रुक जाना नहीं कहीं तुम हार कर

01-01-2021

रुक जाना नहीं कहीं तुम हार कर

नीलू चोपड़ा (अंक: 172, जनवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हॉल का पर्दा हवा से रह रह कर उड़ रहा था। हॉल के साथ लगे बेड रूम में खड़ी मैं छिप कर मुझे देखने आए मेहमानों की बातचीत सुनने की कोशिश में थी। तभी पर्दा ज़ोर से लहराया तो सामने बैठे मम्मी पापा दिख गए चेहरे पर खिली मुस्कराहट ने राज़ खोल दिए यानि लड़के वालों की हाँ है। मेरा दिल ख़ुशी से झूम उठा। उसी समय मम्मी पापा उठ खड़े हुए और बाहर आँगन में आ गए। मैं भी छिपती-छिपाती किचन में जा पहुँची। आँगन में पापा मम्मी भाई के साथ कुछ। मन्त्रणा करने लगे। भाई को फल के टोकरे और मिठाई के डिब्बे लाने का आदेश था। यानि मेरा रोकना होने जा रहा है। मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था। देखते-देखते यह रस्म हो गई। मैं नीची नज़रों से होने वाले पति की ओर देख रही थी पर वह कुछ ख़ास उत्सुक नहीं थे। कोने में खड़े अपने पिता से कुछ बातें कर रहे थे। मैं सोचने लगी उनके दिल में ख़ुशियों की लहरें क्यों नहीं उठ रही। परिचय के दौरान भी वही घिसी-पीटी बातें पढ़ाई कितनी की और क्या काम जानती हो। फिर मन को समझाया लड़का अच्छा है सरकारी नौकरी में अच्छी पोज़िशन पर है और क्या चाहिए। मुझमें कमी कुछ भी नहीं थी। उच्च शिक्षिता रूप रंग देने में ईश्वर ने कृपणता नहीं की थी। बस बात उम्र पर आकर अटक जाती। मैं 30 साल की हो चुकी थी। तीन बड़ी बहनों का विवाह होते-होते मेरे विवाह की उम्र निकलती जा रही थी। कई लड़के वाले देखने आते पर उम्र के बारे में सुन कर मना कर देते या फिर अंकल टाइप लड़के मिलते जो मुझे और घरवालों को पसन्द न आते उम्र तो बीतती जा रही थी मम्मी पापा की चिन्ता बढ़ती जाती थी। 

मन अतीत की गलियों में घूमने लगा था। कॉलेज के वो सुहाने दिन। अधिकतम नम्बर पाकर कॉलेज में सब की प्रिय बनी। वहाँ रूप रंग देख कर लोगों की सराहनीय नज़रें जब चेहरे पर पड़तीं तो मन ही मन फूली न समाती। रूप गुण के कारण घर भर की लाडली थी। संस्कार तो हम सब बहनों को घुट्टी में पिलाए गए थे। मन अरमानों के पंख लगा कर ऊँची-ऊँची उड़ान भरने लगा था। धीरे-धीरे पंख कमज़ोर पड़ने लगे। उड़ान शिथिल हो गई कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी। लगभग सभी सहेलियाँ एक-एक करके विदा हो गईं। मेरे घर मे दो बड़ी बहनों की शादी के लिए ज़द्दोजेहद की जा रही थी। इसी कोशिश में काल का पहिया दो साल आगे चला गया। भरसक प्रयासों के बाद बहनों की शादियाँ तय हुईं। बहनों की विदाई तक कुछ और महीने मेरी उम्र में जुड़ गए। नए सिरे से एक और शादी की तैयारी के लिए घर वाले थक चुके थे। वो तन-मन-धन तीनों से स्वयं को समर्थ नहीं पा रहे थे। कुछ विश्राम कर आगे की मुहिम के लिए चलना चाहते थे। मैं उनकी मजबूरी समझ रही थी पर इस मन का क्या करती जो भविष्य के सतरंगी सपने बुनने को बेताब था। 

विवाह मुझे आसमान के चाँद की तरह लगने लगा था। जो कभी मेरे हाथों में नहीं आता था। घर मे आते शादियों के निमंत्रण पत्र मुझे बिच्छु से डंक मारते थे। रास्ता या गली में जाती कोई नवविवाहित जोड़े को देख मैं हीन भावना से ग्रस्त होने लगी। एक बार कॉलेज ने पुराने छात्रों को रीयूनियन दिवस पर बुलाया। परिवार भी निमंत्रित थे। मैं मम्मी और भाई को लेकर गई। वहाँ अधिकतर सहेलियाँ अपने पतियों और बच्चों के साथ थीं। मुझे देख के कोई सहानुभूति कोई व्यंग्य से देख रहा था कुछ सहेलियों ने तो पूछ भी लिया अभी तक नम्बर नहीं लगा। मैं कट के रह गई। घर में आते ही मैंने मम्मी व भैया के सामने अपना आक्रोश निकाला। ’देखा कैसे मुझे सब ताने मार रहीं थी अपने बच्चों को यूँ दिखा रहीं थी मानों कोई ट्रॉफी हो’। भैया तो चला गया मम्मी दुखी सी ठंडे स्वर में बोली, "क्यों अपना खून जलाती है। 

"शादी दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत चरितार्थ करती है शादी, ब्याह कोई लम्बा चलने वाला उत्सव नहीं होता। इसमे बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ भी उठानी पड़ती हैं। कई शौक़ और ख़ुशियाँ दाँव पर लगती हैं तब शादी की गाड़ी चलती है और तू कौन सा बिनब्याही बैठी रहेगी," यह कह कर माँ घुटने सहलाती हुई उठ खड़ी हुई। मम्मी की बातें सुन कर मैं शर्म और आत्मग्लानि से क्षुब्ध हो उठी। हाय मैंने आज किस रौ में बह कर यह सब कह दिया। रात बहुत बीत चुकी थी। मैं अतीत की गलियों में घूमते-घूमते थक कर न जाने कब सो गई। 

सवेरे सवेरे पापा की आवाज़ से नींद टूटी। वो सब बहनों और अन्य नज़दीकी रिश्तेदारों को फोन पर मेरे रोक्के की सूचना दे रहे थे। मैं भी उल्लसित सी उठकर दैनिक कार्यकलाप में लग गई। आज बिजली की गति से मेरे हाथ चल रहे थे। दोपहर तक तीनों बहनेंं आ गईं। एक दिन के लिए आई थीं इसलिए सब अकेली आईं थीं। सबने गले मिल कर बधाइयाँ दीं। मैं उनके गले लग रोमांचित हो उठी। घर में हँसी-मज़ाक का माहौल था। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह सब मेरी ख़ुशियों को मनाने यहाँ आए हैं। दिल चाह रहा था इन पलों को समेट कर कही छिपा दूँ । शाम को ऐसे ही ख़ुशनुमा माहौल में सब बैठे बतिया रहे थे कि मेरे होने वाले ससुराल से फोन आया। अगले महीने आने वाले नवरात्रों में विवाह की तिथि रखने का प्रस्ताव था। मम्मी-पापा तो थोड़ा घबरा गए पर बहनों ने राय दी कि अब आप की ओर से देर नहीं होनी चाहिए। देखते-देखते विवाह की तारीख़ भी पक्की हो गई। अगले दिन सवेरे ही सब बहनेंं अगले महीने शादी से 10 दिन पहले आने का वादा कर चली गईं।   

मेरी ख़ुशियों को मानो पंख लग गए। भैया और पापा बाहर के सारे काम जैसे– हलवाई केटरिंग, कार्ड, विवाह के लिए हॉल बुक करना कर रहे थे; उधर मेरा और मम्मी का लंच के बाद रोज़ बाज़ार जाने का कार्यक्रम पक्का हो गया। कुछ सामान बहनें भी लाने वाली थीं। अब तो न मम्मी को अपने घुटनों के दर्द की परवाह थी न थकावट की। मैं स्वयं को बहुत ख़ुशनसीब समझ थी। आख़िर शादी का दूर से चमकने वाला चाँद मेरी झोली में आ ही गया था। मैं इन पलों को संजो कर रखना चाहती थी। 

उच्च शिक्षा के साथ-साथ मैं कुकिंग, सिलाई-बुनाई में भी निपुण थी। हर तरह के आचार-मुरब्बे, पापड़-बड़ी बनाना पड़ोस की रूपा भाभी से सीख लिया था। सोचने लगी ससुराल जाकर सफल गृहणी और सफल पत्नी बन कर दिखाऊँगी। देखते-देखते विवाह का दिन भी आ गया। मम्मी-पापा, भाई, जीजू इन सभी ने बाहर के काम सँभाले हुए थे। मम्मी और बहनेंं सभी लेन-देन के सामान दहेज़ के सामान को स्लिप लगा कर तरतीब से रख चुकी थीं। शादी में कोई कोर-कसर न रहे इसका पूरा ध्यान रखा जा रहा था। बहनें प्यार भरे रोष से उलाहना दे रहीं थी कि हमारे विवाह में तो इतने ठाट-बाट न हुए थे। यह सब देख सुन मैं फूली न समा रही थी। 

मम्मी-पापा, बहनों-भैया से रोते-रोते विदा लेकर मैं ससुराल के लिए विदा हो गई। बस में सभी बाराती बारात का आदर-सम्मान और हुई ख़ातिरदारी की दिल खोल कर प्रशंसा कर रहे थे। कुछ रस्मों के साथ मुझे गृह प्रवेश कराया गया। मुझे एक सोफ़े पर बिठा सब अपने अपने कामों में लग गए। घर में कुछ ख़ास सामान न था। नौकरियों के कारण सब अलग-अलग शहरों में रहते थे। यहाँ कुछ ख़ास सामान न था। 
सास एक पड़ोसिन के साथ जाने वाले रिश्तेदारों को मिठाई और उपहार देकर विदा करने में व्यस्त थी। जेठानी बहुत वाचाल सी लगी। वह सिर्फ़ रिश्तेदारों के सामने घूमती हुई अपने गहने-कपड़ों के प्रदर्शन में व्यस्त थी। पति और जेठ मेरे साथ आया दहेज़ का सामान खोल कर लगा रहे थे। थकावट से मेरी नींद लग गई। जब आँखें खुली तो घर की काया पलट चुकी थी। दहेज़ में लाया सारा सामान लग गया था। हाल में सोफ़े डाइनिंग टेबल के साथ मेरी बनाई पेन्टिंग्स भी लगा दी गईं। बेड रूम में पलँग डनलप के गद्दे लगाकर बेड कवर भी मेरे ही लाए बिछे थे। मेरी हैरानी की सीमा न रही जब मुझे पता चला मेरे सोने के दौरान पति ने बड़े अधिकार से मेरे पास रखे पर्स से सूटकेसों की चाबी निकाल, चादरें तो निकाली ही वरन रिश्तेदारों के कपड़े भी निकाल लिए। उन्हीं कपड़ों के बँटवारे का एपिसोड चल रहा था। मुझे जागे देख सास बोली, "उठो बहू, मुँह धोकर कपड़े बदल लो। डिनर तैयार है।"

मैं ठगी सी उठ कर वाशरूम में चली गई। बाहर से आवाज़ सुनाई दी ’नई बहू वाली तो कोई बात नहीं कैसे नए घर में आते ही घोड़े बेच कर सो रही थी’। सुनकर मन को ठेस लगी। डिनर पर सब इकट्ठे हुए परिचय का दौर चला। मैंने पाया मेरी शिक्षा-दीक्षा सबसे ज़्यादा थी। आख़िर मिलन की वो घड़ियाँ आ ही गईं जिनके लिए मैं तरस सी गई थी। पति पलँग के किनारे आकर बैठ गए। मुझे उम्मीद थी एक प्यारे से उपहार की, पर उपहार की जगह आवाज़ आई, "आजकल कौन घूँघट निकालता है। घूँघट हटा दो।" मैंने घूँघट हटा दिया। वो बोले, "रीना यह समय तो नहीं है पर एक बात कहना चाहता हूँ।"

मैंने कहा, "निःसंकोच कहिए," मन ही मन सोचा कह कर तो देखो मैं तो तन-मन न्योछावर कर दूँगी। 

कुछ रुक कर बोले, "हमने तो सुना था तुम्हारे पिता बहुत अमीर आदमी हैं पर शादी में तो ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया। इतना तो आम लोग करते हैं," फिर हँस कर बोले, "खोदा पहाड़ निकली चुहिया। माफ़ करना बहुत तेज़ नींद आयी है।" मन में गहरी टीस उठी। थोड़ी देर में गहरी नींद में डूब गए। 

दो दिन बाद ही हम सब इनकी कार्यस्थली जयपुर आ गए। ससुर भी इन्हीं के ऑफ़िस में एक बड़ी पोस्ट पर थे। उन्हें एक बग़ीचे से घिरा सुंदर सा बँगला मिला था। हम सब साथ रहते थे। बँगला बाहर से जितना लुभावना था अंदर की सजावट उतनी ही साधारण थी। मन ही मन प्रफुल्लित थी कि पूरे बँगले की काया पलट कर रख दूँगी पर मैं मूर्ख को यह याद न रहा कि इस काम के लिये कुछ सामान और पैसा की भी ज़रूरत होती है। मेरा सारा सामान तो पुश्तैनी घर में सजा दिया था। 

काम वाली बाई लम्बी छुट्टी पर थी। मैं सास के साथ-साथ काम करने लगी, धीरे-धीरे सब तौर-तरीक़े समझ गई। सास मेरे हर काम पर पैनी नज़र रखती थीं। मीन-मेख तो नहीं निकालती पर कभी तारीफ़ के दो शब्द भी नहीं कहती थी। लगता था किसी को प्रोत्साहित करना या तारीफ़ करना इनके ख़ानदान का रिवाज़ ही नहीं था। 

जब भी घर की साज-सज्जा मैं कोई सुंदर सा बदलाव करती उसे अगले दिन फिर बदल दिया जाता। नए पर्दे, फ़नीर्चर की बहुत ज़रूरत थी क्योंकि पापा जी या इनके जानने वाले उच्च पदाधिकारियों की आना-जाना लगा ही रहता था। मैंने सरसरी तौर पर इन सबके लिए कहा तो यह बोले, "नहीं, नहीं सरकारी बँगले पर इतना धन ख़र्च करना बेबकू्फ़ी है।" मैं मन मार कर चुप रह गई। हालात यह थे कि किसी तरह से भी मुझे यह जताने की कोशिश थी कि इस घर में तुम पराये घर से आई हो। तुम्हारी कोई बात सहज ही मान लेना सम्भव नहीं है। इधर घर-ख़र्च के लिए भी तनाव सा रहने लगा। पति जो घर-ख़र्च देते थे, सास जी उसमें मेरे आ जाने के कारण इज़ाफ़ा चाहती थीं। सो सही भी था परंतु मेरे पति अरुण जी इसके लिए तैयार नहीं थे। माँ बेटे के शीत युद्ध के परिणाम मुझे सहने पड़ते। अरुण के ऑफ़िस जाते ही वह मुझे प्रताड़ित करती थी। क़ुसूर उनका था सुनाया मुझे जाता। मुझे तो स्वयं छोटे-छोटे ख़र्चों के लिए उनका मुँह ताकना पड़ता था। एक बार कुछ ज़रूरी ख़र्च के लिए मैंने अरुण से कुछ रुपये माँगे; अरुण टूर पर जा रहे थे। यह मुझ पर बरस पड़े, "घर में रहती हो। सब कुछ मिल रहा है तो पैसे किस बात के चाहिये?" अरुण के जाते ही सास जी ने भी मुझे आड़े हाथों लिया। फूँक-फूँक के क़दम रखने पर भी बात हाथों से निकली जाती थी। जीवन में उदासी ने घर बना लिया। बस खाना और सोना यही जीवन बन गया। मैं भी जीवन मे कुछ करना चाहती थी पर क्या? कोई रास्ता दिखाई न देता। क्या शादी इसी को कहते हैं पैसे-पैसे के लिए दूसरों का मुँह देखना? बात-बात पर यह अनुभव कराना कि तुम्हारी राय का यहाँ कोई महत्व नहीं; तुम पराये घर से आई हो। पगफेरे के बाद मायके जाने का अवसर न मिला। साथ वाले बँगले में शर्मा जी रहते थे। उनकी दो बेटियाँ माधवी और देविका बड़ी ही मेधावी व शालीन लड़कियाँ थीं। वो अक़्सर पढ़ाई सम्बंधित समस्याओं के निराकरण के लिए मेरे पास आ जाया करती थीं। वो दोनों मेरे तन्हा जीवन में अपने हास-परिहास से कुछ रंग भर जाती थीं। वरना मैं पेड़ से टूटी डाली या पेड़ से गिरे पत्ते की तरह जी रही थी। एक दिन सवेरे मैं अरुण के ऑफ़िस जाने के बाद बाहर लॉन में बैठी चाय पी रही थी कि माधवी आ गई बोली, "भाभी आपके लिए ख़ुशखबरी लाई हूँ।" मैं हैरान-सी हो गई। वह बोली, "भाभी हमारे विभागीय स्कूल में अस्थायी अध्यापकों के रिक्तस्थान निकले हैं। मेरा बी.एड. का रिज़ल्ट आने वाला है, मैं तो आवेदन कर रही हूँ , आप भी कर दो।" 

मैं ख़ुश हो गई क्योंकि कितनी ही बार बातों-बातों में अरुण और सासू माँ मुझे उनके मंशानुसार दहेज़ न लाने का उलाहना दे चुके थे। चलो अँधेरे में एक रोशनी की किरण दिखाई दी। अस्थायी ही सही नौकरी के अनुभव के साथ आर्थिक निर्भरता भी मिलेगी। माधवी ने यह भी बताया कि एक साल तक अच्छा कार्य देख कर स्थायी भी कर सकते हैं। 

मैं बड़ी बेकरारी से अरुण और पापा जी के आने का इंतज़ार करने लगी। 

शाम होते ही मैंने पापा जी के फेवरेट पालक के पकौड़े बनाए और अरुण के लिए गाजर का हलवा बना चाय बनाई। दोनों हाथ-मुँह धोकर चाय पीने लगे; मैं भी चाय देकर अपनी बात कहने का मौक़ा ढूँढ़ने लगी। बड़ी हिम्मत करके मैंने नौकरी के लिए आवेदन करने की आज्ञा माँगी। थोड़ी देर के लिए माहौल में चुप्पी सी छा गई फिर अरुण बोले, "अरे यह दो कौड़ी की अस्थायी नौकरी के लिए हम तुम्हें आज्ञा देंगे, यह कैसे सोच लिया?" 

पापाजी बोले नीरा, "तुम जानते हो इन टीचर्स को दिहाड़ी करने वाले टीचर्स कहते हैं। हर हफ़्ते मज़दूरों की तरह इन्हें तनख़्वाह बँटती है।" 

मैंने डरते डरते कहा, "पर रहूँगी तो अध्यापिका। क्या फ़र्क़ पड़ता है हमें मासिक वेतन दें या साप्ताहिक वेतन दें।"

यह सुन कर मेरी सासु माँ आग-बबूला हो कर बोली, "लो भाई इन्हें तो कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता! ससुर व पति दोनों उच्च पदाधिकारी और बहू दिहाड़ी पर काम करने वाली अध्यापिका।"

मैं कुछ प्रतिवाद करने ही जा रही थी कि अरुण ने जोर से कहा, "बस नीरा यह मनमानी यहाँ नहीं चलेगी। हमारी इज़्ज़त दाँव पर मत लगाओ।"

मैं हतप्रभ सी अपमानित सी उठ कर अपने कमरे की ओर जाने लगी। पकौड़े और हलवा मेरा मुँह चिड़ा रहे थे। 

मैं निराशा की गहरी खाई में गिर गई। पूरी रात निःशब्द रोते गुज़ारी। अपने मायके की याद आने लगी। इस शादी के लिए मैं कितनी उत्सुक थी। आसमां का चाँद किरचें-किरचें होकर मेरे दिल को घायल कर रहा था। अगले दिन सुबह मैं काम ख़त्म कर लॉन में बैठी थी तो माधवी आ गई बोली, "भाभी कब चलना है आवेदन पत्र देने के लिए? सभी प्रमाण पत्रों ओर मार्क स्लिप की फोटो कॉपी करवा कर अटेस्ट भी करवानी है।"

मैं ख़ामोश रही। मैं बताना चाहती थी पर घरवालों के मान-सम्मान का प्रश्न था। बार-बार पूछने पर सिर्फ़ इतना कहा कि मुझे तो घर से आज्ञा ही नहीं मिल रही। यह कहते ही मेरी आँखें छल-छला गईं। समझदार माधवी को समझते देर न लगी। मैं उठ कर अंदर जाने लगी तो माधवी ने हाथ पकड़कर रोक लिया। बोली, "भाभी मैं तो आपको बहुत समझदार और साहसी समझती थी पर आप तो बहुत कमज़ोर निकली।"

मैंने रुँधे स्वर में कहा, "बता माधवी अपने परिवार वालों के ख़िलाफ़ कैसे जाऊँ?"

माधवी बोली, "आप को कुरुक्षेत्र के युद्ध का वो प्रसंग याद है जब युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन ने अस्त्र-शस्त्र रख कर युद्ध करने से मना कर दिया था तब श्री कृष्ण जी ने उन्हें कर्म योग का महत्व समझाया था। आप भी अपने जीवन के युद्ध में कुछ बन कर आगे बढ़ना चाह रही हैं पर विरोधियों के रूप में अपने सगे-सम्बन्धियों को देख हथियार डाल दिए। याद रखिये यह आपके जीवन मे कुछ बनने का प्रश्न है उनके नहीं। आपको अपनी मंज़िल पानी है उन्होंने नहीं। इसलिए इस नौकरी को पाने की तैयारी करो। अपने शैक्षणिक योग्यताओं के अस्त्र-शस्त्र सँभालिये और हो जाइए इस जीवन युद्ध के लिए तैयार मैं आपकी सारथी बनूँगी।" 

माधवी की बातों में दम था। मेरे अंदर नए आत्म-विश्ववास ने जन्म लिया। माधवी सही कह रही है। आर्थिक तंगी मुझे है, घुटन मुझे है, अपनी शिक्षा को बेकार मैं कर रही हूँ। दहेज़ के लिए डाँट मैं खाती हूँ। तो प्रयास भी मुझे करने हैं। मैंने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया। अगले दिन मैं रोज़ से कुछ पहले उठी। दैनिकचर्या के बाद रोज़ की तरह पापाजी और अरुण का टिफ़िन और नाश्ता बनाने लगी। सासु माँ को भी नाश्ता करा मैं झटपट तैयार हो गई अपने सर्टिफिकेट की फ़ाइल ली और जाने को तैयार हो गई। सब प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखने लगे। मैं दृढ़ शब्दों में बोली, "आर्थिक तंगी मुझे है आप लोगों को नहीं। पढ़ाई-लिखाई व्यर्थ जाने की घुटन और दर्द मुझे हो रहा है तो अपनी बेहतरी के लिए भी मैं ही सोचूँगी कोई दूसरा नहीं।" यह कह कर मैं बाहर आ गई। बाहर गेट पर माधवी मेरी इतंज़ार कर रही थी। मैं अपनी मंज़िल को पाने नए उत्साह से निकल पड़ी। मन ही मन गुनगुना रही थी – रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पर चल कर मिलेंगे साए बहार के। 

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