दीवारें नफ़रत के घरौंदों की
अक्सर बनी होती हैं
उन शब्दों की ईंटों से
जो पकने से पहले ही गिर जाती हैं
किसी की उम्मीदों के बहते पानी में।
उछलती हुई बूँदें जब बिखर जाती हैं
नाक़ामयाबी की सड़क पे
और मिल के मिट्टी से तब्दील हो जाती हैं कीचड़ में।
विक्षिप्त दिमाग सी कीचड़ मिलकर अधपकी ईंट से
बना देती है नफ़रत के पक्के घर।
सुनो, तुम जब भी जाओ वहाँ साथ ले जाना
बर्फ़ सा ठंडा दिमाग़,
क्योंकि वो ईंटें आज भी गर्म हैं।
और ले जाना एक साफ़ आईना,
ताकि तुम्हें याद रहे तुम्हारा अपना अक़्स।
हाँ! मत भूलना अपने गुलाब से दिल को,
वहाँ की बू तुम सह नहीं पाओगे।
और क्या याद दिलाऊँ?
कि छोड़ देना यहीं पे दीवारों को तोड़ने का सामान,
टूटकर पक जाती हैं ये कच्ची दीवारें।
बस! तुम चले जाना…
खड़े हो जाना… उन्हें देखना…
और पुकारना उम्मीद के पानी को…
देखना! ढह जायेगा नफ़रत का पूरा घर,
बह जायेगा उसी पानी में।
तुम देखना… देखोगे ना!
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
कविता
साहित्यिक आलेख
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में