आँगन के पाथर

15-07-2020

आँगन के पाथर

राजू पाण्डेय (अंक: 160, जुलाई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

पैर जैसे ही पड़े आँगन में बरसों बाद
एक एक पाथर मचल उठा, सुबक पड़ा
उसके आने के अहसास से
ये तो वही पैर थे जो  बरसों पहले
बचपन में दिनभर धमाचौकड़ी करते थे
आँगन के इन पाथरों पर
और कभी कमेड या छोटे पत्थर से
लिखते इन पर  अ आ इ ई, १ २ ३ ४


कभी पिठ्ठू, कंचे, गिल्ली डण्डा खेलते
कभी बैट बॉल घुमाते थे इसी आँगन में
कभी ईजा के साथ लीपने में लग जाते
गाय के गोबर से नन्हे हाथों से
तुरन्त उखाड़ फेंकते थे
कहीं भी घास उग आये आँगन में
एक तरफ़ सूखते रहते थे अनाज और दालें
और एक कोने में बँधी होती थी दुधारू गाय


फिर अचानक बंद हो गयी पैरों की चहलक़दमी
और अकेले रह गए
बंद मोल के साथ आँगन के पाथर
धीरे धीरे उगने लगी घास और
हावी हो गयी कंटीली झाड़ियाँ
दरवाज़े में लगे संगल ने भी निराश हो
छोड़ दिया था दरवाज़े का साथ
दीमक लगा दरवाज़ा खड़ा था किसी तरह
शायद उनके आने की प्रतीक्षा में


उसके पैरों के साथ कुछ और पैर थे
कुछ नये पैर थे तो कुछ पुराने
पाथर जो पैर पैर से वाकिफ़ थे
बैचेन हो गये उन पुराने पैरों को ना पाकर
जो अचानक ग़ायब हुये थे इन्हीं पैरों के साथ
शायद वो फिर लौट कर ना आये
पाथर खुद को सँभालते बुदबुदाये
लौटकर आने वालों में कुछ नन्हे पैर भी तो हैं
शायद फिर से लौट आये वो पुरानी रौनक़
और फिर शुरू हो जायें इस आँगन में
पिठ्ठू, कंचे, गिल्ली डण्डा, बैट बॉल के खेल
फिर सजाने लगे हम पाथरों को
लिखकर अ आ इ ई, १ २ ३ ४

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