प्रदूषण और इंसान

01-09-2020

प्रदूषण और इंसान

सौरभ मिश्रा (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

बेचारा इंसान खाए न
तो क्या करे?
पॉलीथिन बहाए न तो क्या करे?
भूख है कि हर दिन
बढ़ती ही जा रही
किसान ज़हर उगाए न
तो क्या करे?
हर दिन सुलगता सूर्य 
है ताप बढ़ता जा रहा 
नदी अपना आकार घटाए न,
तो क्या करे?
जंगल खड़ा मिल जाता है
विकास कि हर राह पर
ये सभ्यता पेड़ों को गिराए न,
तो क्या करे?
इस सदी में राम को वनवास न हो पाएगा
कैकेई अपने वचन 
भूल जाए न,
तो क्या करे?
सब जानता है आदमी
अनजान बन यह फिर रहा
ख़ुद प्रदूषित कर धरा को
ख़ुद उसी में घिर रहा,
हूँ बेचैन होकर ढूँढ़ता
जब शेष हो तब तो मिले
बिन प्राण वायु के मेरा दम
घुट जाए न तो क्या करे?

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