राग-विराग – 008
डॉ. प्रतिभा सक्सेनाउस दिन रत्नावली ने कहा था, "मैं हूँ न तुम्हारे साथ।"
"हाँ, तुम मेरे साथ हो।"
पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं। अपनी बात कैसे कहें?
नहीं, नहीं कह सकते।
रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते।
मन में बड़े वेग से उमड़ता है - "यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं नितान्त लाचार हूँ। जिस कुघड़ी में जन्मा उसका कोई उपचार नहीं। जो मेरा होगा छिन जायेगा यही देखता आया हूँ। जो मेरे अपने थे काल के ग्रास बन गये। जन्म से भटका हूँ। यही लिखा कर लाया हूँ।"
मन ही मन कहते हैं, "नहीं रतन अब नहीं। तुमसे नहीं कह सकता पर तुम्हें खोना भी नहीं चाहता। मैं निरुपाय हूँ।"
और वे चले गये थे, रतन से बिना मिले।
नन्ददास हैं यहाँ, रतन की खोज-ख़बर रखते हैं, स्थिति सँभाल लेंगे।
रतन ने कहा था– "राम ने जो दिया, सिर झुका कर ग्रहण कर लिया, उनकी शरण में जाकर उस सब से निस्तार पा लिया। अब काहे का संताप?"
साथ में यह भी कहा, "मैं हूँ न तुम्हारे साथ, तुम्हारा ध्यान रखने को। काहे की चिन्ता?"
और यदि रत्ना भी . . . नहीं, नहीं!
और वह उन की थाह पाना चाहती है। मन को पढ़ना चाहती है।
उसकी दृष्टि तुलसी अपने मुख पर अनुभव करते हैं।
"क्या देख रही हो, मेरी विपन्नता?"
"नहीं, देख रही हूँ मेरी पूज्या सास कैसी सुन्दर रही होंगी, सब कहते हैं न कि तुम उनकी अनुहार पर हो। तुम्हारा रंग तो, रगड़ खा-खा कर बाहर घूम-घूम कर कुछ झँवरा गया है लेकिन . . वे तो . . . "
उस दिन तुलसी जब पूर्व-जीवन की स्मृतियों में भटक रहे थे, बातों-बातों में रत्ना के सामने मन की तहें खोलने लगे।
नीमवाली ताई से उन्होंने पूछा था, "मेरी माँ कैसी थी, ताई?"
"साक्षात् देवी, इतने कष्टों में रही कभी शिकायत नहीं।"
"तेरे मुख में उसकी झलक है। माँ से बहुत मिलता है रे! मुझे तो उसी का ध्यान आता है तुझे देख कर . . .।"
कई बार बड़े ध्यान से अपना मुख देखते हैं तुलसी। हाँ, दर्पण में देखते हैं, अपने प्रतिबिम्ब के पार खोजते हैं भाल पर सिन्दूर-बिन्दु धारे एक वत्सल मुख को। अंकन झिलमिला कर खो जाते हैं, सब अस्पष्ट रह जाता है।
रत्ना के नयनों में भीगापन उतर आता है।
स्तब्ध रह जाती है, गहन उदासी की छाया मुखमण्डल पर छा जाती है। मौन सुनती रहती है– भूख से व्याकुल बालक जब किसी द्वार याचना करने जाता तो लोगों की आँखों में कैसे-कैसे भाव तैर जाते थे। सहमा सा, अपना हाथ बढ़ा देता, रूखा-सूखा कुछ डाल दिया जाता, उसके लिये वही छप्पन-भोग होता था, बस एक नीम के नीचेवाली ताई प्यार से कुछ पकड़ा देती– "अरे, बाम्हन का छोरा है, भाग का दोस कि अनाथ बना भटक रहा है।"
लोग कहते, "अभागा है, माँ तो जनमते ही सिधार गई।"
"अरे, अभुक्तमूल में जन्मा है, जो इसका अपना होगा, उस पर संकट पड़ेगा।"
बालक सुनता है,चुप रहता है।
कुछ नहीं कर सकता वह!
वे बातें करती है –
"राम, राम, कैसी साध्वी औरत रही। कभी किसी से किसी की बुराई-भलाई में नहीं पड़ी। जैसा था चुपचापै गुज़र करती रही।"
"रंबोला को देखो तो माँ का मुख याद आ जाता है, कितना मिलता-जुलता है, डील-डौल बाप पर जाता लगता है।"
"आँखें बिलकुल माँ की पाई हैं।"
"माँ, ओ माँ . . . . . ." – अंतर चीख़ उठता, "कैसी थी मेरी माँ?"
उदास बालक मन पर भारी बोझ लिये आगे चल देता, हताशा छा जाती। कहाँ जा कर रहे? क्या करे? . . . पेट की आग चैन नहीं लेने देती।
भूल नहीं पाता वे तीखे वचन, बेधती निगाहें . . .
आज स्थिति बदल गई है। वह सामर्थ्य पा गया है उसे साथी मिल गया है।
रत्ना कहती है तुलसी से, "जहाँ अपना बस नहीं, अपना कोई दोष नहीं उसके लिये हम उत्तरदायी नहीं, उस पर दुःख और पछतावा कैसा?"
"बचपन पर किसका बस। सब दूसरों के बस में होते हैं। तुम्हारे करने को कुछ नहीं था, तुम्हारा बस चला तुमने कर के दिखा दिया।
"गुरु ने पहचान ली थी तुम्हारी सामर्थ्य।"
"हाँ, आज जो कुछ हूँ उन्हीं के चरणों की कृपा है।"
"पात्र की उपयुक्तता भी एक कारण है।
"तुम में निहित था जो कुछ, उसे सामने ला कर निखार दिया उन्होंने। पारखी थे वे। गुरु का महत्व किसी प्रकार कम नहीं।
"अब काहे का पछतावा?"
पर जो बात निरन्तर सालती है वही नहीं कह पाते।
मन ही मन समझते हैं – "हानि–लाभ, जीवन–मरण, जस–अपजस विधि हाथ!
अदृष्ट के अपने लेख हैं, वहाँ कोई उपाय नहीं चलता।
किसी का कोई बस नहीं।
कभी तुलसी को लगता है रत्ना को अकेला छोड़ दिया, कैसे क्या करती होगी? अपराध-बोध सालता है। मन को समझा लेते हैं, बुद्धिमती है। किसी-न किसी प्रकार निभा लेगी, मनाते हैं वह सकुशल रहे।
मेरे मानस में प्रभु राम, माँ-जानकी को नहीं त्यागेंगे, स्वयं को एकाकी नहीं कर लेंगे। वे चिर-काल साथ रहेंगे, अओध्या के राज-सिंहासन पर और लोक-मानस में, दोनों युग-युग राज करेंगे!
— (क्रमशः)