तेरे इंतज़ार में
अमित राज ‘अमित’तेरे इंतज़ार में रात ऐसे गुज़र गई,
जैसे सूखे फूल से ख़ुश्बू निकल गई।
जो दूर-दराज़ लगती है, हमें नज़रों से,
पास आकर देखा, वो पगडंडी मिल गई।
महफ़िल सजी, बातें जमी, उसका दीदार हुआ,
सब चुप थे, कमबख़्त बात मुँह से निकल गई।
जब जब खुले आगोश में लेने की चाह की,
वो पत्थर सी चट्टान मोम सी पिघल गई।
मुद्दतों बाद आया, वो दर हमारा सजाने,
अब क्या फ़ायदा, सारी जवानी ढल गई।
हम इसी कशमकश में उलझते आये ‘अमित’,
जब भी जाम उठाये, मय हाथ से फिसल गई।
हमने तो उम्र भर सहा, अपने कन्धों पर ग़म,
उसने एक बार क्या देखा, आह निकल गई।