लेखक
गौरव भारतीदलित हो
दलाली करोगे
साहित्य देश विरोधी
तुम भी लिखोगे
मैं हैरान था
सुनकर मान्यवर लेखक के यह बोल
क़द इतना ऊँचा
और इतने बौने बोल
कुछ देर तक
सुनता रहा
मन ही मन जवाब ढूँढ़ता रहा
दलित हूँ मगर दलित पीड़ा जानी नहीं
कुछ छिटपुट घटनाएँ हुई मगर
आत्मकथा लायक़ नहीं
मित्र भी अधिकतर सवर्ण है
जिन्हें आज इस नज़र से देखना पड़ा
लेखक महोदय की बात सुन
साहित्य मुझे संकट में जान पड़ा
मैंने कहा बड़े अदब से
लेकिन प्रतिकार कर बैठा
देश क्या दलितों का नहीं
यह सवाल कर बैठा
सहानुभूति से लिखते आये हो
स्वानुभूति भी कोई चीज़ होती है
आज वो कह रहे हैं अपनी बात
इसमें हर्ज़ ही क्या है
लेखन उनकी विवशता है
सवाल मुख्य अस्मिता है
जिन्हें आप मारते आये हो लात
साहित्य, संसद, मंदिर, मठ
हर जगह बस पूरा हुआ आपका स्वार्थ
पुरुष हमेशा इस जमात के
अछूत रहे तुम्हारे लिए
स्त्रियों का भक्षण तुमने
किया न जाने किस हाथ से
सवाल बहुत हैं मगर क्या पूछूँ
जवाब तुम दोगे नहीं
मैंने कुछ सहा नहीं
मगर अस्मिता का प्रश्न
नाजायज़ नहीं
सवाल प्रतिकार प्रचार का नहीं है
सवाल है उन प्रपंचो का
जिससे हित सधा सदैव
राजनीति, साहित्य, समाज, धर्म में
सिर्फ द्विजों का
लेखक महोदय गर्म हुए
शब्दों की लाठी मुझपर बरसायी
आ गए अपने औक़ात पर
कह औक़ाद मेरी बतलायी
मैंने कहा
क़द बहुत छोटा है मान्यवर
भूल मेरी क्षमा करो
औक़ात आपकी बहुत ऊँची है
जान लिया है माफ़ करो
जीत भाव से विदा हुए
मान्यवर मुख पर हँसी लिए
मैं इतिहास की तरफ़ लौटूँ क्या
जवाब कुछ ढूँढ़ने के लिए
इतिहासबोध ज़रूरी है
लेकिन क्या दलित लेखक का ठप्पा
सिर्फ जाति से ही मिल जायेगा
उभरने का सपना अखिल स्तर पर
महज सपना ही रह जायेगा
रह जाऊँगा एक लेखक दलित
साहित्य न्याय नहीं कर पायेगा
कुछ सवाल है
जो संशय पैदा करते हैं
एक अदने से बालक की
नींद हराम करते हैं
मेरा अधूरा गढ़ा चरित्र
मुझसे पूछने लगे हैं
मेरे निर्माता क्या मुझपर
अब दलित रंग चढ़ाओगे
क्या अब तुम मेरे साथ न्याय कर पाओगे
मैंने भी ठान ली है
अनुभव के दायरे में जो भी आएगा
सबको क़लम से बयाँ करूँगा
बीसवीं शताब्दी की पैदाइश
यह दलित
सिर्फ लेखक ही कहलाएगा।