जंगल में लोकतंत्र

19-03-2014

जंगल में लोकतंत्र

गोवर्धन यादव

जंगल का राजा शेर अब बूढ़ा हो चुका था। शरीर में अब इतनी ताक़त भी नहीं बची थी कि वह अपने बल पर शिकार कर सके। न तो आज वह दौड़-भाग कर सकता था और न ही ऊँची छ्लांग ही लगा सकता था। उसे ऐसा लगने लगा था कि अब भूखों मरना पड़ेगा। एक शेर होने के नाते वह ख़ुदकुशी भी तो नहीं कर सकता था। अब क्या किया जाए, इसी उधेड़बुन में बैठा वह गंभीरता से विचार कर रहा था। ज़िन्दा कैसे रहा जाए, इसी बात को लेकर चिन्ता उसे खाए जा रही थी

काफ़ी सोचाने-विचारने के बाद उसके दीमाग में एक विचार आया। क्यों न किसी जानवर को पटाकर अपना अस्सिस्टेंट बना लिया जाए,जो उसके भोजन-पानी की व्यवस्था करता रहे। इसी क्षण उसे अपने दिवंगत पिता की याद हो आयी। और यह भी याद हो आया कि किस तरह एक छोटे से प्राणी खरगोश ने उसे बुद्धू बना कर कुएँ में छलाँग लगाने के उकसाया था। काफ़ी सोच विचार करने के बाद उसने एक भेड़िए को पटाने की सोची।

भेड़िए को ख़बर भेज कर बुलाने के बाद उसने उससे कहा कि वह उसे इस जंगल का भावी राजा घो‍षित कर सकता है,बशर्ते कि वह उसके लिए शिकार का प्रबन्ध करे।

भेड़िया आखिरकार इस शर्त पर राज़ी हो गया कि शिकार में से उसका पच्चीस प्रतिशत हिस्सा रहेगा।

शेर अब निश्चिन्त हो कर अपनी गुफ़ा में आराम से दिन काटने लगा था।

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