मन

अवनीश कुमार (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मन   चंचल   रुकता   नहीं,  बाँधे  बिना लगाम।
सकल  जगत  नापत  फिरै, लेत  नाहीं  विश्राम॥1
 
मन  ऐसा  पाखी  खरा,  आसमान   उड़ि   जाए।
देख  रंग   सुरचाप  के,  आपन   कौ   बिसराय॥2
 
मन - भँवरा अति डोलता, जगत-कुसुम की ओर।
पीछे  पड़त  पराग  के, शूल  चुभत  अति  जोर॥3
 
भौंरा   डोले   बाग    मैं,   मन    डोले    संसार।
एक  ही  उनकी  रीति  है, एक  ही उनका  सार॥4
 
मन   पंथी   है   बावला,  ढूँढत   अपनो    मित्त।
राह  भटकता  वो  फिरै,  शांत   नही   है   चित्त॥5
 
मन बालक अलमस्त है, उझकि-उझकि भग जात।
घेरन   चाहें   सब   जने,   देता    सबको   मात॥6
 
मन - नायक  बिंध  जात  है, जगत-प्रिया के नैन।
प्रेम - कलोल  में  मगन  ह्वै,  बोलत   सुंदर   बैन॥7
 
मन  बाँधत - बाँधत  थके, सारे  जग   के   लोग।
फिर  भी  हाथ  न  आ  सका, अपनाये को जोग॥8
 
आर्यावर्त  के  ऋषि - मुनि,  कहते  हैं  इक बात।
मन - बन्धन  की  चाह ले, जोग बिना कित जात॥9
 
जोग  मंच  का  मसखरा,  बातन  में   उलझात।
हँसी - ठिठोली  बीच  ही, मन  को बाँधत जात॥10
 
मन  मन्दिर  बनता  तभी,  जोग   पुजारी   होए।
पूजक  बिन  सूनी  मणी,  जोग  बिना मन होए॥11
 
जोग  मनुज का शस्त्र  है, मन का अरि बलवान।
जोग  करत  ही  होत  है, मानव  अति  गुणवान॥12
 
ब्रह्ममुहूर्त  उठि  जात  है, करत  सदा  जो जोग।
रहे  अचल  मानस  सदा, तन  भी   रहे   निरोग॥13

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