इधर से ही
सुशांत सुप्रियलुटेरे इधर से ही गए हैं
यहाँ प्रकृति की सारी ख़ुशबू
लुट गई है
भ्रष्ट लोग इधर से ही गए हैं
यहाँ एक भोर के माथे पर
कालिख़ लगी हुई है
फ़रेबी इधर से ही गए हैं
यहाँ कुछ निष्कपट पल
ठग लिए गए हैं
हत्यारे इधर से ही गए हैं
यहाँ कुछ अबोध सपने
मार डाले गए हैं
हाँ, इधर से ही गुज़रा है
रोशनी का मुखौटा पहने
एक भयावह अँधेरा
कुछ मरी हुई तितलियाँ
कुछ टूटे हुए पंख
कुछ मुरझाए हुए फूल
कुछ झुलसे हुए वसंत
छटपटा रहे हैं यहीं
लेकिन सबसे डरावनी बात
यह है कि
यह जानने के बाद भी
कोई इस रास्ते पर
उनका पीछा नहीं कर रहा
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- 'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
- इधर से ही
- इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
- ईंट का गीत
- एक जलता हुआ दृश्य
- एक ठहरी हुई उम्र
- एक सजल संवेदना-सी
- किसान का हल
- ग़लती (सुशांत सुप्रिय)
- जब आँख खुली
- जो कहता था
- डरावनी बात
- धन्यवाद-ज्ञापन
- नरोदा पाटिया : गुजरात, 2002
- निमंत्रण
- फ़र्क
- बोलना
- बौड़म दास
- महा-गणित
- माँ
- यह सच है
- लौटना
- विडम्बना
- सुरिंदर मास्टर साहब और पापड़-वड़ियों की दुकान
- स्टिल-बॉर्न बेबी
- हक़ीक़त
- हर बार
- अनूदित कहानी
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-