आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया
विजय कुमार सप्पत्ति.....
विजय कुमार सप्पत्ति
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
कुछ याद दिला गया, कुछ भुला दिया,
मुझको; मेरे शहर ने रुला दिया.....
यहाँ की हवा की महक ने बीते बरस याद दिलाये
इसकी खुली ज़मीं ने कुछ गलियों की याद दिलायी....
यहीं पहली साँस ली थी मैंने,
यहीं पर पहला कदम रखा था मैंने ...
इसी शहर ने ज़िन्दगी में दौड़ना सिखाया था.
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
दूर से आती हुई माँ की प्यारी सी आवाज़,
पिताजी की पुकार और भाई बहनों के अंदाज़..
यहीं मैंने अपनों का प्यार देखा था मैंने...
यहीं मैंने परायों का दुलार देख था मैंने .....
कभी हँसना और कभी रोना भी आया था यहीं, मुझे
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
कभी किसी दोस्त की नाखतम बातें..
कभी पढ़ाई की दस्तक़, कभी किताबों का बोझ
कभी घर के सवाल, कभी दुनिया के जवाब ..
कुछ कहकहे, कुछ मस्तियाँ, कुछ आँसू, कुछ अफ़साने .
थोड़े मन्दिर, मस्जिद और फिर बहुत से शराबखाने ..
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
पहले प्यार की खोई हुई महक ने कुछ सकून दिया
किसी से कोई तक़रार की बात ने दिल जला दिया ..
यहीं किसी से कोई बन्धन बाँधे थे मैंने ...
किसी ने कोई वादा किया था मुझसे ..
पर ज़िंदगी के अलग मतलब होते है, ये भी यहीं जाना था
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
एक अदद रोटी की भूख ने आँखों में पानी भर दिया
एक मंज़िल की तलाश ने अनजाने सफ़र का राही बना दिया..
कौन अपना, कौन पराया, वक़्त की कश्ती में, बैठकर;
बिना पतवार का माँझी बना दिया; मुझको; मैं...
वही रोटी, वही पानी, वही कश्ती, वही माँझी आज भी मैं हूँ..
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
लेकर कुछ छोटे छोटे सपनो को आँखों में, मैंने
जाने किस की तालाश में घर छोड़ दिया,
मुझे ज़माने की ख़बर न थी.. आदमियों की पहचान न थी.
सफ़र की कड़वी दास्ताँ क्या कहूँ दोस्तों ....
बस दुनिया ने मुझे बंजारा बना दिया ..
आज मेरे शहर ने मुझे रुला दिया.....
आज इतने बरस बाद सब कुछ याद आया है ..
क़ब्र से कोई “विजय” निकल कर सामने आया है..
कोई भूख, कोई प्यास, कोई रास्ता, कोई मंज़िल ..
किस किस की मैं बात करूँ ,
मुझे तो सारा जनम याद आया है...
आज मेरे शहर ने मुझे बहुत रुलाया है..