी। यह समय तो उनके घर पर आराम करने का होता है। पर कल एक पुरानी स्टुडेंट का फ़ोन आया था। आर्थिक मदद के लिए। उन्होंने अपनी स्टुडेंट से प्रॉमिस किया है वे उसकी हर हाल में मदद करेंगी। गुरु का धर्म केवल किताबी कोरा ज्ञान देना ही नहीं होता। मुश्किल समय में उनकी मदद करना भी होता है। ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही तो होता है। वे यह बात बख़ूबी जानती हैं। पर आज जो छवि उनकी है तब ऐसी नहीं थी जब वे अध्यापिका थी। उन दिनों वे सख़्त और कठोर अध्यापिका के रूप में जानी जाती थीं। बच्चे जिनसे बात करते डरते थे। अनुशासन को लेकर भी वे सख़्त ही थीं। एक रोबीली अध्यापिका के दायरे में उन्होंने ख़ुद को क़ैद कर लिया था। जिससे बाहर वे न स्वयं जाना चाहतीं। न ही कोई भीतर प्रवेश कर सकता था। किसी को आज्ञा नहीं थी। मजाल है कोई विद्यार्थी उनसे फ़ालतू प्रश्न कर ले। ज़रा-सी बात पर ग़ुस्से में पूरी कक्षा को खड़ा करना जैसे उनकी आदत बन गयी थी। गब्बर सिंह उनके पीठ पीछे ऐसे ही थोड़ी कहते थे उन्हें। पर जैसे अपनी छवि उन्होंने स्कूल में बनायी थी उसके ठीक उलट वे बाहर से गरम अंदर से नरम थी। किसी नारियल की भाँति। कमज़ोर बच्चों की मदद को वे हमेशा तत्पर रहतीं। चोरी-छिपे उनको आर्थिक मदद करतीं। मदद भी ऐसी कि दाएँ हाथ से किसी को कुछ देतीं तो बाएँ हाथ को भी ख़बर न हो पाती। मदद करके भूल जाना आदत थी। जिस स्टुडेंट से लगाव रखती उनका मातृवत ख़्याल रखती थीं। शायद इसी भावना ने उन्हें कोरोना महामारी में भी अपने स्टुडेंट की मदद करने के लिए घर से निकाल कर बैंक की लाइन में ला खड़ा किया है। 

“लोग आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं। ऐसे तो शाम तक नम्बर नहीं आएगा।” बहुत देर तक भी लाइन टस से मस न होते देख वे आगे वाले बाबा जी से पूछती हैं। 

“मैडम जी, लगे है अभी पूरा इस्टाफ नहीं आया है बैंक में। कल भी भर दोपहरी यायी तमासा लाग्या रहा,” वृद्ध सज्जन फट पड़े। 

“बैंक वालन कहवे हैं किरोना के मारे इस्टाफ कम बुलावे हैं। भक्क! अब इन बावलन से कदि कोई पूछे। किरोना के डर से हम लोगन भी खाना पीना छोड़ देवे क्या। हद हवे गयी। सवेरे से साँझ तक गोला-गोला चलता रहा। कदि इस गोले कदी उस गोले। बस पूरा दिना एक गोले से दूसरे गोले फुदकता रहा। भई मनुस न हुआ कायी टिटेहरी हो गया। आज फिर आकर लगा हूँ इन गोलन में। सायद कुछ हो। ऊपर से किसी ढोर की तरियो जाब सा बाँधनो पड्यो है अपने मुँह पर। न सास ले सके हैं न मुँह खोल सके हैं,” कह कर वे गोले में ही उकड़ूँ बैठ जाते हैं। 

मिसेज़ गिल ने देखा इक्का-दुक्का को छोड़कर अधिकतर लाइन में लगे लोग सीनियर सिटीज़न हैं। बूढ़े होने पर भी जिन्हें कोरोना का डर नहीं। गिरते-पड़ते बस खड़े हैं एक उम्मीद के साथ। एक घंटे से वे अपने दायरे में सिमटी हैं। अब तो बोरियत-सी हो रही है। वे अपने चारों ओर नज़र दौड़ाती हैं। आसपास सड़क के किनारे कनेर के फूलों की झाड़ियाँ है जिस पर कनेर उतर रहे हैं। कुछ भूला-सा याद आने लगता है। कनेर के फूलों से उनका बचपन का नाता है। वे और उनकी बड़ी बहन कनेर के फूलों के गजरे बनाते थे। उन्हें बताया गया था कि यह फूल पहले ज़माने में पैसों के बदले चलते थे। यह गूढ़ ज्ञान उनकी बहन ने ही दिया था। सहसा एक तेज़ हवा का झोंका आता है। पीले, संतरी बहुत से कनेर के फूल सड़क किनारे बिखर जाते हैं। उनका मन होता है कि अभी जाएँ और कनेर के बहुत से फूल अपने दामन में भर लें। पर नहीं वे तो अपने दायरे में सिमटी हैं। कहते हैं कि बुढ़ापे में एक बार फिर से बचपन से साक्षात्कार होता है। लेकिन वे बच्चों की तरह कैसे व्यवहार करें। उनके दायरे ने जैसे उनके पाँव जकड़ लिए हैं। यह दायरा भी न। बचपन में वे इसी तरह का दायरा बना कर उसमें स्टापू खेलती थीं। बस उस दायरे में कोई नियम नहीं थे। दायरा भी अपना और नियम भी अपने। बचपन याद आते ही मिसेज़ गिल के झुर्रियों वाले चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान खिल उठती है। काश वे अब भी बच्ची होतीं। 

लाइन जीवन की गाड़ी की भाँति धीरे-धीरे सरकने लगी थी। वे अब अपने से आगे वाले दायरे में थीं। लगा जैसे उनका बचपन भी आगे खिसक गया हो। उनकी माँ के स्वर जैसे कानों के घुल रहे हों, “कुड़िये मुंडे नाल ज़िद न कर। तू लड़की ऐं। ढंग से उठा-बैठा कर। नहीं तो कोई ब्याहेगा नहीं। लड़कियों के दायरे विच रहना सिख।” बस फिर क्या था चूँकि वे लड़क़ी थी अतः उनकी सीमाएँ तय कर दी गयीं। वे भाई की तरह पढ़ने शहर से बाहर नहीं जा सकीं। कम उम्र में ही ब्याह दी गयीं। जो दायरा उनके लिए उस समय बना उसमें जाने उनके कितने ही सपने गोल भँवर में कश्ती से डूब जाते हैं। वे मुआयना करती हैं अपने मौजूदा दायरे का। क्या ये वही दायरा है जो बचपन में उनके इर्दगिर्द बना दिया गया था। घूप की तपिश उनके सिर को गर्म कर रही है। पर गोला छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकतीं। 

 बैंक के लंच अलार्म से मिसेज़ गिल की तन्द्रा भंग होती है। वे लगभग आधा पड़ाव पार कर चुकी हैं। उनकी नज़र अपने गोले पर पड़ती है। उनका नया गोला पहले गोले से कुछ ज़्यादा तंग है। दो घंटे से ऊपर हो चुके है। शरीर में कुछ थकान महसूस हो रही है। जोश गर्मी में पसीने की बूँदों में तब्दील होने लगता है। हालाँकि उम्र के इस पड़ाव तक आते शरीर जवाब देने लगता है। करें भी तो क्या? खड़े रहने के अलावा और कोई चारा भी नहीं। यह दायरा नहीं होता तो कहीं एक जगह बैंच पर टिक जातीं। वे दायरा भी तो कुछ ज़्यादा ही छोटा है। उन्हें घबराहट-सी होने लगी। ऐसे ही घबराहट बैचेनी उन्हें विवाह के समय हुई थी। वे आगे पढ़ना चाहती थीं। अपने घर-परिवार के लिए कुछ करना चाहती थीं। उनके सपने किसी नव आगंतुक परिंदे के समान अपने पंखों को फड़फड़ा कर ऊँचे गगन में उड़ने के लिए अपने नन्हे पंख फैलाते; उससे पहले ही उनको विवाह कर दिया गया। वे अब ससुराल की परिधि में खड़ी थीं। ससुराल की मान मर्यादा का भारी बोझ उठाए एक मज़बूत लेकिन तंग दायरा उनके इर्द-गिर्द बना दिया जाता है। 

“देख ज़्यादा हिल-डुल नहीं बहू। लोग क्या कहेंगे कि लड़की बड़ी चंचल है,” उन्हें कुछ धुँधला-सा याद आता है। 
विवाह के समय भारी-भरकम जोड़े और ज़ेवर से लदी-फदी वे घंटों तक एक ही मुद्रा में बैठी रही थीं। न हिल सकती थी न ही कुछ बोल सकती थीं। सास का हुक्म जो था। सो मानना पड़ा। किसी बात पर सास उनसे नाराज़ हो जातीं तो कहती, “बहू ज़ुबान ज़ोरी न किया कर। ये बहुओं के ढंग नहीं। बहुओं के दायरे में रहना सीख।” 

लंच ख़त्म हुआ। ग़नीमत थी कि लाइन आगे बढ़ती रही। दायरे भी बदलते रहे। वे बैग से पानी की बोतल निकाल कर कुछ घूंट गले से नीचे उतारती हैं। तरावट का अहसास उनकी घबराहट की पीड़ा पर पानी-सा फेर देता है। उनके नए गोले पर सघन वृक्ष की छाया पड़ रही है। अब वे कड़ी धूप से छाया में थीं। पति के प्रेम और अपनेपन की घनी छाया जैसी। यूँ तो शादी के बाद मिसेज़ गिल की सास उनके पढ़ने के ख़िलाफ़ थीं। किताबें पढ़ती बहू उन्हें कभी नहीं सुहाती थी। “पुत्तर बहू का जन्म तो चूल्हा-चौका के लिए ही होता है।” वे बार-बार यह बात अपने बेटे को समझाती। पर वे अच्छे भाग्य वाली थीं जो उनको मिस्टर गिल जैसे पति मिले। माँ-बाप के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर भी उन्होंने अपनी पति को न केवल पढ़ाया-लिखाया बल्कि अपने साथ दिल्ली लाकर एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी भी लगवाई। पति-पत्नी दोनों साथ ही स्कूल के लिए निकलते। सास देखती, कुढ़ती, मार बुदबुदाती पर इस मामले में अपने बेटे से कुछ कह नहीं पाती थीं। मिस्टर गिल ने ही जैसे उनके सपनों को गुनगुनी धूप सी-गर्माहट दे दी थी। 

गर्मी अपना दायरा उलाँघ रही थी। सूरज अपना गर्म पैमाना छलका रहा था। लोग बेहाल परेशान से पसीने से दो चार हो रहे थे। मिसेज़ गिल का झुर्रियों से भरा चेहरा भी अपने सीमा में सर्प राशि-सी बना कर ढुलमुल हो रहा था। उन्होंने ग़ौर किया उनके आगे दो गोले छोड़ कर एक गोले में एक मुस्लिम महिला खड़ी है। सिर से पाँव तक काले नक़ाब से ढकी। वे गर्मी से बेहाल है। हाथ में रुमाल है। जिसे वे बार-बार हिला कर हवा झल रही है। थोड़ी देर में वे बुर्के को उतार कर उसे बैग में रख लेती है। वे लंबी साँस लेती है। या फिर अब वे खुलकर साँस ले रही है। मिसेज़ गिल भी अपने नए गोले में प्रवेश करती हैं। उनका गोला ज़्यादा तंग नहीं है। पर गोले में एक साथ दो-तीन लाईन बनी हैं। लाईन के ऊपर लाईन। लगता है जानबूझकर ऐसा गोला उनके लिए बनाया गया है ताकि वे उससे बँध जाएँ। निकल ही न पाएँ। दो बच्चों के होने पर वे भी तो कुछ ऐसे ही बँध गयी थीं। बच्चों की ख़ातिर उन्हें नौकरी तक छोड़नी पड़ी थी। सारा समय सिर्फ़ बच्चों की देखभाल में ही बीतता। ख़ुद के लिए समय निकाल ही न पातीं। 

इतने में पीछे के गोले में खड़े बुज़ुर्ग सज्जन कटे पेड़ से गिर पड़े। शायद गर्मी और धूप झेल नहीं पाए। बूढ़े होने पर तो वैसे भी सहनशक्ति क्षीण हो जाती है। देह में भी अनेक बीमारियाँ शरणार्थी सी घर कर लेती है। 

कुछ लोग अपना गोला तोड़ कर बाहर निकले। बुज़ुर्ग को उठाया, पानी पिलाया। कुछ होश आया तो वे फफक कर रो पड़े। पता चला कि उनके बेटे ने उन्हें ज़िद करके यहाँ भेजा है। वे ख़ुद नहीं आया कोरोना के डर से। पिता को भेज दिया। पिता की मृत्यु का भय नहीं उसे। कलयुगी बेटा इसी को तो कहते हैं। मिसेज़ गिल ने भी तो कितना रोका था अपने बेटे को कैनेडा जाने के लिए। पर बेटे की ज़िद का पलड़ा उनके ममत्व के पलड़े से हल्का रहा। शादी के बाद अपनी पत्नी के साथ बेटा सदा के लिए विदेश में ही बस गया। क्या इसीलिए माँ बाप अपने बच्चों को ख़ून पिला कर बड़ा करते हैं। जिन बच्चों को उँगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं बड़े होने पर वही हाथ झटक कर उन्हें अकेला छोड़ देते हैं। मिसेज़ की आँखों से दो मोती लुढ़क जाते हैं। वे चश्मा उतार कर उन्हें साफ़ करती हैं। मन भारी होने लगता है। शरीर जवाब देने लगता है। कमर में टीस-सी महसूस हो रही है। सिर्फ़ पानी ही तो पिया है सवेरे से। कुछ खाने का लेकर नहीं चली थीं। पता होता, इतना समय लगेगा तो कुछ बिस्किट या स्नैक वग़ैरह ही बैग में रख लेतीं। जल्दबाज़ी में बी पी की मेडिसन भी तो नहीं ले पायी थीं। शायद बी पी बढ़ गया है। वे देखती है। सब गोले पार हो चुके हैं। बैंक के गेट से अब पार होना है। वे क़दम बढ़ाती हैं पर क़दम मुश्किल से आगे बढ़ते हैं। देह पसीने से तरबतर हो रही है। कैश ट्रांसफ़र के काउन्टर पहुँच कर किसी तरह फ़ॉर्म भरती हैं। फ़ॉर्म पर अंक व अक्षर डूब तिर रहे हैं। राशि भरने के लिए एक अंक के आगे चार ज़ीरो लगाती हैं। ज़ीरो भी गोल हैं उन दायरों की तरह जिन पर गुज़र कर वे यहाँ तक पहुँची हैं। अभी तक वे ख़ुद भी तो एक अंक की भाँति ज़ीरो के कशमकश में उलझी थीं। यही ज़ीरो अपने बड़े आकार में भूमि पर खींच दिए गए हैं। दायरों की शक्ल में। मिसेज़ गिल फ़ॉर्म को काँपते हाथों से काउंटर पर जमा कराती हैं। उन्हें संतोष है कि वे अपने स्टुडेंट की मदद करने में सफल रहीं। सभी गोले पार करके। यह गोले नहीं थे। जीवन के पढ़ाव थे। उनके अलग-अलग दायरे। उनकी तबियत बिगड़ रही है। वे वापस जाने के लिए मुड़ती हैं। पर क़दम उनका साथ नहीं देते। एक बेहोशी-सी उन पर तारी होने लगती है। काश, मिस्टर गिल यहाँ होते। वे थरथराते हाथों से बैग से मोबाइल निकालती हैं। डिस्प्ले पर डबडबाती आँखों से 'नो नेटवर्क' का साइन देख उनकी चिंता बढ़ जाती है। हिम्मत जुटा कर गेट की सीढ़ियाँ उतरती हैं। शरीर किसी कटे पेड़ की भाँति गिरने ही वाला होता है तभी एक वृद्ध सज्जन उन्हें बीच ही लपक कर पकड़ लेते हैं “ओए मंजीते दी माँ। कि हुआ तैनू। अभी तो भली चंगी सी।” जिन मज़बूत बाँहों ने बेहोशी से गिरती हुयी मिसेज़ गिल को सहारा दिया वे कोई और नहीं बल्कि मिस्टर गिल थे।

1 टिप्पणियाँ

  • 2 Feb, 2022 03:07 AM

    साधुवाद! किसी भी गृहस्थी रूपी विस्तृत दायरे को छोटा करके मिल-जुल कर कैसे रहा जाये, उस परिवार के सुशील सदस्यों पर निर्भर करता है। तो क्या करोना के लिए बनाये गये ये गोल-गोल दायरे सभी नागरिक मिलकर सदा के लिए मिटा नहीं सकते?

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