स्वर्ग का अंत

01-04-2021

स्वर्ग का अंत

विवेक कौल (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

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संग्राम 
संध्यापूर्व ही 
शुरू हुआ था
जब बौने पेड़ों 
की परछायाँ
उनसे कहीं 
लंबी हो गयीं
और 
अंधकार ने
दस्तक दे दी। 
 
साँझ की धुँध में 
पस्त, परास्त सूर्य
लज्जा से लाल 
डरा, सहमा हुआ 
सियाह तिमिर 
में डूबे बादलों के 
अर्ध-पारदर्शी 
आवरण में लिपटा 
पर्वतों के पीछे 
छिपता छुपाता 
अंततः अस्त हुआ
 
और रात्रि की कालिमा 
गगन की लालिमा 
निगल गयी। 
अँधेरे का काला 
कम्बल ओढ़े 
सहमे से,
निशब्द
पेड़ पौधे 
पर्वत, नाले 
मौन खड़े
अपना रंग खो 
काली आकृतियाँ 
बन गए,
और प्रकृति 
अपनी साँस रोके 
थी
स्थिर, स्तंभित।

कुछ कुत्ते 
कुछ देर
भौंके ज़रूर 
फिर चुप हुए 
शायद अकेले 
पड़ गए
और 
नीरवता की 
गगनभेदी ख़ामोश 
नाद में 
उनकी पुकार 
अनसुनी सी रह गयी 

अनिश्चित 
टिमटिमाते तारे 
अंधकार में 
रक्षक और भक्षक 
का भेद करने में
असमर्थ 
हो गए 
. . . और 
इस अँधेरे में 
गुल कर 
स्वर्ग लुप्त 
हो गया!

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