विडम्बना
सुशांत सुप्रियतुम आई
और मैं तुम्हारे लिए
सर्दियों की
गुनगुनी धूप हो गया
तुमने मुझे देखा
और मैं तुम्हारे लिए
गर्मियों की
घनी छाँह हो गया
तुम्हें एक बग़ीचे की
ज़रूरत थी
और वह मैं हो गया
मैं तुम्हारी प्यास के लिए
मीठे पानी का
कुआँ हो गया
मैं तुम्हारी भूख के लिए
तवे पर फूली हुई
रोटी हो गया
सुस्ता कर
अपनी भूख-प्यास मिटा कर
तुम एक बार फिर
तरो-ताज़ा हो गई
और तब
मैंने देखा
तुम पूछ रही थीं :
"कहाँ रह गया
वह बेवक़ूफ़-सा आदमी
जो मेरी मदद करने का
दावा कर रहा था!"
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