दौर-ए-सियासत अंधा है
पूजा अग्निहोत्री
दौर-ए-सियासत सचमुच अंधा है। यह वह दौर है जहाँ अस्मत की बोली लगती है, और सियासत उसकी नीलामी में माइक थामे खड़ी होती है। ग़रीब के घर में लँगोटी तक नहीं, पर नेता के सूट पर “मेड इन इटली” का टैग ज़रूर होता है। रईसों के चिराग़ में तेल इतना है कि बिजली विभाग भी उनसे लोन ले सकता है, पर आम आदमी के घर का छोटा-सा दीपक अब भी आँसू के तेल से जलता है।
हर नई सुबह अख़बार के पहले पन्ने पर किसी ‘बेटी की चीख़’ छपती है, और शाम तक वही ख़बर ब्रेकिंग से हटकर “पुरानी” हो जाती है। हमारी संवेदनाएँ अब 4G की स्पीड से मर रही हैं—दुःख को भी हम “स्क्रोल” कर जाते हैं। कोई बच्ची रेप होती है, और समाज अगला न्यूज़ चैनल खोजने निकल जाता है। देश के कानों में अब पिघला हुआ सीसा नहीं, बल्कि इमोशनल हेडफ़ोन लगा है—जो दर्द को म्यूट कर देता है। हम सब इतने आदतन बेशर्म हो चुके हैं कि मासूमियत की चीख़ अब बैकग्राउंड नॉइज़ बन गई है।
क़ानून नाम की चीज़ अब फोटोशॉप हो चुकी है—काग़ज़ पर मौजूद, ज़मीन पर ग़ायब। क़ातिल खुले में घूमते हैं, न्याय टेलीविज़न डिबेट में बहस करता है। सवाल यह नहीं कि दुष्कर्मी ज़िन्दा क्यों हैं, सवाल यह है कि इंसानियत अब तक मरी क्यों नहीं। सरकारें न्याय का आश्वासन देती हैं—जैसे दुकानदार “अगले हफ़्ते का ऑफ़र” देता है। हर बार वही स्क्रिप्ट—“कड़ी निंदा”, “जाँच होगी”, “न्याय मिलेगा”—और फिर अगले दिन नई बच्ची का नाम बदलकर वही प्रेस कॉन्फ़्रेंस।
ऐसा लगता है कि ये दरिंदे किसी सरकारी योजना के तहत पैदा किए जा रहे हैं—“बेटी बचाओ” नारे के नीचे “दरिंदा बढ़ाओ” का बोनस लिखा है शायद। इन नरपिशाचों को जीवित रखना ही उनके हौसले का ऑक्सीजन है। सरकार के लिए ये अपराधी नहीं, वोट-बैंक के वोटर हैं। विडंबना देखिए—हमारे देश में कन्याओं की पूजा होती है, और उसी दोपहर उन्हें जला दिया जाता है। यहाँ नवरात्रि में दुर्गा के नाम की घंटियाँ बजती हैं, और दूसरे कमरे में किसी बच्ची की अस्मत बुझा दी जाती है।
जम्मू-कश्मीर के कठुआ में आठ साल की आसिफा के साथ जो हुआ, वह सिर्फ़ एक अपराध नहीं, यह हमारे समाज का “मैनुअल ऑफ़ मॉरलिटी” फाड़ने जैसा था। विशेष अदालत ने छह को दोषी माना, पर सातवें को रिहा किया—क़ानून ने कहा “सबूत नहीं थे”, जैसे इंसानियत के शव के ऊपर फ़ाइलें रखकर सच्चाई को दबा दिया गया हो। उफ़्फ़ . . . आख़िर कब तक? कब तक माँएँ अपनी बेटियों की रक्षा के लिए देवी बनेंगी? कब तक काली का रूप धरना पड़ेगा? माँ अब अगर हथियार उठाएगी, तो न्यायपालिका शायद उसी पर “क़ानून हाथ में लेने” का मुक़द्दमा ठोक देगी।
कहाँ से आते हैं ये लोग? कौन से नरक के विश्वविद्यालय से इनकी डिग्री जारी होती है? इतनी छोटी बच्ची देखकर भी जिस्म काँपता नहीं, तो समझिए आदमी नहीं, वायरस चल रहा है समाज में—और हमारी न्याय प्रणाली अब एंटीवायरस की डेमो वर्ज़न पर चल रही है। कुछ लोग कहते हैं—“लड़कियों की ग़लती है, कपड़े छोटे हैं।” तो पूछना पड़ता है—आठ महीने की बच्ची ने कौन से फ़ैशन शो में हिस्सा लिया था? पंद्रह महीने की गुड़िया ने किसको रिझाया था? ढाई साल की बच्ची के उभार देखकर अगर कोई उत्तेजित होता है, तो असली अपराधी उसका शरीर नहीं, समाज की सोच है—जो सड़ी हुई है, लेकिन ख़ुद को “संस्कृति” कहती है।
यह सोच कभी माँ की उम्र की महिला पर टूटती है, कभी स्कूल से लौटती बच्ची पर। दरअसल ये अपराधी नहीं, हमारे बीच पल रहे “संस्कारों के जॉम्बी” हैं—जो सिर झुकाने की जगह निगाहें उठाना सिखाते हैं। हमारी न्यायव्यवस्था इतनी लचर है कि जैसे संविधान ने ख़ुद सोचा हो—“चलो थोड़ा आराम करते हैं।” दुष्कर्मी बाहर, बेटी का परिवार अंदर—अपमान, ग़रीबी और अन्याय के भीतर। और हम सब बस कैंडल जलाकर लौट आते हैं—फोटो खिंचवाकर, हैशटैग लगाकर, और फिर भूल जाते हैं।
हम हर बार सरकार को कोसते हैं, पर समाज की मानसिकता को कभी नहीं। क़ानून तो बाद में दोषी ठहराता है, हम पहले ही अपराधी बना चुके होते हैं—कपड़ों से, जाति से, धर्म से। ईद की सेवईं भी कभी-कभी ख़ून की मिठास में पकती हैं, क्योंकि इंसान अब त्योहार नहीं, धर्म के नाम पर नफ़रत की फ़ैक्ट्री चलाने लगा है। हिंदू-मुसलमान दोनों उस कटघरे में खड़े हैं जहाँ इंसानियत को कोई ज़मानत नहीं मिलती।
इतिहास की किताबें अब अपराध की पाठशाला हैं—जहाँ दुष्कर्मियों के नाम पर अध्याय हैं, और शौर्य का ज़िक्र “फुटनोट” में होता है। अकबर के सौंदर्यबोध पर फ़िल्में बनती हैं, पर महाराणा प्रताप की त्यागगाथा को “बजट” नहीं मिलता। यह वही मानसिक ग़ुलामी है जो आज भी हमारी आत्मा को बाँधकर रखती है। हम सब ख़ुद में छोटी-छोटी गांधारियाँ हैं—आँखों पर पट्टी बाँधकर बैठी हैं, जब तक घर में हादसा नहीं होता, तब तक मौन साधे रहती हैं। फिर एक दिन मोमबत्ती जलाकर कहती हैं—“अब कुछ करना होगा।” पर मोमबत्ती पिघलते ही वह जोश भी टपक जाता है।
निर्भया के बाद भी दुष्कर्म जारी हैं, क्योंकि न्याय जुमलों में मिलता है, जेलों में नहीं। सजा ऐसी होनी चाहिए कि अपराधी मौत माँगे और क़ानून बोले—“अभी नहीं।” तभी शायद कोई अगली आसिफा बच पाए। अब वक़्त है कि हम माँ की गोद में छिपी लक्ष्मी नहीं, माँ के भीतर सोई काली को जगाएँ। ये समाज तब बदलेगा जब बेटियाँ डरना छोड़ेंगी, और बेटे शर्म करना सीखेंगे। क्योंकि असली सुधार “महिलाओं को सशक्त” करने से नहीं, “पुरुषों को मनुष्य” बनाने से आएगा।
और आख़िर में यही कहना काफ़ी है—हम नहीं बदलेंगे तो, जग कैसे बदलेगा। हम नहीं सुधरेंगे तो, इंसान कैसे बचेगा। सियासत अंधी है—लेकिन सबसे बड़ा अंधापन वो है, जो हम सबकी आँखों में रोज़ दिखता है, जब हम किसी मासूम की मौत को बस “एक ख़बर” मानकर स्क्रॉल कर जाते हैं।