साथ मेरे रही उम्र भर ज़िंदगी
डॉ. विजय कुमार सुखवानीसाथ मेरे रही उम्र भर ज़िंदगी
आज भी है पहेली मगर ज़िंदगी
सुबह से पूछा तो रात उसने कहा
रात ने ये कहा है सहर ज़िंदगी
देता है कौन इन साँसों को जुंबिश
है किसके नूर से मुनव्वर ज़िंदगी
फ़ुर्सत के चार पल भी मय्यसर नहीं
काम हैं बेशुमार मुख़्तसर ज़िंदगी
इन्सानों से जुदा उनके साये यहाँ
ज़िंदगी से यहाँ बेखबर ज़िंदगी
कोई भी जाने ना मंजिल है कहाँ
बस दौड़ में शामिल है हर ज़िंदगी
उम्रभर इसकी कशिश कम होती नहीं
खूबसूरत है ये इस कदर ज़िंदगी
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