अमृत वृद्धाश्रम
विजय कुमार सप्पत्तिएक नयी शुरुवात
मैंने धीरे से आँखें खोलीं, एम्बुलेंस शहर के एक बड़े हार्ट हॉस्पिटल की ओर जा रही थी। मेरी बगल में भारद्वाज जी, गौतम और सूरज बैठे थे। मुझे देखकर सूरज ने मेरा हाथ थपथपाया और कहा, "ईश्वर अंकल, आप चिंता न करे, मैंने हॉस्पिटल में डॉक्टर्स से बात कर ली है, मेरा ही एक दोस्त वहाँ पर हार्ट सर्जन है, सब ठीक हो जायेगा।" गौतम और भारद्वाज जी ने एक साथ कहा, "हाँ सब ठीक हो जायेगा।" मैंने भी धीरे से सर हिलाकर हाँ का इशारा किया। मुझे यकीन था कि अब सब ठीक हो जायेगा।
मैंने फिर आँखे बंद कर लीं और बीते बरसों की यात्रा पर चल पड़ा। यादों ने मेरे मन को घेर लिया।
||| कुछ बरस पहले |||
कार का हॉर्न बजा। किसी ने ड्राइविंग सीट से मुँह निकाल कर आवाज़ लगाई, "अरे चौकीदार, दरवाज़ा खोलना।"
मैंने आराम से उठकर दरवाज़ा खोला। एक कार भीतर आकर सीधे पार्किंग में जाकर रुकी। मैं धीरे-धीरे चलता हुआ उनकी ओर बढ़ा। कार में से एक युवक और युवती निकले और पीछे की सीट से एक बूढ़ी माता। युवक कुछ बोलता, इसके पहले ही मैंने कहा, "अमृत वृद्धाश्रम में आपका स्वागत है, ऑफ़िस उस तरफ़ है।"
मैंने गहरी नज़रों से तीनों को देखा। ये एक आम नज़ारा था इस वृद्धाश्रम के लिए। कोई अपना ही अपनों को छोड़ने यहाँ आता था। सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से भरी चुप्पी थी और बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती है। खालीपन का अहसास, सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंततः यही अहसास इंसान को मार देता है।
तीनों धीरे-धीरे मेरे संग ऑफ़िस की ओर चल दिए। मैं बूढ़ी अम्मा को देख रहा था। वो करीब करीब मेरी ही उम्र की थी। बहुत थकी हुई लग रही थी, उसके हाथ काँप रहे थे। उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। अचानक चलते चलते वो लड़खड़ाई तो मैंने उसे झट से सहारा दिया और उसे अपनी लाठी दे दी। लड़के ने ख़ामोशी से मेरी ओर देखा। मैंने बूढ़ी अम्मा को सांत्वना दी।
"ठीक है अम्मा। धीरे चलिए, कोई बात नहीं। बस आपका नया घर थोड़ी दूर ही है।"
मेरे ये शब्द सुनकर सब रुक से गए। युवती के चेहरे का गुस्सा कुछ और तेज़ हुआ। लड़के के चेहरे पर कुछ और उदासी फैली और बूढ़ी माँ के आँखों से आँसू छलक पड़े। युवती गुर्राकर बोली, "तुम्हें ज़्यादा बोलना आता है क्या? चौकीदार हो, चौकीदार ही रहो।"
मैंने ऐसे दुनियादार लोग बहुत देखे थे और वैसे भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं इन ज़मीनी बातों से बहुत ऊपर आ चुका था। मैंने कहा, "बीबीजी, मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही, अब इनका घर तो यही है।"
युवती गुस्से से चिल्लाई, "हमें मत समझाओ कि क्या है और क्या नहीं।"
युवक ने उसे शांत रहने को कहा। बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर आँसू अब बहती लकीर बन गए थे।
ये शोर सुनकर ऑफ़िस से भारद्वाज और शान्ति दीदी बाहर आये। उन्होंने पूछा, "क्या बात है ईश्वर किस बात का शोर है?"
ने ठहर कर कहा, "जी, कोई बात नहीं, बस ये आये हैं। बूढ़ी अम्मा को लेकर।"
युवती फिर भड़क कर बोली, "तुम जैसे छोटे लोगों के मुँह नहीं लगना चाहिए।"
भारद्वाज जी सारा मामला समझ गए। उन्होंने शांत स्वर में कहा, "मैडम जी, यहाँ कोई छोटा नहीं है और न ही कोई बड़ा। ये एक घर है, जहाँ सभी एक समान रहते हैं। और मुझे बड़ी ख़ुशी होती अगर ऐसा ही घर समाज के हर हिस्से में भी रहता!"
युवती कसमसा कर चुप हो गयी। युवक ने सभी को भीतर चलने को कहा। जाते-जाते बूढ़ी अम्मा ने मुझे पलटकर देखा। मैंने उसे आँखों ही आँखों में एक अपनत्व भरी सांत्वना दी!
ऑफ़िस में मैंने बूढ़ी माता के लिए कुर्सी लाकर रख दी। मैं उन सभी को और इस फानी दुनिया के ख़त्म होते रिश्तों को देखते हुए ख़ुद दरवाज़े के पास खड़ा रहा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद युवक धीरे से बोला, "भारद्वाज जी, आपसे कल बात हुई थी, मैं अमित हूँ, ये मेरी माँ है। इनके बारे में आपसे बात की थी।" इतना बोलने के बाद वो चुप हो गया। वो असहज सा था। उसका गला रुक-रुक जाता था। मैंने अपने लम्बे जीवन में ये सब बहुत देखा था। मैंने युवती की ओर देखा। वो अभी भी गुस्से में ही थी। बूढ़ी अम्मा अपने बेटे की ओर देख रही थी, इस आशा में कि अब जो होने वाला है, वो नहीं होगा और वो फिर वापस चल देंगे। लेकिन मैं जानता था, ये नहीं होने वाला था।
मैंने चुपचाप अलमारी से रजिस्टर और रसीद बुक निकाल कर भारद्वाज जी के सामने रख दिया। भारद्वाज जी ने अमित को वृद्धाश्रम के खर्चे के बारे में बताया। अमित ने चुपचाप अपने पर्स से रुपये निकाल कर दे दिये और ज़रूरी कागज़ात पर दस्तख़त कर दिए।
बूढ़ी अम्मा की आँखों से आँसू बहे जा रहे थे वो अब भी अपने बेटे को देखी जा रही थी। भारद्वाज जी ने धीरे से कहा, "अब सब ठीक है जी।" ये सुनते ही युवती उठकर खड़ी हो गयी चलने के लिए। बूढ़ी अम्मा ने अपने आँसू पोंछ दिए और युवती से कहा, "बहू, अमित का ख़्याल रखना।" युवती ने कोई जवाब नहीं दिया और बाहर की ओर चल दी। युवक बैठा रहा चुपचाप। फिर उसकी आँखों में से भी आँसू टपक पड़े। बूढ़ी अम्मा ने कहा, "जाने दे बेटा। सब ठीक है। यहाँ ये सब मेरा ख़्याल रखेंगे। तू अपना ख़्याल रखना, समय पर खाना खा लिया करना।"
युवक, बूढ़ी औरत के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा, "माँ मुझे माफ़ कर दे।"
माँ बेचारी क्या करती। वो तो है ही ममता की मूरत। उसने उसे उठाया और कहा, "अमित, कोई बात नहीं, चलो अपना घर बार सँभालो, मेरा क्या है, आज हूँ, कल नहीं। तू जा। हाँ, अब कभी मुझसे मिलने मत आना।"
युवक अवाक सा चुप खड़ा रहा। ये ख़ामोशी विदाई की थी। ये ख़ामोशी रिश्तों के टूटने की थी। ये ख़ामोशी; इंसान की इंसानियत के मरने की भी थी। इतने में दो आवाज़ें एक साथ आई। उस युवती की, जो बाहर से चिल्ला रही थी, "अब चलो भी, यहीं नहीं रहना है मुझे" और दूसरी आवाज़ शान्ति की थी, जिसने बूढ़ी अम्मा को सहारा देकर अन्दर चलने के लिए कहा था।
युवक चुपचाप हार और बेचारगी को अपने चेहरे पर लिए बाहर की ओर चल दिया। बाहर जाते हुए उसने मुझे कुछ रुपये देने चाहे और कहा, "चौकीदार भैय्या, माँ का ख़्याल रखना।" मैंने उसके पैसे वापस लौटाते हुए कहा, "माँ का ख़्याल तो हम रख लेंगे अमित बाबू। आप सोचो, आपका माँ जैसा ख़्याल अब कौन रखेंगा। और यहाँ पैसे नहीं प्यार का सौदा होता है।" युवक ख़ामोशी से मुझे देखता रह गया।
युवक-युवती कार की ओर चल दिये, बूढ़ी अम्मा शान्ति दीदी के साथ भीतर की ओर चल दी। भारद्वाज जी मुझे देखते हुए अलमारी की ओर चल दिए और मैं फिर से अपनी जगह गेट पर चल दिया।
मेरे लिए ये कहानी लगभग हर महीने की थी। जब कोई न कोई किसी न किसी अपने को यहाँ छोड़ जाता है। हाँ आज की गाथा थोड़ी अलग सी थी। लड़का ज़िन्दगी के पेशोपेश में था, पर कायर था, ख़ैर। मैंने मन ही मन गिनती की, अब यहाँ २६ लोग हो गए थे। ये वो बूढ़े थे, जिनमें से किसी का कोई नहीं था, इसीलिए वो यहाँ थे और किसी का हर कोई होते हुए भी यहाँ था। कोई गरीब था, कोई अमीर था, पर एक बात सबमें एक समान थी, वो ये कि सबके सब इस जगह पर अकेले ही बन कर आये। और यहाँ आकर एक दूसरे से मानसिक और भावनात्मक रूप से जुड़ गए। यहाँ की बात कुछ और है। यहाँ सबको एक अपनापन मिलता है। घर से अलग होकर भी यहाँ घर जैसा प्रेम और अपनत्व मिलता है।
||| बहुत बरस पहले |||
इस जगह का नाम अमृत वृद्धाश्रम था। और मेरा नाम ईश्वर। पता नहीं मेरी माँ ने क्या सोच कर मेरा नाम इतना अच्छा रखा था। जब मैं बीस बरस का था, तब मैं अपनी माँ के साथ अपना गाँव छोड़कर यहाँ आया था, तब ये एक छोटा सा हॉस्पिटल था। डॉक्टर अमृतलाल नामक सज्जन इस जगह के मालिक थे। इस हॉस्पिटल में माँ का इलाज होने लगा और फिर मुझे भी कहीं नौकरी चाहिए थी सो मैं इस हॉस्पिटल का वार्ड बॉय + चौकीदार + सारे बचे हुए काम करने वाला बन गया था। माँ का बहुत इलाज हुआ, उसे टी.बी. थी पर वो बच नहीं सकी। करीब एक साल के बाद वो चल बसी। अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं था, सो मैं यहीं का होकर रह गया। धीरे-धीरे अमृतलाल जी का मैं विश्वसनीय बन गया। हॉस्पिटल बड़ा होने लगा, लोग आने लगे। अमृतलाल जी का यहाँ कोई न था जो यहाँ रह सके। एक अकेला बेटा गौतम था जो कि डॉक्टर बनने की चाह में चंडीगढ़ में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। ये उसका आख़िरी साल था। अमृतलाल जी चाहते थे कि वो यहीं इसी जनता हॉस्पिटल में आकर काम करे। लेकिन उसके इरादे कुछ और थे, वो आगे की पढ़ाई के लिए लन्दन जाना चाहता था और इसी बात पर अक्सर दोनों पिता पुत्र में तेज़ बातचीत हो जाती थी।
हॉस्पिटल बढ़ रहा था, सस्ता हॉस्पिटल होने की वज़ह से बहुत से गरीब यहाँ आते थे। अमृतलाल जी की पुश्तैनी संपत्ति से ये हॉस्पिटल चल रहा था। मैं हॉस्पिटल का हर काम कर लेता था। सब मुझे पसंद भी करते थे। मैं मेहनती था और माँ के गुज़रने के बाद हर किसी की सेवा करता था। और सभी इसी सेवाभाव से ख़ुश थे। अमृतलाल जी मेरा ख़्याल रखते थे। मैं उन्हीं के साथ उन्हीं के घर पर रहता था। एक दिन उनके मित्र भारद्वाज जी उनसे मिलने आये। दोनों बहुत सालों के बाद मिले थे। मैंने उनके लिए खाना बनाया। खाने के दौरान भारद्वाज जी ने अमृतलाल जी से कहा कि उनकी बहू उनसे ठीक बर्ताव नहीं करती है और वो बहुत दुखी हैं। अमृतलाल ने बिना सोचे कहा कि वो यहीं आकर रहें और उनके साथ इस हॉस्पिटल की देखभाल करें। भारद्वाज को जैसे मन चाहा वरदान मिल गया। वो यहीं रह गए। अमृत जी का घर बड़ा सा था, मैं उनके लिए खाना बनाता, घर का रखरखाव करता और वहीं रहता। दोपहर में हॉस्पिटल के छोटे-बड़े काम करता। बस ज़िन्दगी कट रही थी। ये हॉस्पिटल एक बहुत बड़े परिवार का अहसास दिलाता रहता था।
मेरे मन में कभी शादी करने का ख़्याल भी नहीं आया। काम इतना रहता था कि किन्हीं और बातों के लिए समय ही नहीं मिल पाता था। इतने सारे लोगों की सेवा में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती, बदले में मुझे आशीर्वाद और प्रेम ही मिलता। सब ने मुझे हमेशा अपना ही समझा।
समय बीतने के साथ भारद्वाज जी ने उस हॉस्पिटल के पिछले हिस्से में एक वृद्धाश्रम खोला। जहाँ उन बूढ़े व्यक्तियों के रहने की व्यवस्था की गयी थी, जिनका सबकुछ होकर भी, कहीं कोई नहीं था, कहीं कुछ नहीं था। मैंने धीरे-धीरे ये हिस्सा सँभालना सीख लिया। मेरे विनम्र और दयालु स्वभाव की वज़ह से सब मुझे अपना ही मानने लगे।
एक दिन भारद्वाज का लड़का आया अपनी पत्नी के साथ, जायदाद माँगने के लिए। खूब हंगामा हुआ, भारद्वाज जी ने गुस्से में सारी जायदाद इस वृद्धाश्रम के नाम लिख दी और उसी वक़्त से अपने बेटे, बहू से रिश्ता तोड़ लिया। मैं अवाक था। मैंने अक्सर यहाँ एक घर को टूटते और दूसरे घर को बनते देखा है।
हम तीनों मैं, अमृतलाल जी और भारद्वाज जी दीन-दुखियों की सेवा में ही अपना सारा सुख ढूँढते थे। फिर वो दिन भी आ ही गया जो मुझे कभी पसंद नहीं था। अपनी पढ़ाई पूरी करके अमृतलाल जी का लड़का लन्दन जाने की तैयारी के साथ आया और अमृतलाल जी को अपना फैसला सुना दिया। अमृतलाल जी ने कहा, "ठीक है पढ़ाई पूरी करके वापस आ जाओ और ये हॉस्पिटल संभालो," लड़के ने मना कर दिया। लड़के ने खुले रूप से कहा कि वो इन गरीबों के लिए नहीं बना है और न ही वो कभी यहाँ आना चाहेगा। उसने पिताजी से कहा, या तो वो उसके साथ चले या यहीं रहें। अमृतलाल जी अवाक रह गए। उन्होंने कहा, "ये मेरा घर है, ये सभी मेरे अपने लोग, मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाऊँ, मैं ही इन सबका सहारा हूँ।"
ने कहा, "आप ने इन सब का ठेका नहीं लिया हुआ है। मैं आपका अपना बेटा हूँ, आपका खून हूँ, आपको मेरा साथ देना चाहिए।"
अमृतलाल जी ने कहा, "डॉक्टर तू बना है, लेकिन सेवाभाव मन में नहीं आया है।"
लड़के ने कहा, "सेवा करने के लिए मैंने पढ़ाई नहीं की है। मैंने एक सुख भरे जीवन की कल्पना की है, जो कि यहाँ रहने से नहीं मिलेगा। आप मेरे साथ चलिए," पर अमृतलाल जी नहीं माने। मैं चुप था। भारद्वाज जी भी चुप थे। अमृतलाल जी ने उसकी पढ़ाई के लिए पैसों की व्यवस्था कर दी और चुपचाप सोने चले गए। लड़का दूसरे दिन चला गया, अकेला ही बिना अपने पिता को साथ लिये। हमेशा के लिए।
अमृतलाल जी उसका पैसा भेजते रहे। वो पढ़ता रहा, उसने वहीं लन्दन में अपने साथ काम करने वाली डॉक्टर लड़की से शादी कर ली और फिर बीतते समय के साथ, उसे एक बेटा भी पैदा हुआ, उसका नाम सूरज था, ये नाम अमृतलाल जी ने ही सुझाया था।
फिर वो दिन भी आ ही गया, जिसे मैं कभी भी याद भी नहीं करना चाहता।
उस दिन अमृतलाल जी का जन्मदिन था। उन्हें सुबह से ही सीने में दर्द था। उनका बेटा गौतम लन्दन से आया हुआ था और वो शाम को मिलने आने वाला था। अमृतलाल जी की उससे मिलने की बहुत इच्छा थी, क्योंकि उनका पोता सूरज भी साथ आया हुआ था। उन्होंने अब तक उसे नहीं देखा था। हॉस्पिटल में उस दिन कोई नहीं था। हम सब उनके कमरे में थे, मैंने और भारद्वाज जी ने उनके कमरे को सजाया। शाम को करीब एक वकील साहब आये। अमृतलाल जी, वकील साहब और भारद्वाज जी के साथ अपनी बैठक में चले गए। करीब एक घंटे बाद वो सब बाहर निकले। अमृतलाल जी के चेहरे पर परम संतोष था।
फिर वो इन्तज़ार करने लगे अपने बेटे, बहू और पोते का। मैंने सभी के लिए अच्छा सा खाना बनाया हुआ था और हाँ, उनके लिए केक भी ले कर आया था। हम सब इन्तज़ार ही कर रहे थे कि अचानक शहर में तेज़ बारिश होने लगी, बर्फ के ओले भी गिरे, और आँधी-तूफ़ान का माहौल हो गया। बिजली भी चली गयी, मैंने और भारद्वाज जी ने लालटेन जलाई। हम इन्तज़ार कर ही रहे थे कि उनका बेटा गौतम अपने परिवार के साथ आये लेकिन कुछ ही देर बाद उसका फ़ोन आ गया कि वो इस आँधी-तूफ़ान में नहीं आ सकता। यह सुनकर अमृतलाल जी का चेहरा बुझ गया। उन्होंने हमें सो जाने को कहा। और वापस अपनी बैठक में जाकर दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। हम दोनों चुपचाप थे। रात गहराती जा रही थी। मैंने भारद्वाज जी से कहा कि वो भी सो जाएँ। उनके सोने के बहुत देर बाद रात करीब दो बजे मैंने हिम्मत करके अमृतलाल जी की बैठक में झाँक कर देखा, वो चुपचाप बैठे थे। बार-बार वो अपने फ़ोन की ओर देख उठते थे कि शायद वो बजे और संदेशा आये कि उनका गौतम आ रहा है। लेकिन उसने न बजना था सो न बजा। केक वैसे ही पड़ा रहा। खाना किसी ने भी नहीं खाया।
मैं वहीँ बैठक के बाहर बैठे-बैठे सो गया। सुबह-सुबह भारद्वाज जी ने मुझे उठाया। वो और अमृतलाल जी दोनों रोज़ सैर को जाते थे। रात बीत चुकी थी। आँधी-तूफ़ान भी ठहर गया था। मैंने दरवाज़ा ठकठकाया। दरवाज़ा अन्दर से बंद था, कोई आवाज़ नहीं आई, हम दोनों आशंकित हो उठे और ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा ठोका। फिर नहीं खुला तो तोड़ दिया। वही हुआ जिसका डर था। अमृतलाल जी चल बसे थे। मैं और भारद्वाज जी रोने लगे। इतने में गौतम अपनी पत्नी और सूरज के साथ आ पहुँचा। उसे सब कुछ समझते हुए देर नहीं लगी। वो अचानक ही चुप हो गया। भारद्वाज जी ने कहा, "गौतम तुम यहीं बैठो। इतने बड़े इंसान हैं, बहुत से लोग आयेंगे। बहुत सा काम करना होगा, हम सब इंतज़ाम करते हैं।"
अंतिम संस्कार हुआ, सारे शहर से लोग आये। मुझे भी उस दिन पता चला कि अमृतलाल जी की इस शहर में कितनी इज़्ज़त थी। गौतम चुपचाप बैठा रहा, बहू भी चुपचाप ही थी, हाँ पोता सूरज थोड़ा परेशान सा था, विचलित था। उसने दादा को पहले कभी नहीं देखा था और जब देखा तो इस अवस्था में देखा था। वो बार-बार रो उठता था। गौतम चुपचाप इसलिए था कि उसने शहर के लोगों की भीड़ देखी थी और उसे समझ में आ गया था कि उसने क्या खो दिया है? मैं ख़ुद हैरान सा था कि कितने सारे लोग उनसे प्रेम करते थे और कितनों का रो-रोकर बुरा हाल था।
रात को सारा कार्यक्रम निपटने के बाद, हम जब बैठे तो सिर्फ झींगुरो की आवाज़ें ही सुनाई दे रही थीं। सभी बहुत चुपचाप थे। मैं था, भारद्वाज जी थे और गौतम था। बहू, सूरज के साथ सोने चली गयी थी, सूरज को हल्का सा बुखार आ गया था और वो मन से भी परेशान था। इतने में वकील साहब आये। वो अमृतलाल जी के पुराने मित्र थे। उन्होंने कहा, "कल रात को शायद अमृत को आशंका हो गयी थी कि वो शायद ज़्यादा दिन नहीं रहेगा। उसने अपनी वसीयत करवा ली थी। मैं उसे आप सब को बताना चाहता हूँ।"
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील ने मुझे बैठने को कहा। वकील ने कहा, "जायदाद के तीन हिस्से हुए हैं। एक बड़ा हिस्सा इस हॉस्पिटल और वृद्धाश्रम को दिया गया है। दूसरा हिस्सा पोते सूरज के लिए दिया गया है और तीसरा हिस्सा चौकीदार ईश्वर के नाम है।"
ये सुनकर मैं बहुत ज़ोर से चौंका। मैंने कहा, "साहब, कोई गलती हो गयी होगी, मुझे कोई पैसा रकम नहीं चाहिए। मैं तो यही रहूँगा। सब कुछ मेरा अब यही है। अमृत साहब मेरे पिता जैसे थे। उनके बाद अब मेरा कौन है।" कहकर मैं रोने लगा।
वकील ने समझाया, "भाई जो उन्होंने कहा, वो मैंने किया, भारद्वाज भी थे वहाँ। पूछ लो।"
मैंने कहा, "मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा हिस्सा भी सूरज को ही दे दीजिये।" वकील ने मेरा सर थपथपाया। मैं चुपचाप आँसू बहाने लगा।
गौतम चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा, "कल सुबह मिलते हैं, राख को नदी में बहाने जाना है।"
रात बहुत गहरी हो रही थी और मेरी आँखों में नींद नहीं थी। कल तक मैं कुछ भी नहीं था और आज इस जायदाद के एक हिस्से का मालिक। लेकिन मैं इस रुपये का क्या करूँगा, मेरे तो आगे पीछे कोई है ही नहीं। नहीं नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो इसी जगह के एक कोने में पड़ा रहूँगा।
सुबह हुई, हम सब वही पास में मौजूद नदी के किनारे चले, रास्ते में शमशान घाट से अमृत जी की चिता में से राख ली और नदी में जाकर उसे बहा दिया, मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। भारद्वाज भी रोने लगे। उनका सबसे पुराना और गहरा मित्र जो चला गया था। लड़का जो कल तक कुछ नहीं बोला, आज रोने लगा, उसकी पत्नी भी रोने लगी और सूरज भी रोने लगा। कुछ देर के शोक के बाद सब वापस आये। गौतम पास के ट्रेवल एजेंट के पास गया और वापसी की टिकट करवा ली। वो अचानक ही बहुत शांत हो गया था, अब उसे समझ आ गया था कि जो उसने खोया था वो कभी भी वापस नहीं आने वाला था।
तेरहवीं के भोज के बाद, गौतम, मेरे और भारद्वाज के पास आया, उसने उन्हें एक लिफाफा दिया और कहा, "मैं सारी वसीयत, जो पिताजी ने सूरज के नाम की है, उसे इस वृद्धाश्रम और ईश्वर को देता हूँ। इसके सही हक़दार यही दोनों हैं।"
मैं शांत था। मैंने एक बार कहा, "गौतम भैय्या, अगर यहीं रुक जाते तो हम सभी को बहुत ख़ुशी होती।"
गौतम चुपचाप रहा, कुछ नहीं कहा। शायद कुछ कहने के लिए था ही नहीं।
दूसरे दिन गौतम वापस चला गया। शायद हमेशा के लिए। शायद कभी भी वापस नहीं आने के लिए।
मैंने वकील से कहकर सारी जायदाद जो कि मेरे नाम थी, उसे उस वृद्धाश्रम के नाम कर दी। अब चूँकि अमृत जी नहीं रहे तो धीरे-धीरे हॉस्पिटल बंद हो गया और फिर कुछ दिनों के बाद सिर्फ, आज का ये अमृत वृद्धाश्रम ही रह गया। भारद्वाज जी सारा काम-काज सँभालते और मैं सबकी सेवा करते रहता।
मैंने भारद्वाज से वचन लिया कि वो किसी से इस बारे में नहीं कहेंगे कि इस वृद्धाश्रम में मेरा क्या योगदान है। मैंने कहा कि मैं इसी चौकीदार वाले रूप में ख़ुश हूँ। और मुझे यहीं बने रहने दीजिये। भारद्वाज जी नहीं माने, मैंने फिर उन्हें अपनी कसम दी, वो चुप हो गए। उन्होंने कहा, "बेटा, तू सच में ईश्वर है। भगवान हर किसी को तेरे जैसी ही औलाद दे।"
वृद्धाश्रम चल पड़ा। यहाँ हर महीने कोई न कोई आ जाता, कोई न कोई गुज़र जाता। मैं कई बातों का अभ्यस्त हो चुका था। ज़िन्दगी चल रही थी, एक दूसरे के सुख दुःख बाँटते थे। मिलकर काम करते थे, हमने कुछ नर्सें रखी हुई थीं। कुछ लोग रखे हुए थे। सब इस आश्रम की देखभाल करते थे। और भारद्वाज जी ने सभी से कह दिया था कि ईश्वर की बात हर कोई माने। बहुत कम लोग मुझे ईश्वर कहकर पुकारते थे। ज़्यादातर लोग मुझे सिर्फ चौकीदार ही कहते थे। और मुझे इससे कोई शिकायत भी नहीं थी।
||| कुछ बरस पहले |||
दिन शान्ति दीदी का फ़ोन आया। शान्ति हमारे पुराने हॉस्पिटल में नर्स थी, उसके आगे-पीछे कोई नहीं था, एक भतीजा था, जो कि उसकी नौकरी पर अपनी ज़िन्दगी के मज़े ले रहा था। फिर शान्ति को एक दिन एक्सीडेंट में पैर में चोट लग गयी। वो अब काम पर नहीं आती थी। फिर भी अमृत जी ने इंतज़ाम करवाया था कि उसे हर महीने, उसकी तनख्वाह मिल जाए।
उस दिन उसका फ़ोन आया कि उसके भतीजे ने उसका घर ले लिया है और उसे घर से निकल जाने को कह रहा है, अब वो बेसहारा है। मैंने और भारद्वाज जी ने कहा कि वो बेसहारा और बेआसरा नहीं है, वो यहाँ आ जाए और फिर मैं उसे लाने के लिए आश्रम की गाड़ी लेकर उसके घर पहुँचा। मैं जब उसे लेने गया तो देखा वो घर के बाहर एक छोटी सी पेटी लेकर चुपचाप बैठी है। मुझे देखकर वो उठी, पैर की चोट की वज़ह से वो लड़खड़ा गयी, मैंने दौड़कर उसे सँभाला। मैंने उससे कहा और कोई सामान, जो ले जाना हो? उसने कहा, "कुछ नहीं, जो कुछ कमाया, वो ये घर ही था। वो भी छिन गया। अब कहीं कुछ नहीं रहा। लेकिन हाँ वृद्धाश्रम जाने के पहले मुझे तुम कुछ जगह ले जा सकते हो तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी।"
हा, "कोई बात नहीं आप चलो तो।"
मैंने उसे गाड़ी की पिछली सीट पर बिठाकर उससे पूछा, "बताओ कहाँ जाना है?"
उसने कहा, "मैं हर जगह एक बार जाना चाहती हूँ जहाँ मैंने अपनी ज़िन्दगी का कोई हिस्सा जिया है।"
मैंने धीरे से पूछा, "अब इस बात का क्या मतलब है?"
उसने शायद रोते हुआ कहा था, "मुझे पता है, मैं उस वृद्धाश्रम में आख़िरी दिन बिताने जा रही हूँ जहाँ से अब कभी भी नहीं लौट पाऊँगी।"
मैं चुप हो गया। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था। मुझे भी शायद रुलाई आ रही थी। पर मैंने चुपचाप गाडी आगे बढ़ा दी। उसने रास्ते में रुककर कुछ फूल खरीदे।
सबसे पहले वो एक मोहल्ले में, एक बड़े से घर के पास मुझे लेकर गयी, उसे देखते ही उसकी आँखों में बड़ा दर्द सा उमड़ आया। उसने मुझे बताया कि वो ब्याह कर इसी घर में आई थी, फिर इसी घर में उसके पति का देहांत हो गया। और इसी घरवालों ने उसे उसकी बच्ची सहित घर से बाहर निकाल दिया।
फिर वो मुझे एक ईसाई हॉस्पिटल में लेकर आई, जहाँ उसने मुझे बताया कि यहाँ एक सिस्टर मेरी थी, जिसने उसे सहारा दिया और यहाँ पर उसे नर्सिंग सिखाया। फिर वो यहीं पर नर्स बनी और फिर इसके बाद वो हमारे हॉस्पिटल में नर्स बनी।
फिर वो मुझे एक कब्रिस्तान में लेकर आई, उसने रास्ते में जो फूल खरीदे थे, उन्हें लेकर उतर गयी। मैंने उसे एक प्रश्न भरी निगाह से देखा। उसने आँखों में आँसू भरकर कहा, "यहाँ मेरी बच्ची की कब्र है, बचपन में ही कुपोषण की वज़ह से बीमारियों की शिकार हुई और फिर एक दिन इस दुनिया से चल बसी।"
उसी की कब्र पर वो फूल चढ़ाकर आना चाहती थी। मेरे मुँह से कोई बोल न फूटे। वो भीतर चली गयी और मैं फूट-फूट कर रो पडा।
कुछ देर बाद वो आई तो बहुत संयत दिख रही थी, वो शायद जी भरकर रो चुकी थी और अपना मन हल्का कर चुकी थी। वो गाड़ी में आकर चुपचाप बैठ गयी और एक गहरी साँस लेकर कहा, "चलो, मेरे नए घर में मुझे ले चलो।"
मैंने गाड़ी को मोड़ते हुए धीरे से पूछा, "एक बार क्या वो अपना घर भी देखना चाहेंगी, जिसे वो छोड़ कर आ रही हैं।"
उसने एक आह भरी और थोड़ा सोचकर कहा, "हाँ एक बार दिखा दो, मैंने बड़ी मेहनत से उसे बनाया है। पर उसे भी इस दुनिया के मक्कार लोगों ने छीन लिया।"
मैंने चुपचाप उसे उसके घर के पास रोका। वो बहुत देर तक कार में बैठकर उसे देखती रही और रोती रही, फिर उसने धीरे से कहो, "चलो चलते हैं।"
मैं उसे यहाँ ले आया, तब से वो यहीं पर है और इसी आश्रम का एक हिस्सा है। और मेरी तरह सबकी सेवा करती है।
||| अब |||
इसी तरह की कहानियों और किस्सों से भरा हुआ है ये अमृत वृद्धाश्रम। लेकिन एक बात यहाँ बहुत अच्छी है, लोग यहाँ आकर अपने दुःख भूल जाते हैं, और सब एक ही परिवार का हिस्सा बनकर रहते हैं। मेरे परिवार का, हाँ, ये मेरा ही तो परिवार है एक बड़ा सा भरा हुआ परिवार। मेरा अपना तो कोई है नहीं, लेकिन ये सभी अब मेरे अपनी ही बन गए हैं। ये तो परमात्मा की ही कृपा थी कि अमृतलाल जी, भारद्वाज जी और मैं, हम सब की सोच एक जैसी थी। और इस सपने को हमने जीवन दिया। यहाँ हर धर्म के लोग रहते है और यहाँ हर त्यौहार भी मनाया जाता है। बस जीवन के अंतिम दिनों में सभी ख़ुश रहें यही हम सबकी एक निरंतर कोशिश रहती है।
बस एक कमी है, और वो है - हॉस्पिटल की सेवाएँ, उसके लिए हमें दूसरों पर, दूसरे हॉस्पिटल्स पर निर्भर रहना पड़ता था। अब सभी बूढ़े थे। सो हमेशा कोई न कोई बीमार ही रहता था। अक्सर हमें किसी न किसी को हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था। आश्रम के पास एक एम्बुलेंस थी और शांति थोड़ा-बहुत प्राथमिक उपचार कर लेती थी, पर हमेशा ही हॉस्पिटल जाना पड़ जाता था। अक्सर ऐसे मौकों पर एक कसक सी दिल में उठती थी कि, काश, उस वक़्त, अमृतजी का बेटा, गौतम यहाँ रुक गया होता, या पढ़ाई पूरी करके यहीं बस गया होता तो वो हॉस्पिटल कभी भी बंद नहीं होता।
खैर विधि का विधान जो भी हो।
||| आज |||
आज सुबह मैं थोड़ा जल्दी उठ गया हूँ। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शायद उम्र का असर था। पता नहीं मेरी उम्र कितनी हो गयी है, आजकल कुछ याद भी नहीं रहता।
भारद्वाज जी ने आकर मुझे देखा और कहा, "ईश्वर शायद तुम्हारी तबियत ख़राब है, तुम आराम कर लो।"
मैंने कहा, "जी कुछ नहीं, थोड़ी सी हरारत है शायद उम्र थक रही है।"
इतने में एक कार आकर रुकी। हम दोनों ने पलटकर दरवाज़े की ओर देखा। कार से अचानक एक आवाज़ आई, "ईश्वर काका!" मेरे लिए ये एक नया संबोधन था। सब मुझे चौकीदार ही कहकर पुकारते थे। बाहर की दुनिया में किसी को मेरा असली नाम पता नहीं था। हम दोनों ने गौर से देखा। कार का दरवाज़ा खुला और एक सुखद आश्चर्य की तरह अमृतलाल जी का बेटा गौतम, एक नौजवान के साथ उतरा। मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने भारद्वाज जी से कहा, "आज सूरज हमारे आँगन में उगा है, ज़रूर ये सूरज होगा। अमृत जी का पोता।"
पास आकर गौतम ने कहा, "हाँ, ईश्वर ये सूरज है। हमारा सूरज, आप का सूरज, हम सब का सूरज।"
सूरज ने मेरे पास आकर मेरे पैर छुए तो मेरी आँखें छलक गयीं, पहली बार किसी ने मेरे पैर छुए थे। मेरे हाथ काँपते हुए आशीर्वाद देने के लिए उठ गए। सूरज ने कहा, "ईश्वर काका। मैं आज आपसे अपने पिता जी की तरफ़ से माफ़ी माँगने आया हूँ और दादाजी का सपना पूरा करने आया हूँ।" मेरी आँखें ख़ुशी से बह रही थीं। सूरज ने आगे कहा, "मैंने भी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर ली है और अब मैं और पिताजी यहीं रहेंगे और दादाजी का सपना पूरा करेंगे।"
मैंने कंपकंपाते स्वर में पूछा, "और माँ?"
गौतम ने कहा, "वो नहीं रही। इसी साल उसका देहांत हो गया और मैंने फैसला कर लिया है कि अब हम यहीं आकर रहें, आपने और भारद्वाज अंकल ने जो निस्वार्थ सेवा का बीड़ा उठाया है, अब हम भी उसमें अपना योगदान देंगे। यही सच्चे अर्थों में हमारी वापसी होगी, अपने देश के लिए, अपने पिता के लिए, उनके उद्देश्य के लिए और यही हमारा प्रायश्चित होगा।" इतना कहकर गौतम ने अपनी आँखों से आँसू पोंछे।
शान्ति जो इतने देर से पीछे से आकर हमारी बातें सुन रही थी, वो अपने आँसू पोंछते हुए वापस मुड़कर आश्रम के भीतर गयी और एक पूजा की थाली ले आई। आरती का दिया जला कर दोनों की आरती उतारते हुए उसने कहा, "पधारो आपणे देश बेटा!" हम सबकी आँखे भीग उठीं।
गौतम ने एक लिफाफा निकाल कर मेरे और भारद्वाज जी के हाथों में दिया और कहा, "इसमें मेरी सारी संपत्ति के कागज़ात हैं, मैंने अपना सबकुछ इस वृद्ध आश्रम को दे दिया है। और इसकी सारी ज़िम्मेदारी ईश्वर और भारद्वाज अंकल को सौंपी है, सब कुछ अब इस आश्रम की मिट्टी के लिए।"
ये सुनकर मैं रो पड़ा, मेरा दर्द और बढ़ गया और मैं काँप कर गिर पड़ा। सूरज ने तुरंत मेरी नब्ज़ को देखा और कहा, अरे आपकी नब्ज़ डूब रही है। जल्दी इन्हें हॉस्पिटल ले चलो।"
मैं ने कहा, "बस बेटा आज का ही इन्तज़ार था, तुम्हारी वापसी हो गयी और मुझे अब क्या चाहिए? बस अब चलता हूँ।"
सूरज ने कहा, "कुछ नहीं होगा, आपको माइल्ड हार्ट अटैक आया है, सब ठीक हो जायेगा।"
भारद्वाज जी ने जल्दी से आश्रम के एम्बुलेंस का इंतज़ाम किया और मुझे उसमें लिटाकर, शहर के एक हार्ट हॉस्पिटल की ओर चल पड़े।
||| एक नयी शुरुआत |||
हॉस्पिटल आ गया था, मुझे स्ट्रेचर पर ऑपरेशन थिएटर के भीतर ले जाया जा रहा था, मैंने चारों तरफ़ सभी को देखा। मुझे ख़ुशी थी। अमृत वृद्धाश्रम अब बेहतर हाथों में था। अमृतलाल जी का और मेरा सपना सच हो गया था। मैंने सभी को प्रणाम किया और भीतर की ओर चल पड़ा। अब सब ठीक हो गया था। अब कोई दुःख मन में नहीं था। और मुझे यकीन था कि मैं भी ठीक हो ही जाऊँगा, फिर से अपने अमृत वृद्धाश्रम की सेवा करने के लिए।