तुम कभी हो
विस्तृत आकाश से,
कभी लगते
एक दिव्य प्रकाश।
माना तन में
कोई कोख नहीं है
मन में किया
एक गर्भ-धारण
अपना अंग
स्वेद से सींचते हो।
शिशु के संग
दिवसावसान में
करते क्रीड़ा,
कल्पवृक्ष से तुम
हरते पीड़ा।
तेरा अनन्त ऋण
युग भी बीते
कोई चुका ना पाए,
आज पिताजी
बहुत याद आए,
उस तारे से
झाँकते मेरा घर
आशीर्वाद देकर।

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