अपना घर, पराया घर
नवरात्रा
माँ कह रही थीं, “एक दिन सारी बेटियों को अपने घर जाना ही पड़ता है।”
“तो ये घर किसका है?” मैंने माँ से पूछा . . .
मैं अब छोटी बच्ची नहीं थी, ये मेरा सोलहवाँ जन्मदिन था। बचपन से ही ससुराल की बातें सुनकर बड़ी हुई हूँ मैं। नानी के घर छुट्टियों पर जाने का मज़ा ही अलग होता है, लेकिन जब वही नानी माँ थोड़ी-सी गड़बड़ होते ही सास और ससुराल की बातों से डराए तो पूरा मज़ा ही ख़राब हो जाता है। मेरा बचपन बहुत सुंदर था लेकिन इन बातों से कौन-सी लड़की बच पाई है आज तक, जो मैं कुछ ख़ास होती। ‘मुझे मेरे घर जाना है’ ये बात शायद मुझे पैदा होते ही बता दी गई थी। पर मन में कुछ सवाल थे, जैसे, अगर सास इतनी ही बुरी होती है की ग़लती होते ही डाँटे तो मुझे ऐसी सास के पास भेजना ही क्यों चाहते हैं? और मैं तो ससुराल में नई–नई जाऊँगी तो वो घर मेरा कैसे हुआ? पर ना तो मैं इन सवालों के जवाब जानती थी और ना पूछना मुझे कभी आसान लगा।
दिल में इतना कुछ था कि मेरे जन्मदिन पर भी जब मेरी ही माँ मुझे पराया साबित कर रही थीं, तब मैंने पूछ ही लिया कि ये घर आख़िर है किसका? हालाँकि जवाब मुझे पता था—आख़िर बेटियाँ पराई होती हैं बेटे नहीं, और भैया तो हमेशा से ही माँ के लाड़ले रहे हैं!
. . . माँ ने आँखों में चमक और चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लिए कहा, “ये घर उसका है जो यहाँ दुलहन बनकर आएगी।” मैं हैरान थी, जिसका अभी तक नाम भी नहीं पता था उसके आते ही सब कुछ उस पर लुटाने का बेसब्री से इंतेज़ार कर रही थी मेरी माँ।
क्या सास सच में बुरी होती है? आख़िर कौन-सा घर सच में अपना होता है, कौन-सा पराया?