पत्नी का पल्ला

14-03-2016

पत्नी का पल्ला

डॉ. प्रतिभा सक्सेना

बंधु जी कई दिनों से बड़े सोच में हैं।

मुझसे उनकी मित्रता है।

इधर कुछ दिनों से वे बड़ी उलझन में हैं। किस विषय पर लिखें।

"क्या टापिक उठाएँ समझ में नहीं आ रहा। हास्य-व्यंग्य के सारे विषय लोगों ने जुठा डाले।"

"कुछ सदाबहार विषय भी तो हैं - पत्नी कहीं चली गईं हैं क्या?"

"अभी जरा बाजार गई हैं पर इसमें  वह क्या करेंगी? उन्हें लिखने-लिखाने का जरा शौक नहीं।"

थोड़ा आश्चर्य हुआ।

व्यंग्य लिखनेवालों का दिमाग तो सुना है काफी चलता है, इनका क्या चला ही गया? कहीं बिल्कुल ही चल तो नहीं गया।

यह हमारा प्यारा भारत देश है। जहाँ अपनी पत्नी पर  पूरा हक हासिल होता है। विदेशों में ऐसा कहीं सुना या पढ़ा नहीं। वहाँ के जीवन में खुलापन होता है। पत्नी यहाँ जैसी दबी-ढकी नहीं सबके सामने होती है और उसका लेखक पति भी। इसलिये यहाँ जैसी कुण्ठायें नहीं होती होंगी। वैसे यह मेरा अनुमान है। मेरा ज्ञान काफी कम है इस मामले में, कोई जानकार हो तो बताये अपनी गलती ठीक कर लूँगा।

हाँ तो बात बन्धु जी की चल रही थी।

समझ में कुछ न आये पत्नी पर पिल पड़ो। उस पर लिखने के लिये तो पूछने-ताछने, सोचने-विचारने  की भी जरूरत नहीं, जो लिखो ठीक। सबको थोड़ा तमाशा चाहिये, उसे सामने कर दो। कोई रूप बनाकर हाज़िर कर दो अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, पुनरोक्ति, व्यंग्योक्ति कटूक्ति, सब जायज़ है । किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी, सब मज़े लेंगे। भई, कमज़ोर की जोरू दूसरों की भौजाई हुई। और स्पष्ट है लिखनेवाला कमज़ोर है -

शारीरक या मानसिक किसी तौर पर ही सही। अपने बल-बूते निपट नहीं पाता। बीवी का पल्ला तो पकड़ेगा ही। बिचारा समर्थ होता तब न चारों तरफ देखता  डट कर लोहा लेता अपनी अक्ल के हाथ-पाँव चला कर कुछ हासिल करता।  मेहरारू को सबके आगे घसीट लाने की जरूरत पड़ती ही नहीं। वैसे आजकल पर्दे का ज़माना नहीं है। बलि का बकरा बनाने के लिये कोई तो चाहिये। सबसे आसान चीज, हर समय हाज़िर, कोई खतरा नहीं। है कोई  हिन्दी हास्यकार जिसने पत्नी पर दो-दो हाथ न आजमाये हों! और कुछ नहीं तो अन्य रिश्तों में देख लीजिये! अपने यहाँ तो ऐसी ही परंपरा है, किसी को भी साला और ससुरे का रिश्ता जोड़ने में  लोगों की शान बढ़ती है पर अन्य कोई रिश्ता जोड़ते हिम्मत जवाब दे जाती है। हमारे महापुरुष पत्नी को अकेला छोड़ बेधड़क निकल जाते हैं - महामानव -बुद्ध कहलाते हैं, तुलसी बन जाते हैं। जो लोग यह नहीं कर पाते असमर्थ होने की विवशता को लफ़्जों का जामा पहना हास्य का मार्ग अपनाते हैं। सच है  - घर की मुर्गी दाल बराबर!

मनोरंजन करना भला काम है। हर काम में कुछ हथकंडे अपनाने पड़ते है। हमारे यहाँ यह परंपरा बहुत पुरानी नहीं है, काका तो पुरोधा हैं ही, गोपाल प्रसाद व्यास भी इसी खेमे के हैं और पीछे बड़ी लंबी लाइन है। गद्य हो चाहे पद्य - पत्नियाँ हाजिर हैं, एक से एक हँसाऊ स्थति में- समझा यही जाता है कि जिस हाल में पति रखे रहना परम धर्म है। अगर किसी बाहरवाली को घसीटे वह तो सबके सामने पीटने पर उतारू हो जायेगी घरवाली चुप लगा कर बैठ जायेगी, ज्यादा से ज्यादा खसियानी हँसी हँस कर रह जायेगी। कुछ शायद प्रसन्न भी हों कि सबके बीच आने का मौका मिला लेकिन सिर्फ़ तब जब उन्हें ठीक से प्रस्तुत किया गया हो, जो कि बहुत कम हता है। क्या करे बेचारी रहना तो वहीं है उसी के साथ! किसी को विरोध  करते मैंने देखा नहीं।

विस्फारित नेत्रों और निरीह मुद्रावाले ऐसे ऐसे हास्य कवि हैं कि  "घराळी"  का पल्ला पकड़े बिना कदम आगे नहीं बढ़ते। उनके बस का नहीं अकेले दाल गलाना। और जब दाल ही नहीं गलेगी तो खायेंगे क्या? जिम्मेदारी पत्नी की है अपने हिन्दी परम्परा में दाल गलाने की।

पर बंधु जी से यह बात सीधी सीधी नहीं कही जा सकती। बड़ी जल्दी बहकने लगते है। सोचते बाद में हैं पूछते पहले हैं तभी तो देख कर ही हँसने लगते हैं लोग। समझे बिना बिदक गये तो और मुश्किल!

हमने सर खुजाया, फिर कहा-

"काका हाथरसी ने काकी, यानी अपनी पत्नी को ले कर कितना लिखा है, और व्यास जी ने..।"

"हाँ, हमने पढ़ा है। बड़ा मजेदार लिखते हैं। हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाते हैं।"

"तो आप उन पर क्यों नहीं लिखते ?"

"उन पर, उनकी पत्नी पर? आपका मतलब है मैं काकी पर लिखूँ। अरे पिटवाना है क्या??"

"पत्नी! मेरा मतलब काकी नही। भगवान की कृपा से आप भी पत्नीवान हैं।"

उनके ज्ञान-चक्षु खुलते से लगे। हमने अपनी बात जारी रखी -

"सदाबहार विषय है। चाहे जो लिखिये, कोई खतरा नहीं। वे तो उपकृत होंगी कि आपने उन्हें विषय बनाया, सबके सामने आने का मौका दिया, अब लोग उनके बारे में भी जानते हैं। आपको वाहवाही मिलेगी सो अलग।"

वे कुछ सोच में पड़े हुये थे। हम कहते रहे -

"और मान लो गुस्सा भी हुईं तो क्या कर लेंगी आपका। धीरे धीरे आदत पड़ जायेगी सब झेलने की। जायंगी कहाँ? आप तो जानते हैं," उनके चेहरे समाधान की शान्ति झलक मारने लगी थी।

हम कहते गये, "भारत की पत्नी हैं आखिर को, आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।"

वे बीच में बोले, "भारत की पत्नी से मुझे क्या मतलब जब अपनी खुद की है। वह आदमी तो लड़ने पर आमादा हो जायेगा।"

हमने स्पष्ट किया, "आप भारतीय पति हैं, सर्वाधिकार संपन्न! डरना मत बंधु! पति हो पति बन कर जियो। 

और उनकी लेखनी धड़ल्ले से चलने लगी। और बहुत से और लोग उनके पीछे हो लिये।

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