अब मकाँ होते हैं कभी घर हुआ करते थे
डॉ. विजय कुमार सुखवानीअब मकाँ होते हैं कभी घर हुआ करते थे
बड़े पुरसकूँ तब शामोसहर हुआ करते थे
आमदा हैं काटने पर जिन्हें आज हम
बुजुर्गों की मानिंद वो शजर हुआ करते थे
ताउम्र माँ बाप को उठाये फिरे शानों पर
किसे यकीं होगा ऐसे बशर हुआ करते थे
आज अपने भी खटकते हैं हमें आँखों में
किसी वक्त गैर भी नूरेनज़र हुआ करते थे
इस कदर कुशादा हैं इंसान की ज़रूरतें
वहाँ इमारतें हैं जहाँ समंदर हुआ करते थे
इंसानियत वफ़ा सच्चाई ईमानदारी
इन्सान में क्या क्या हुनर हुआ करते थे
1 टिप्पणियाँ
-
10 Jun, 2019 08:04 AM
very nice every line ! i am very happy hardly.
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- अच्छे बुरे की पहचान मुश्किल हो गई है
- अब मकाँ होते हैं कभी घर हुआ करते थे
- इन्सान की हर ख्वाहिश पूरी नहीं होती
- कहाँ गुज़ारा दिन कहाँ रात
- कुछ इस तरह से ज़िन्दगी को देखना
- दिल के लहू में
- ना मिली छाँव कहीं यूँ तो कई शज़र मिले
- ये धूपछाँव क्या है ये रोज़ोशब क्या है
- सब खामोश हैं यहाँ कोई आवाज नहीं करता
- साथ मेरे रही उम्र भर ज़िंदगी
- हम कहीं भी रहें माँ की दुआ साथ रहती है
- विडियो
-
- ऑडियो
-